Tuesday, March 6, 2012
हारे को हरिनाम
मुझ सा साधारण इंसान समझ ही नहीं पाता और चौंकता है कि संघर्षों से निकले लोग, सम्मान, ख्याति और आर्थिक सुरक्षा के अर्थों में, बहुत कुछ पा चुकने के बाद, ऊर्ध्व-गमन की अनंत सम्भावनाओं के बावजूद अधोगमन का चुनाव करते हैं?; अदम्य मानव-क्षमता की अभिव्यक्ति के बाद हारे को हरिनाम लिखने लगते हैं? मैं वैसे तो नामवर जी की बात से तब चौंका था जब गोरख पांडे की शोकसभा में उन्होंने आत्म-ह्त्या को बहादुरी का काम बताया था. मैंने सोचा अवसाद की मनःस्थिति में शायद कुछ-का-कुछ कह गए हों. मेरे चौंकने का तब कोई ठिकाना ही नहीं रहा जब जे.एन.यू. का एक सम्मानित एमेरिटस प्रोफ़ेसर; हिन्दी साहिय में प्रगतिशील खेमे का मुखर लम्बरदार; दूसरी परम्परा का अन्वेषण करने वाला हिन्दी का मूर्धन्य आलोचक, नामवर जी ने न जाने और क्या पाने(खोने) के लिए, चीट-फंड के रास्ते मीडिया-सम्राट सुब्रत राय (सहाराश्री) के सामंती दरबार को पुरोहित के रूप में सुशोभित करना शुरू कर दिया था. पुरोहित इस लिए कि बाकी दरबारी सहाराश्री का चरणरज लेकर स्थान ग्रहण करते थे किन्तु नामवर जी का अभिवादन स्वयं सहाराश्री सहारा सलाम से करते थे. यह शायद चौंकने का चरम था. फिर अब नामवर जी की किसी खबर पर नहीं चौंकता हूँ.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment