मर्दवाद जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है और न ही कोई साश्वत विचार. मर्दवाद विचार नहीं बल्कि विचारधारा है जिसे हम रोजमर्रा के व्यवहार में निर्मित-पुनर्निर्मित करते हैं. किसी लड़की को शाबासी देने लिए हम उसे बेटा कह देते हैं और वह भी इसे प्रशंसा समझ स्वीकार कर लेती है. किसी लड़के को बेटी कह दीजिए तो वह नाराज हो जाएगा. विभिन्नता को असमानता के रूप में परिभाषित करने और उसी परिभाषा को असमानता के प्रमाण के रूप में इस्तेमाल करने वाली अन्य विचारधाराओं की ही तरह मर्दवाद भी रोटी-पानी के लिए स्वयंसिद्ध मिथकों और मान्यताओं पर निर्भर है. जब ये मिथक-मान्यताये और उनसे जुड़ी वर्जनाएं टूटती हैं तो यथास्थिति के ठेकेदारों को कल्चरल शाक (सांस्कृतिक संत्रास) लगता है, कुछ विभूति राय की तरह बौखला जाते हैं और मानसिक संतुलन खोकर उल-जलूल बोलने लगते हैं. "बाप रे! लड़की होकर.....". आप करें तो पुरुषार्थ हम करें तो पाप.
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