. मार्क्सवाद व्यक्तिगत आज़ादी का विरोधी नहीं, सभी की वास्तविक व्यक्तिगत आज़ादी का घोर हिमायती होने के ही चलते उदारवादी आज़ादी के भ्रम को तोड़ता है क्योंकि व्यक्ति के स्वायत्त अस्तित्व की अवधारणा एक भ्रम है, कोई भी व्यक्ति गुलाम या मालिक व्यक्ति के रूप मे नहीं बल्कि समाज में, समाज के द्वारा, समाज के स्थापित संबंधों के तहत, समाज के अभिन्न रूप के रूप में वह गुलाम या आज़ाद होता है. व्यक्ति सदा स्वार्थपरक होकर निजी इछ्कओं की पूर्ती को ही जीवन का उद्देश्य मनाता है, यह भी एक पूंजीवादी विचारधारात्मक दुष्प्रचार है. यह आज़ादी औरों से सहयोग की नहीं अलगाव की, दूसरों की आज़ादी की बेपरवाही की, बेरोक-टोक लूट और संचय की अज्ज़दी है. सवाल उठाता है क्या किसी परतंत्र समाज में कोई निजी स्वंत्र हो सकता है? निजी स्वंत्रता समाज की स्वतंत्रता से जुड़ी है. आज़ाद होना चाहते हैं तो समाज को आज़ाद करें. मेरे विचार से मार्क्सवाद का मूल मंत्र है कि आज़ाद होना चाहते हो तो आज़ाद समाज का निर्माण करो, व्यक्तिगत आज़ादी,
“किसी भी समाज में श्रमशक्ति और रचनाशीलता को लूटना और खसोटना कह के” मैंने कभी नहीं संबोधित किया. बल्कि सारी समस्ययायें और एलीनेसन श्रमशक्ति और रचनाशीलता पर स्वाधिकार के क्षरण से होता है. श्रमशक्ति के फल पर और अंततः श्रमशक्ति पर खरीददार –पूंजीपति का अधिकार होता है. कोई भी श्रमिक कितना भी अधिक वेतन पाता हो संचय नहीं कर सकता, संचय के भ्रम में रहता है, संचय तो सिर्फ पूंजीपति ही कर सकता है. श्रम-शक्ति को उपभोक्ता सामग्री के दर्जे से मुक्ति दिलाना और उसे रचनाशीलता के रूप मे सम्मानित करना मार्क्सवाद का मकसद है. जी हाँ स्वायत्त अस्तित्व की धारणा विशुद्ध भ्रम है. ऐतिहासिक विकास के दौरान मनुष्य अन्य मनुष्यों के साथ अपनी इच्छा से स्वतन्त्र सम्बन्ध स्थापित करता है. मार्क्सवाद मनुष्य के behavioral aspect को नकारता नहीं बल्कि चेतना के रूप में उसकी वैज्ञानिक व्याख्या करता है. ऐतिहासिक भौतिकवाद, जिसे मार्क्सवाद का विज्ञान कहा जाता है, निरंतर शोध और अन्वेषण के जरये तथ्यों-तर्कों पर आधारित प्रमाणित और सत्यापित लिए जाने वाले प्रमेयों का समुच्चय है, किसी पूर्वाग्रह/पोंगापंथ/ईश्वर की इच्छा या मार्क्स के वक्तव्य पर नहीं. सत्य वही जो प्रमाणित किया जा सके. विकास के हर चरण की भौतिक परिस्थियां और तदनुसार समाजीकरण के अनुसार मानव चेतना का निर्माण होता है और बदली चेतना बदली भौतिक परिस्थियों का परिणाम है. लेकिन परिस्थियां स्वयं नहीं बल्कि सचेत मानव प्रयास से बदलती हैं. अतः सत्य भौतिक स्थितियों एवं चेतना का द्वंदात्मक संश्लेषण है.
“किसी भी समाज में श्रमशक्ति और रचनाशीलता को लूटना और खसोटना कह के” मैंने कभी नहीं संबोधित किया. बल्कि सारी समस्ययायें और एलीनेसन श्रमशक्ति और रचनाशीलता पर स्वाधिकार के क्षरण से होता है. श्रमशक्ति के फल पर और अंततः श्रमशक्ति पर खरीददार –पूंजीपति का अधिकार होता है. कोई भी श्रमिक कितना भी अधिक वेतन पाता हो संचय नहीं कर सकता, संचय के भ्रम में रहता है, संचय तो सिर्फ पूंजीपति ही कर सकता है. श्रम-शक्ति को उपभोक्ता सामग्री के दर्जे से मुक्ति दिलाना और उसे रचनाशीलता के रूप मे सम्मानित करना मार्क्सवाद का मकसद है. जी हाँ स्वायत्त अस्तित्व की धारणा विशुद्ध भ्रम है. ऐतिहासिक विकास के दौरान मनुष्य अन्य मनुष्यों के साथ अपनी इच्छा से स्वतन्त्र सम्बन्ध स्थापित करता है. मार्क्सवाद मनुष्य के behavioral aspect को नकारता नहीं बल्कि चेतना के रूप में उसकी वैज्ञानिक व्याख्या करता है. ऐतिहासिक भौतिकवाद, जिसे मार्क्सवाद का विज्ञान कहा जाता है, निरंतर शोध और अन्वेषण के जरये तथ्यों-तर्कों पर आधारित प्रमाणित और सत्यापित लिए जाने वाले प्रमेयों का समुच्चय है, किसी पूर्वाग्रह/पोंगापंथ/ईश्वर की इच्छा या मार्क्स के वक्तव्य पर नहीं. सत्य वही जो प्रमाणित किया जा सके. विकास के हर चरण की भौतिक परिस्थियां और तदनुसार समाजीकरण के अनुसार मानव चेतना का निर्माण होता है और बदली चेतना बदली भौतिक परिस्थियों का परिणाम है. लेकिन परिस्थियां स्वयं नहीं बल्कि सचेत मानव प्रयास से बदलती हैं. अतः सत्य भौतिक स्थितियों एवं चेतना का द्वंदात्मक संश्लेषण है.
देश और काल से निरपेक्ष जिस निजी आज़ादी की कवायद या हिमायत की जाती रही है, वह बाजारू साज़िश से ज्यादा कुछ नहीं है. बिलकुल सही फ़रमाया है आपने.
ReplyDeleteशुक्रिया.
ReplyDeletethe point about the illusion of accumulation by workers is a tough one to send across batch after batch, ask me how difficult it is to tell students how even elite workers are workers end of the day :)
ReplyDeleteEven the writers are workers not in terms of producing ideas but in terms of producing surplus. Even the highly paid executives and corrupt bureaucrats/politicians cannot accumulate, only capitalist can accumulate. By way of shares/bonds/insurances/secret deposits in foreign bank/gold biscuits in bank lockers ....the surplus income goes to the global corporate to accumulate more and to invest to buy more professional intellectuals.
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