In any class society, ruing classes overplay and over-project their internal contradictions to blunt the edge of the major-economic contradiction and create ideological confusion with the aim of impeding the transition of working-class (rural proletariat/peasantry/unemployed included) from the class-in-itself to class-for-itself. Look at the BJP-Cong contradiction both competing each other to prove more loyal to the Imperialist bosses and the sell way national resources to Corporate giants in the name of disinvestment! Unfortunately, the internal contradictions of various factions of ruling classes and their mostly paid political agents, is so overpaid that it seems to be the national political contradictions. Anna Hazare's "crusade" against corruption can be compared, in terms of safety-valve, like the "anti-globalization" campaign funded by globalizing agencies, under the banner of WSF. Nevertheless, as an inadvertent consequence the monstrous designs of corporate global capital, got highlighted to some extent. similarly, Anna's campaign has highlighted the issue of corruption got highlighted. Anna's appeal, touched the urban middle class sentiment and would be wound up as soon as it starts taking a mass-shape. Since the issue was secular and corruption-generated price rise and inflation is hitting the lavishly life style of the urban educated middle class and traders. It was similar crowd that could have been witnessed during ant-Mandal agitation.
Saturday, August 27, 2011
Monday, August 22, 2011
great scholar of ancient India
प्रोफ़ेसर राम शरण शर्मा से निजी निजता न होते हुए भी उनके निधन से निजी क्षति का आभास हो रहा है. शर्मा जी से सेमिनारों के अलावा दो परिस्थिति-जन्य मुलाकातें हुई हैं. पहली बार १९७७ या ७८ में सूना था. गोदावरी मेस में किसी इतिहास के विषय पर गोष्ठी थी. शर्मा जी बता रहे थे कि किस तरह समाज में surplus के उद्पादन के साथ राज्य निर्माण की नीव पडी. याद नहीं कौन था, किसी भोजपुरी-भाषी FT ने पूछा, यह surplus क्या होता है? शर्माजी ने कुर्ता उठाया और तोंद पर हाथ फरकर कहा यह surplus है.
पहली मुलाक़ात संयोग से पटना में हुई. दिल्ली विश्वविद्यालय से एक-दो साल में अवकाश ग्रहण करने वाले थे. मैं बिहार पहली बार गया था रेल में कई बार उधर से गुजरा था, उदिशा/बंगाल/असं के रास्ते. मैं अरवल जनसंहार पर एक fact-finding के लिए गया था. स्टेसन से Times of India का रिक्शा लिया उर्मिलेश और रंजीत भूषण से मिलने. पता चला कि ये लोग दूसरे दफ्तर में बैठते हैं . बाहर निकलकर रिक्शा लेने की सच ही रहा था कि चका-चक सफ़ेद कुर्ता-धोती में एक भरी-भरकम काया नजदीकी पार्क में टहलती दिखी. एक पढ़े-लिखे दिखने वाले राहगीर से पूछा "ये क्या मशहूर इतिहासकार आर एस शर्मा हैं, उन्होंने बताया, "नहीं दिल्ली के बहुत बड़े प्रोफ़ेसर हैं”.
मैं हिम्मत जुटा कर पास गया और नमस्कार किया बहुत ही गद-गद भाव से मिले और मैं आह्लादित हो गया. बोले घर पर कोइ नहीं है इसलिए आओ दूकान पर चाय पीते हैं. इतने बड़े विद्वान और इतने सहज और सरल !!
अगली मुलाक़ात दिल्ली में भी संयोग से ही हो गयी थी. मेरी हिन्दू कालेज की नौकरी ख़त्म हुए या यों कहिये कि नौकरी से निकाले गए २-४ दिन हुए थे. दिल्ली विश्वविद्यालय में ९९.९% नौकरियाँ अकादामिकेतर योग्यताओं पर दी जाती हैं. ०.१% संयोगों की दुर्घटना से . प्रोफेसरों के बेटे-बेटियों/कुत्ते-बिल्लियों को MA करते ही मिल जाती है. १९८० के दशक में डॉ अशोक राज और मैंने एक किताब की योजना बनायी थी "दि गाडफादर्स एंड द बास्टर्ड सन्स", काम शीर्षक से आगे नहीं बढ़ा क्योंकि कलम रोजी-रोटी का बंधुआ था. मुझे निकाल कर बिहार ही नहीं देश के एक बहुत बड़े आदमी के अति-प्रतिभाशाली बेटे को वह नौकरी दिलाने के लिए वाम-मध्य-दक्षिण सभी पंथों के प्रोफेसरों में ग्लास्त्नोस्त हो गया था. इसमें थोड़ी-बहुत भूमिका हमलोगों के मित्र और तत्कालीन मंत्री स्वर्गीय दादा दिग्विजय सिंह की भी थी. वैसे यह काम बिना उनके भी हो गया होता. खैर इसकी चर्चा का यह उपयुक्त मंच नहीं है.
प्रोफेसरों की कमीनेपन और जहालतों के बारे में सोचता हुआ, अवसाद की मनः-स्थिति में माल रोड बस लेने जा रहा था. तभी देखा प्रोफ़ेसर शर्मा university गेस्ट हाउस की तरफ जा रहे थे. मैंने सोचा साढ़े ४ साल पुरानी चंद मिनटों की मुलाक़ात तो इन्हें याद नहीं होगी और प्रोफेसरों के प्रति आम-आक्रोश के चलते नज़र-अंदाज़ करके निकल जाना चाहता था. मुझे बहुत आश्चर्य हुआ जब उन्होंने दूर से नाम लेकर पुकारा. गेस्ट हाउस ले गये और २-३ घंटे तमाम बातों पर बातें करते रहे और उसी समय प्रकाशित अपनी पुस्तिका, "इवोल्युसन आफ स्टेट इन ऐन्सिएन्त इंडिया" की हस्ताक्षरयुक्त प्रति भेंट किया. जिसे मैंने उसी दिन पढ़ लिया. काफी राहत और प्रेरणा मिली उस मुलाक़ात से. बड़प्पन यह कि मुझ जैसे तलाश-ए-माश में मशगूल अदना से इंसान को छोड़ने गेस्ट हाउस के गेट तक आये.
प्रोफ़ेसर शर्मा का निधन पूरी दुनिया के लिए शोक का विषय है. फेसबुक पर मिली खबर से विह्वल हो गया. सर्व-कालिक इस विद्वान को मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं. अपनी विद्वतापूर्ण कृतियों की बदौलत प्रोफ़ेसर शर्मा अमर रहेनेंगे. शत-शत नमन और लाल-सलाम.
पहली मुलाक़ात संयोग से पटना में हुई. दिल्ली विश्वविद्यालय से एक-दो साल में अवकाश ग्रहण करने वाले थे. मैं बिहार पहली बार गया था रेल में कई बार उधर से गुजरा था, उदिशा/बंगाल/असं के रास्ते. मैं अरवल जनसंहार पर एक fact-finding के लिए गया था. स्टेसन से Times of India का रिक्शा लिया उर्मिलेश और रंजीत भूषण से मिलने. पता चला कि ये लोग दूसरे दफ्तर में बैठते हैं . बाहर निकलकर रिक्शा लेने की सच ही रहा था कि चका-चक सफ़ेद कुर्ता-धोती में एक भरी-भरकम काया नजदीकी पार्क में टहलती दिखी. एक पढ़े-लिखे दिखने वाले राहगीर से पूछा "ये क्या मशहूर इतिहासकार आर एस शर्मा हैं, उन्होंने बताया, "नहीं दिल्ली के बहुत बड़े प्रोफ़ेसर हैं”.
मैं हिम्मत जुटा कर पास गया और नमस्कार किया बहुत ही गद-गद भाव से मिले और मैं आह्लादित हो गया. बोले घर पर कोइ नहीं है इसलिए आओ दूकान पर चाय पीते हैं. इतने बड़े विद्वान और इतने सहज और सरल !!
अगली मुलाक़ात दिल्ली में भी संयोग से ही हो गयी थी. मेरी हिन्दू कालेज की नौकरी ख़त्म हुए या यों कहिये कि नौकरी से निकाले गए २-४ दिन हुए थे. दिल्ली विश्वविद्यालय में ९९.९% नौकरियाँ अकादामिकेतर योग्यताओं पर दी जाती हैं. ०.१% संयोगों की दुर्घटना से . प्रोफेसरों के बेटे-बेटियों/कुत्ते-बिल्लियों को MA करते ही मिल जाती है. १९८० के दशक में डॉ अशोक राज और मैंने एक किताब की योजना बनायी थी "दि गाडफादर्स एंड द बास्टर्ड सन्स", काम शीर्षक से आगे नहीं बढ़ा क्योंकि कलम रोजी-रोटी का बंधुआ था. मुझे निकाल कर बिहार ही नहीं देश के एक बहुत बड़े आदमी के अति-प्रतिभाशाली बेटे को वह नौकरी दिलाने के लिए वाम-मध्य-दक्षिण सभी पंथों के प्रोफेसरों में ग्लास्त्नोस्त हो गया था. इसमें थोड़ी-बहुत भूमिका हमलोगों के मित्र और तत्कालीन मंत्री स्वर्गीय दादा दिग्विजय सिंह की भी थी. वैसे यह काम बिना उनके भी हो गया होता. खैर इसकी चर्चा का यह उपयुक्त मंच नहीं है.
प्रोफेसरों की कमीनेपन और जहालतों के बारे में सोचता हुआ, अवसाद की मनः-स्थिति में माल रोड बस लेने जा रहा था. तभी देखा प्रोफ़ेसर शर्मा university गेस्ट हाउस की तरफ जा रहे थे. मैंने सोचा साढ़े ४ साल पुरानी चंद मिनटों की मुलाक़ात तो इन्हें याद नहीं होगी और प्रोफेसरों के प्रति आम-आक्रोश के चलते नज़र-अंदाज़ करके निकल जाना चाहता था. मुझे बहुत आश्चर्य हुआ जब उन्होंने दूर से नाम लेकर पुकारा. गेस्ट हाउस ले गये और २-३ घंटे तमाम बातों पर बातें करते रहे और उसी समय प्रकाशित अपनी पुस्तिका, "इवोल्युसन आफ स्टेट इन ऐन्सिएन्त इंडिया" की हस्ताक्षरयुक्त प्रति भेंट किया. जिसे मैंने उसी दिन पढ़ लिया. काफी राहत और प्रेरणा मिली उस मुलाक़ात से. बड़प्पन यह कि मुझ जैसे तलाश-ए-माश में मशगूल अदना से इंसान को छोड़ने गेस्ट हाउस के गेट तक आये.
प्रोफ़ेसर शर्मा का निधन पूरी दुनिया के लिए शोक का विषय है. फेसबुक पर मिली खबर से विह्वल हो गया. सर्व-कालिक इस विद्वान को मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं. अपनी विद्वतापूर्ण कृतियों की बदौलत प्रोफ़ेसर शर्मा अमर रहेनेंगे. शत-शत नमन और लाल-सलाम.
Friday, August 19, 2011
टुकड़ों में वजूद
टुकड़ों में वजूद
ईश मिश्र
किसी ने कहा
इंसान के वजूद के कई तुकडे होते हैं
एक भले इंसान का एक स्वार्थी टुकड़ा
स्वर्ण-लोम से दोस्ती करता है
उसकी पीठ पर सवार हो समुद्र पार करता है
पहुंचते ही उस पार
घोंप कर पीठ में छुरी
मार देता है उसे धोखे से
उसकी खाल बेचने के लिए
इंसान का वजूद नहीं होता टुकड़ों में
होता है वह हमेशा मुकम्मल
सुवर्ण लोम को फंसा कर
उसपर सवार हो समुद्र पार कर
फिर उसे मार कर
उसकी खाल बेचने वाला कमीना स्वार्थ
उसके कमीने वजूद का ही शाया है
उसका कभी कभी अलग दिखना
कमीना न लग कर भला लगना
सिर्फ छलावा और माया है
१९.०८.२०११
Monday, August 15, 2011
देश क्या आज़ाद है? -- अदम गोंडवी --
देश क्या आज़ाद है?
-- अदम गोंडवी --
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है
दिल पर रख कर हाथ कहिये देश क्या आज़ाद है?
कोठियों से मुल्क के मायार को मत आंकिये
असली हिनुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद ही.
जिस शहर में मुन्तजिम अंधे हों जल्वागाह के
उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है.
ये नयी पीढी पर निर्भर है वही जजमेंट दे
फलसफा गांधी का मौजूं है की नाक्सालवाद है.
यह ग़ज़ल महरूम मंटो को नज़र है दोस्तों
जिसके अफ़साने में ठंढे गोस्त की रूदाद है.
-- अदम गोंडवी --
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है
दिल पर रख कर हाथ कहिये देश क्या आज़ाद है?
कोठियों से मुल्क के मायार को मत आंकिये
असली हिनुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद ही.
जिस शहर में मुन्तजिम अंधे हों जल्वागाह के
उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है.
ये नयी पीढी पर निर्भर है वही जजमेंट दे
फलसफा गांधी का मौजूं है की नाक्सालवाद है.
यह ग़ज़ल महरूम मंटो को नज़र है दोस्तों
जिसके अफ़साने में ठंढे गोस्त की रूदाद है.
Sunday, August 14, 2011
आज़ादी कैसी ?
आज़ादी कैसी ????? किसकी ??????
-----अली सरदार जाफ़री--
कौन आज़ाद हुआ .......?
किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी
मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का
मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है वही
कौन आज़ाद हुआ .......?
खंज़र आज़ाद है सीने में उतरने के लिए
मौत आज़ाद है लाशों पे गुजरने के लिए
कौन आज़ाद हुआ .......?
काले बाज़ार में बदशक्ल चुडैलों की तरह
कीमतें काली दुकानों पे खड़ी रहती हैं
हर खरीदार की जेबों को कतरने के लिए
कौन आज़ाद हुआ .......?
कारखानों में लगा रहता है
सांस लेती हुई लाशों का हुजूम
बीच में उनके फिरा करती है बेकारी भी
अपने खूंखार दहन खोले हुए
कौन आज़ाद हुआ .......?
रोटियाँ चकलों की कहवाएं हैं
जिनको सरमाये के दल्लालों ने
नफाखोरी के झरोखों में सजा रखा था
बालियाँ धान की गेहूं के सुनहरे खोशे
मिस्र-ओ-यूनान के मजबूर गुलामों की तरह
अजनबी देश के बाज़ारों में बिक जाते हैं
और बदबख्त किसानों की तड़पती हुई रूह
अपने अफलास में मूह ढांप के सो जाती है
कौन आज़ाद हुआ .......?
-----अली सरदार जाफ़री--
कौन आज़ाद हुआ .......?
किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी
मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का
मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है वही
कौन आज़ाद हुआ .......?
खंज़र आज़ाद है सीने में उतरने के लिए
मौत आज़ाद है लाशों पे गुजरने के लिए
कौन आज़ाद हुआ .......?
काले बाज़ार में बदशक्ल चुडैलों की तरह
कीमतें काली दुकानों पे खड़ी रहती हैं
हर खरीदार की जेबों को कतरने के लिए
कौन आज़ाद हुआ .......?
कारखानों में लगा रहता है
सांस लेती हुई लाशों का हुजूम
बीच में उनके फिरा करती है बेकारी भी
अपने खूंखार दहन खोले हुए
कौन आज़ाद हुआ .......?
रोटियाँ चकलों की कहवाएं हैं
जिनको सरमाये के दल्लालों ने
नफाखोरी के झरोखों में सजा रखा था
बालियाँ धान की गेहूं के सुनहरे खोशे
मिस्र-ओ-यूनान के मजबूर गुलामों की तरह
अजनबी देश के बाज़ारों में बिक जाते हैं
और बदबख्त किसानों की तड़पती हुई रूह
अपने अफलास में मूह ढांप के सो जाती है
कौन आज़ाद हुआ .......?
whose independence? of peasants of kalinganagar-jagatsinghpur-niyamgiri-aligarh ......... whose lands are forcibly exprprited to facilitate the profit making by corporate-land mafia-comprador political parties-bureaucracy nexus with the help of armed-uniformed people maintained on people's money?? of people of northeast and J&K whose freedoms and right to live, forget about to live freely is captive of Indian s???? ..................................................................................................................... of the peasants who are committing suicide??? Or for Tatas/Ambanis/Vwdanantas/Poscos?Nilton and Mitons ............... and their paid agents in central -state governments-- the manmohans/chidambarams/naveens/ramans............rajas& radias/kalmadis and yediruppas??? whose independence is bit??
Saturday, August 13, 2011
उदय प्रकाश के स्व-निर्वासन पर
उदय प्रकाश के स्व-निर्वासन पर
ईश मिश्र
जो कलम जैसा मुश्किल औजार चला सकता है
कलम को औजार से हथियार बना सकता है
उसके लिए हल-कुदाल चलाना या बन्दूक उठाना
है राहुल सांकृत्यायन या क्रिस्टोफ़र काड्वेल को याद करना
जंगल तो हमें जाना ही है अंततः
चुनाव का अधिकार हमारा ही है वस्तुतः
होती है ईर्ष्या आपके स्वनिर्वासन से
चाकरी वालों यह सुख नसीब हो कैसे
हैं आप तो शब्द-शिल्पी और कारीगर भाषा के
बन कुम्हार, गीली मिट्टी से गढ़ देते हैं भाव कविता के
हाथ चला रहे होते हैं जब कुदाल
आते हैं मन में कई ख्याल
दिखते हैं जब श्रम के फल होते अंकुरित
लगता है शीघ्र ही होंगे ये पूर्ण विकसित
दिखती हैं पौधों में जब कलियाँ
बनेंगीं ये जल्दी ही फलियाँ
मुबारक हो खेती कहानी-कविताओं की
उपन्यासों और आलोचनाओं की
ईश मिश्र
जो कलम जैसा मुश्किल औजार चला सकता है
कलम को औजार से हथियार बना सकता है
उसके लिए हल-कुदाल चलाना या बन्दूक उठाना
है राहुल सांकृत्यायन या क्रिस्टोफ़र काड्वेल को याद करना
जंगल तो हमें जाना ही है अंततः
चुनाव का अधिकार हमारा ही है वस्तुतः
होती है ईर्ष्या आपके स्वनिर्वासन से
चाकरी वालों यह सुख नसीब हो कैसे
हैं आप तो शब्द-शिल्पी और कारीगर भाषा के
बन कुम्हार, गीली मिट्टी से गढ़ देते हैं भाव कविता के
हाथ चला रहे होते हैं जब कुदाल
आते हैं मन में कई ख्याल
दिखते हैं जब श्रम के फल होते अंकुरित
लगता है शीघ्र ही होंगे ये पूर्ण विकसित
दिखती हैं पौधों में जब कलियाँ
बनेंगीं ये जल्दी ही फलियाँ
मुबारक हो खेती कहानी-कविताओं की
उपन्यासों और आलोचनाओं की
सामाजिक न्याय और भ्रष्टाचार
आरक्षण, सामाजिक न्याय और भ्रष्टाचार
मैं आरक्षण का प्रबल समर्थक हूँ और सामान्य मान्यता के विपरीत इसे सकारात्मक पक्षपात या कारवाई की बजाय सदियों की प्रवंचना और अन्याय की आंशिक भरपाई मानता हूँ.जन्म की दुर्घटना की पहचान को छिपाए बिना मनुवाद के विरुद्ध बुलंद नारे लगाता हूँ और तरस खाता हूँ अपने इतिहास पर जो इतने समय यह अमानवीय व्यवस्था बर्दाश्त करता रहा विद्रोहों की कहानियां दबाते हुए. लेकिन तमाम और लोग भी मनुवाद का आशय या ऐतिहासिक सन्दर्भ समझे बिना मनुवाद-मुर्दावाद चिल्लाते हैं न ही समझने की कोशिश करते हैं उसी तरह जिस तरह: तमाम पत्रकार किसी तिकडमबाज नेता को कौटिल्य के अर्थशास्त्र की इन्टरनेट से भी जानकारी के बिना भी कौटिल्य या चाणक्य लिख देते हैं; अटलबिहारी जैसे नेता कौटिल्य के राज-धर्मं/आपद्धर्म का क-ख पढ़े बिना इन शब्दों की दुहाई देने लगते हैं जिनको लागू करते तो बाजपेयी जी को अपने तमाम सिपहसालारों को मौत या अपमान और प्रतानाना के साथ मौत की सजा देनी पड़ती; उन विद्वानों की तरह जो ऋग्वेद(या अनुवाद) के पन्ने पलटे बिना उसे दुनिया के सभी ज्ञान-विज्ञान का श्रोत मानते हैं; या आप,जयंतीभाई मनानी जैसे लोग
जो विवेकानंद जैसे इतिहास-पुरुष या स्वामी की मान्यताओं/विचारों को पढ़े/समझे बिना उन्हें अपना आदर्श मान लेते हैं. विवेकानंद धार्मिक राष्ट्रवाद के समर्थक थे और धर्म को भारत की ऐतिहासिक और धार्मिक महानता की धुरी मानते थे. हिन्दू धर्म को वे सभी धर्मों का श्रोत मानते थे. वतुतः वर्णाश्रम धर्म ही हिन्दू धर्म है, स्वामी ने इसका कहीं खंडन नहीं किया है. विवेकानंद की प्रोफाइल पिक्चर के साथ मनुवाद विरोधी नारे लगाना बेईमानी है उसी तरह जिस तरह पितृसत्तात्मक,वर्णाश्रम व्यवस्था के आदर्श, राम को अच्छाइयों का प्रतीक मानते हुए दलित या नारी अधिकारों की हिमायत करना.
आरक्षण एक क्रांतकारी अवधारणा नहीं है बल्कि सुधारात्मक है, सारी अंतर्निन्हित विकृतियों के साठ. तब भी मैं आरक्षण का प्रबल समर्थक हूँ यह जानते हुए कि इसका मकसद अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बदलना न होकर इसकी सत्ता में समानुपातिक भागीदारी है. मंडल आयोग के जो भी अन्य परिणाम हैं उनमें दो उल्लेखनीय हैं जिनकी कोइ चर्चा नहीं करता: १. १९८९- ९० के मंडल-विरोधी उन्माद के दौरान बहुत से शिक्षित, सवर्ण मध्य-वर्ग का एक बड़ा तपका अपनी जातीय अस्मिता पर तथाकथित हमले से आहत, प्रतिभा की दुहाई देने लगे, जो लोगों को ही नहीं कहते थे कि वे जात-पांत से ऊपर उठ चुके है बल्कि खुद भी असा मानने लगे थे. छात्रों को राजनीति से कोसों दूर रहने का उपदेश देने वाले आचार्य गण द्रोणाचार्य बन अर्जुनों को गांडीव उठाने को ललकारने लगे, दलीय भेदभाव भूलकर. २. चूंकि आरक्षण का मकसद लूट के निजाम को बदलना नहीं किन्तु हिस्सेदारी है, इसलिए मंडलोपरांत, भ्रष्टाचार का अंतर-जातीय जनातान्त्रिक्करण हो गया और सिर्फ नारायणदत्त तिवारी ही नहीं जनता की जमीने बेच सकते हैं या जगन्नाथ मिश्र गांधी मैदान बल्कि लालू भी करोणों का चारा हजम कर सकते हैं और मायावती किसानों के गाँव के गाँव अपने चहेते बिल्डर्स और बनियों को औने-पौने दामों में बेच सकती हैं. सहाबुद्दीन जैसे दुर्दांत लालू के स्पह्सालारों के खिलाफ आवाज़ उठाना सामाजिक न्याय के खिलाफ साजिश करार दे दी जाती है और मायावती के हत्यारे-बात्कारी विधायकों के कुकृत्यों की बात किया जाय तो दलित शासन के खिलाफ मनुवादी षड़यंत्र हो जाएगा जब कि अत्याचार के शिकार दलित और खासकर दलित लडकियां हैं.मैं इसलिए भ्रष्टाचार के जन्तान्तात्रिक्करण को सकारात्मक परिवर्तन मानता हूँ कि इससे जातीय अस्मिता की चेतना परे वर्ग चेतना की तरफ बढ़ेगी. लालू कब तक अहिरै गुना कमोरी का दावा के सकेंगे?
जैसा कि मैंने कहा कि आरक्षण सुधारवादी है क्रांतिकारी नहीं और परिवर्तन के द्वंदात्मक नियमों के तहत सतत, क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन के माध्यम हैं जो कभी-न-कभी गुणात्मक क्रानिकारी परिवर्तनों में तब्दील होंगे. लेकिन अपने आप नहीं सजग-सचेत प्रयासों से. अंबेडकर के बाद हिन्दुस्तान में दलित आन्दोलन नहीं हुए उनके नाम पर अवसरवादी डाल्ट राजनीती होती रही वही बात ओबीसी पपर भी लागू होती है. जरा जनसेवकों की अकूत संपत्ति का राज पूछिए? इसी लिए जरूरी है कि लूट और भ्रष्टाचार का और भी जनातान्त्रिक्करण हो जिससे शक्तियों का ध्रुवीकरण तेज होगा.
इसके लिए अनारक्षण की जरूरत है. आदर्श रूप में तो आरक्षण के उपयोग से जो लोग वंचित की श्रेणी से ऊपर उठ गए हों वे स्वतः आरक्षण से इनकार कर दें. इसकी सम्भावना कम है. जिस देश के संपन्न और दबंग टपके अपने को आदिवासी या पिछड़ा साबित करने के लिए चक्का जाम कर दें वहां स्वतः विशेषाधिकार त्यागने की बात सोची भेई नहीं जा सकती. ऐसे में एक नीति बनानी चाहिए कि आईएएस या प्रोफेस्सर की दूसरी/तीसरी/.... पीढी आरक्षण के अयोग्य हो जायेगी जिससे अभी तक वंचित तापकों को भी मौक़ा मिले व्यवस्था के सुख का. ..........................
................................................
१९८९-९० भारत के इतिहास में निर्णायक काल हो सकता था. पहली बार किसान जातियों और ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोगों के हाथों में सत्ता आयी, यदि उनके अन्दर अंतर्दृष्टि होती और अपने आपराधिक स्वार्थ को छोड़ पाते तो इतिहास में उनका कद लंबा होता और इतिहास की धारा बदल जाती. लेकिन वे निकले अभागे मूर्ख जो अपने वहशी स्वार्थ में देश लूटने में अपने पूर्ववर्तिओन को पीछे छोड़ देंगे और इतिहास में उनकी जगह रद्दी कागजों की टोकरी में होगी. और तब जनता शुरू करेगी सामजिक न्याय की मुहीम जिसका मकसद अन्याय-पूर्ण व्यस्था में हिस्सेदारी न हो कर अन्याय को मिटाना होगा.
मैं आरक्षण का प्रबल समर्थक हूँ और सामान्य मान्यता के विपरीत इसे सकारात्मक पक्षपात या कारवाई की बजाय सदियों की प्रवंचना और अन्याय की आंशिक भरपाई मानता हूँ.जन्म की दुर्घटना की पहचान को छिपाए बिना मनुवाद के विरुद्ध बुलंद नारे लगाता हूँ और तरस खाता हूँ अपने इतिहास पर जो इतने समय यह अमानवीय व्यवस्था बर्दाश्त करता रहा विद्रोहों की कहानियां दबाते हुए. लेकिन तमाम और लोग भी मनुवाद का आशय या ऐतिहासिक सन्दर्भ समझे बिना मनुवाद-मुर्दावाद चिल्लाते हैं न ही समझने की कोशिश करते हैं उसी तरह जिस तरह: तमाम पत्रकार किसी तिकडमबाज नेता को कौटिल्य के अर्थशास्त्र की इन्टरनेट से भी जानकारी के बिना भी कौटिल्य या चाणक्य लिख देते हैं; अटलबिहारी जैसे नेता कौटिल्य के राज-धर्मं/आपद्धर्म का क-ख पढ़े बिना इन शब्दों की दुहाई देने लगते हैं जिनको लागू करते तो बाजपेयी जी को अपने तमाम सिपहसालारों को मौत या अपमान और प्रतानाना के साथ मौत की सजा देनी पड़ती; उन विद्वानों की तरह जो ऋग्वेद(या अनुवाद) के पन्ने पलटे बिना उसे दुनिया के सभी ज्ञान-विज्ञान का श्रोत मानते हैं; या आप,जयंतीभाई मनानी जैसे लोग
जो विवेकानंद जैसे इतिहास-पुरुष या स्वामी की मान्यताओं/विचारों को पढ़े/समझे बिना उन्हें अपना आदर्श मान लेते हैं. विवेकानंद धार्मिक राष्ट्रवाद के समर्थक थे और धर्म को भारत की ऐतिहासिक और धार्मिक महानता की धुरी मानते थे. हिन्दू धर्म को वे सभी धर्मों का श्रोत मानते थे. वतुतः वर्णाश्रम धर्म ही हिन्दू धर्म है, स्वामी ने इसका कहीं खंडन नहीं किया है. विवेकानंद की प्रोफाइल पिक्चर के साथ मनुवाद विरोधी नारे लगाना बेईमानी है उसी तरह जिस तरह पितृसत्तात्मक,वर्णाश्रम व्यवस्था के आदर्श, राम को अच्छाइयों का प्रतीक मानते हुए दलित या नारी अधिकारों की हिमायत करना.
आरक्षण एक क्रांतकारी अवधारणा नहीं है बल्कि सुधारात्मक है, सारी अंतर्निन्हित विकृतियों के साठ. तब भी मैं आरक्षण का प्रबल समर्थक हूँ यह जानते हुए कि इसका मकसद अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बदलना न होकर इसकी सत्ता में समानुपातिक भागीदारी है. मंडल आयोग के जो भी अन्य परिणाम हैं उनमें दो उल्लेखनीय हैं जिनकी कोइ चर्चा नहीं करता: १. १९८९- ९० के मंडल-विरोधी उन्माद के दौरान बहुत से शिक्षित, सवर्ण मध्य-वर्ग का एक बड़ा तपका अपनी जातीय अस्मिता पर तथाकथित हमले से आहत, प्रतिभा की दुहाई देने लगे, जो लोगों को ही नहीं कहते थे कि वे जात-पांत से ऊपर उठ चुके है बल्कि खुद भी असा मानने लगे थे. छात्रों को राजनीति से कोसों दूर रहने का उपदेश देने वाले आचार्य गण द्रोणाचार्य बन अर्जुनों को गांडीव उठाने को ललकारने लगे, दलीय भेदभाव भूलकर. २. चूंकि आरक्षण का मकसद लूट के निजाम को बदलना नहीं किन्तु हिस्सेदारी है, इसलिए मंडलोपरांत, भ्रष्टाचार का अंतर-जातीय जनातान्त्रिक्करण हो गया और सिर्फ नारायणदत्त तिवारी ही नहीं जनता की जमीने बेच सकते हैं या जगन्नाथ मिश्र गांधी मैदान बल्कि लालू भी करोणों का चारा हजम कर सकते हैं और मायावती किसानों के गाँव के गाँव अपने चहेते बिल्डर्स और बनियों को औने-पौने दामों में बेच सकती हैं. सहाबुद्दीन जैसे दुर्दांत लालू के स्पह्सालारों के खिलाफ आवाज़ उठाना सामाजिक न्याय के खिलाफ साजिश करार दे दी जाती है और मायावती के हत्यारे-बात्कारी विधायकों के कुकृत्यों की बात किया जाय तो दलित शासन के खिलाफ मनुवादी षड़यंत्र हो जाएगा जब कि अत्याचार के शिकार दलित और खासकर दलित लडकियां हैं.मैं इसलिए भ्रष्टाचार के जन्तान्तात्रिक्करण को सकारात्मक परिवर्तन मानता हूँ कि इससे जातीय अस्मिता की चेतना परे वर्ग चेतना की तरफ बढ़ेगी. लालू कब तक अहिरै गुना कमोरी का दावा के सकेंगे?
जैसा कि मैंने कहा कि आरक्षण सुधारवादी है क्रांतिकारी नहीं और परिवर्तन के द्वंदात्मक नियमों के तहत सतत, क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन के माध्यम हैं जो कभी-न-कभी गुणात्मक क्रानिकारी परिवर्तनों में तब्दील होंगे. लेकिन अपने आप नहीं सजग-सचेत प्रयासों से. अंबेडकर के बाद हिन्दुस्तान में दलित आन्दोलन नहीं हुए उनके नाम पर अवसरवादी डाल्ट राजनीती होती रही वही बात ओबीसी पपर भी लागू होती है. जरा जनसेवकों की अकूत संपत्ति का राज पूछिए? इसी लिए जरूरी है कि लूट और भ्रष्टाचार का और भी जनातान्त्रिक्करण हो जिससे शक्तियों का ध्रुवीकरण तेज होगा.
इसके लिए अनारक्षण की जरूरत है. आदर्श रूप में तो आरक्षण के उपयोग से जो लोग वंचित की श्रेणी से ऊपर उठ गए हों वे स्वतः आरक्षण से इनकार कर दें. इसकी सम्भावना कम है. जिस देश के संपन्न और दबंग टपके अपने को आदिवासी या पिछड़ा साबित करने के लिए चक्का जाम कर दें वहां स्वतः विशेषाधिकार त्यागने की बात सोची भेई नहीं जा सकती. ऐसे में एक नीति बनानी चाहिए कि आईएएस या प्रोफेस्सर की दूसरी/तीसरी/.... पीढी आरक्षण के अयोग्य हो जायेगी जिससे अभी तक वंचित तापकों को भी मौक़ा मिले व्यवस्था के सुख का. ..........................
................................................
१९८९-९० भारत के इतिहास में निर्णायक काल हो सकता था. पहली बार किसान जातियों और ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोगों के हाथों में सत्ता आयी, यदि उनके अन्दर अंतर्दृष्टि होती और अपने आपराधिक स्वार्थ को छोड़ पाते तो इतिहास में उनका कद लंबा होता और इतिहास की धारा बदल जाती. लेकिन वे निकले अभागे मूर्ख जो अपने वहशी स्वार्थ में देश लूटने में अपने पूर्ववर्तिओन को पीछे छोड़ देंगे और इतिहास में उनकी जगह रद्दी कागजों की टोकरी में होगी. और तब जनता शुरू करेगी सामजिक न्याय की मुहीम जिसका मकसद अन्याय-पूर्ण व्यस्था में हिस्सेदारी न हो कर अन्याय को मिटाना होगा.
Monday, August 8, 2011
युवा मित्र रशा को सस्नेह
युवा मित्र रशा को सस्नेह
ईश
हुस्न की आपके कर दिया तारीफ़
समझा आपने नहीं मैं आदमी शरीफ
मिलती हैं हर रोज कितनी ही बालाएं
इतराती नहीं हुस्न पर दिखातीं दिमागी अदाएं
यकीनन आप हसीन हैं पर नहीं है इसमे आपका हाथ
कौन दिखता कैसा यह तो है कुदरती बात
देखी जो मैंने आपकी कामुक तस्वीरें
आयीं याद कालिदास की नायिका की तद्वीरें
लिखा जा सकता ऐसा अगर उस जमाने में
हर्ज क्यों आज ऐसा कहने में
कालिदास ने तो लिख डाला था पूरा ग्रन्थ
लाज़मी था लिखना कम-से-कम एक नज़्म
चलिए ख़त्म करता हूँ यहीं यह बात
कब तक चलेगा एक-तरफा संवाद?
वैसे रस्क करेंगी आपसे आने वाली नस्लें
ईश ने लिखीं थी तारीफ़ में कुछ नज्में ( हा हा हा ....)
ईश
हुस्न की आपके कर दिया तारीफ़
समझा आपने नहीं मैं आदमी शरीफ
मिलती हैं हर रोज कितनी ही बालाएं
इतराती नहीं हुस्न पर दिखातीं दिमागी अदाएं
यकीनन आप हसीन हैं पर नहीं है इसमे आपका हाथ
कौन दिखता कैसा यह तो है कुदरती बात
देखी जो मैंने आपकी कामुक तस्वीरें
आयीं याद कालिदास की नायिका की तद्वीरें
लिखा जा सकता ऐसा अगर उस जमाने में
हर्ज क्यों आज ऐसा कहने में
कालिदास ने तो लिख डाला था पूरा ग्रन्थ
लाज़मी था लिखना कम-से-कम एक नज़्म
चलिए ख़त्म करता हूँ यहीं यह बात
कब तक चलेगा एक-तरफा संवाद?
वैसे रस्क करेंगी आपसे आने वाली नस्लें
ईश ने लिखीं थी तारीफ़ में कुछ नज्में ( हा हा हा ....)
Wednesday, August 3, 2011
बनारस में स्वागत
फेसबुक पर ग्वालियर निवासी जन-कवि अशोक पाण्डेय ने अपनी एक पोस्ट में पूर्वी उत्तर प्रदेश के भ्रमण की सूचना दी और चूंकि संत चौमासे में भ्रमण मुल्तवी कर विश्राम करते हैं इसलिए उन्होंने अपने को दुष्ट घोषित कर दिया. निहितार्थ यह की वे दुष्ट हैं तो दुर्जन भी होंगे. उसी क्षेत्र का मूल-निवासी होने के नाते उन्हें सावधान रहने की सलाह दे डाला.मानना न मानना उनका काम है.
बनारस में स्वागत
ईश मिश्र
हे दुष्टशिरोमनि दुर्जन कवि महाराज
आइये अपने दुष्ट-दुस्साहस से बाज
जा रहे हैं आप जहां आज
है वहां दुष्ट-मर्दिनी का राज
होते अगर साधु-संत तो कुछ और बात होती
हाथी-सवार रानी फूलों की वर्षा करती
दुष्टों के है वह सख्त खिलाफ
कभी नहीं करती उनको माफ़
लेकिन ख़त्म हो जाए गर सागर के ज़र्फ़ का डर
पार कर जायेंगे उफनता-उमड़ता समंदर
स्वागत है बनारस में है जो भीड़-भरा, गंदा, सुन्दर शहर
आस्था का तीर्थ है उठती है लेकिन विद्रोह की भी लहर
कबीर ने यहीं ललकारा था सारे मुल्लों-पंडों-बादशाहों को
ढोंग, पाखण्ड और लूट के आकाओं को
जगाया था खाकनशीनों-ज़ुल्म के मातों को
दबे-कुचले; लुटे-ठगे लोगों को
कामगरों-किसानों को
मुखर कर दिया था तेली-तमोली-जुलाहों के टोलों को
झुठलाया था अंधविश्वास और पाखंड की बातों को
किया था तुलसी ने भी विद्रोह संस्कृत के खिलाफ
कबीर का विद्रोह था उंच-नीच की संस्कृति के खिलाफ
है अगर आपकी कबीराना अकड़
हो चाहे मुठभेड़ या फिर धर पकड़
स्वागत है आपका घाटों के इस शहर में
अलग-अलग सुदरता जिसकी अलग-अलग पहर में.
बनारस में स्वागत
ईश मिश्र
हे दुष्टशिरोमनि दुर्जन कवि महाराज
आइये अपने दुष्ट-दुस्साहस से बाज
जा रहे हैं आप जहां आज
है वहां दुष्ट-मर्दिनी का राज
होते अगर साधु-संत तो कुछ और बात होती
हाथी-सवार रानी फूलों की वर्षा करती
दुष्टों के है वह सख्त खिलाफ
कभी नहीं करती उनको माफ़
लेकिन ख़त्म हो जाए गर सागर के ज़र्फ़ का डर
पार कर जायेंगे उफनता-उमड़ता समंदर
स्वागत है बनारस में है जो भीड़-भरा, गंदा, सुन्दर शहर
आस्था का तीर्थ है उठती है लेकिन विद्रोह की भी लहर
कबीर ने यहीं ललकारा था सारे मुल्लों-पंडों-बादशाहों को
ढोंग, पाखण्ड और लूट के आकाओं को
जगाया था खाकनशीनों-ज़ुल्म के मातों को
दबे-कुचले; लुटे-ठगे लोगों को
कामगरों-किसानों को
मुखर कर दिया था तेली-तमोली-जुलाहों के टोलों को
झुठलाया था अंधविश्वास और पाखंड की बातों को
किया था तुलसी ने भी विद्रोह संस्कृत के खिलाफ
कबीर का विद्रोह था उंच-नीच की संस्कृति के खिलाफ
है अगर आपकी कबीराना अकड़
हो चाहे मुठभेड़ या फिर धर पकड़
स्वागत है आपका घाटों के इस शहर में
अलग-अलग सुदरता जिसकी अलग-अलग पहर में.
Monday, August 1, 2011
abhay
अभय की आत्म-हत्या
अभय सिन्हा मेरा मित्र था, उतना घनिष्ठ नहीं जितना सुमन; संध्या; अजय; खुर्शीद; अमिताभ; आभा आदि का. अभय के नेतृत्व में इन लोंगों द्वारा कथ्य की तैयारी का मैं एक असाहित्यिक, दूरस्थ-उत्सुक दर्शक मात्र था. एम्.ए. के विद्यार्थियों द्वारा पत्रिका निकालना, वह भी साहित्यिक, असाधारण लगता था. लेकिन हम मित्र थे और दोनों एक दूसरे को संवेदनशीलता की अति से बचने की हिदायत देते थे. दोनों में पारस्परिक सम्मान और प्यार-सरोकार था.शनिवार को अपराह्न मुझे मुझे दिनेश(ओरियंटल इंश्योरेंस) से मुझे अपुष्ट खबर मिली जिसे मैंने सुमन-संध्या के माध्यम से पुष्ट किया. तब से ही उद्वेलित और अवसादग्रस्त हूँ लेकिन मेरे अन्दर कोई अपराध-बोध नहीं है. बल्कि मैं तो अभय सिन्हा को मरणोपरांत ह्त्या का अपराधी घोषित करता हूँ. किसी को किसी की भी जान लेने का अधिकार नहीं है, अपनी भी. आप एक तरफ भाषण देते हैं कि अपने व्यक्ति और व्यक्तित्व पर निजी एकाधिकार एक बुर्ज़ुआ भ्रान्ति है जिसे उदारवाद अंतिम सत्य के रूप में स्थापित करता है और दूसरी तरफ अपने जीवन का अंत करते हुए यह नहीं सोचते कि उनके व्यक्ति और व्यक्तित्व के निर्माण में बहुतों का योगदान है. किसी भी सर्जनशील व्यक्ति की सृजनता उसके पास समाज की धरोहर है जिसे निजी संपत्ति समझ अंत करना एक सामाजिक अपराध है.
1.08.2011
सुमन मई तुम्हारी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ . कल का कमेन्ट २ दिन की लगभग विक्षिप्तावस्था; आत्म-मंथन और शायद प्रकारांतर से अपराध-बोध की परिणति थी. कल मेरी स्वाति (आभा की बेटी) से लम्बी बातें हुईं. वह भी बहुत परेशान है. वह कई सालों से अभय से मिलना चाहती थी. मुझसे भी उसका संपर्क नहीं था. फेसबुक पर उसने रेकुएस्ट भेजा था. मैंने कई बार अपना नंबर दिया लेकिन वह पुनीत के माँ-बाप से अलग किसी दोस्त के साथ रहती है और स्टूडियो चलाती है. कल अभय के बारे में संदेस दिया तब उसका फोन आया. मैं नहीं जानता था वह अभय से मिलने को इतनी विह्वल होगी. तुम उसकी वाल पर अभय की तस्वीर पोस्ट कर सको तो अच्छा रहेगा. बिलकुल अकेली है, अभय की तरह. लम्बे समय मयूरविहार में आस-पास की सोसाइटियों में रहने के कारण और खासकर, आभा-पुनीत के प्रोडक्सन हाउस के लिए कुछ स्क्रिप्ट लेखन के दौरान आना-जाना होता था लेकिन घर के औपचारिक अनौपचारिक माहौल के चलते, शायद, स्वाति से मेरी मित्रता नहीं हो पाई. आभा पुनीत की असामयिक मृत्यु के बाद तो बिलकुल संपर्क नहीं रहा, फरहत से कभी-कभी खबरें मिलती थीं की दादा-दादी से उसका झगडा चल रहा है.
कल का कमेन्ट, टोपो; गोरख और अभय के ऊपर संचित गुस्से का परिणाम था. लंबा कमेन्ट लिखना चाह रहा था लेकिन कलम जवाब दे दिया. आज भी सुबह की क्लास का लेक्चर तैयार करना है लेकिन चूंकि पिछले ३ सालों से मैं अभय के साथ टेलीफोन-संपर्क में रहा हूँ, इसलिए इसे पूरा ही करूंगा. किसी ने पूछा भी है की क्या मई भी अभय को जानता हूँ? जी हाँ जानता हूँ लेकिन अच्छी तरह नहीं. शायद कोइ भी किसीको (स्वयं समेत) भी अच्छी तरह नहीं जानता. आभा जी से अभय से शादी के पहले और बाद में भी मेरा दुआ-सलाम का सम्बन्ध भर था. अभय के जनेवि छोड़ने के बाद यदा-कदा संयोग से भेंट हो जाती थी. ये लोग शायद मयूर-विहार में रहने लगे.
१९८५-८६ की बात होगी. मैं पुष्प-विहार में एक फ़्लैट किराए पर लिया था (रहता प्रायः जनेवि में ही था). पुनीत टंडन से मेरी जान-पहचान लखनऊ में आशुतोष मिश्र के माध्यम से हुआ था. पुनीत एक दिन सुबह मेरे फ़्लैट पर आये और शाम को आभा आयीं. पुनीत आभा को आभाजी और आभादी के संबोधनों से अदल-बदल कर संबोधित कर रहे थे. चाय -वाय के बाद दोनों लोग चले गए.
अभय से मुलाकातें बहुत कम होने लगीं. कई साल बाद कई साल पहले संयोग से शंकर मार्केट में टकरा गए. पिछवाड़े चाय के ढाबे पर हम घंटों चाय-सिगरेट पीते रहे और देह-दुनिया-बिहार-दोस्ती आदि पर घंटों बतियाते रहे. उस समय अभय गुडगाँव में रह रहे थे. एकाकीपन की पीड़ा तो थी, लेकिन 'कुछ" करने का जज्बा उससे ज्यादा था. हम विदा हुए मिलते रहने के वायदे के साथ और फिर बहुत दिनों तक नहीं मिले.
बीच-बीच में कुछ सार्वजनिक कार्यक्रमों में परिस्थिति-जन्य एकाध मुलाकातें और हुईं थीं.
३ साल पहले अभय का अनापेक्षित फोन आया. मेरे घर आना चाहता था, उसी शाम अपने कटवारिया के मकान-मालिक, वीर सिंह और उनकी बेटी के साथ घर आ गए. बहुत अच्छा लगा. वीर सिंह की बेटी एड्मिसन की जानकारियाँ लेने आयी थी. मैं हॉस्टल वार्डेन था. बगीचे में तीनो ने एक बोतल वोदका खाली किया और साथ में घर का शाकाहारी भोजन किया. प्रायः लते रहने के वायदे के साथ विदा लिया. उसके बाद से फोन पर यदा-कदा बातें होती रहती थी. इस मुलाक़ात में थोड़ी मायूस हुआ. जीने का जज्बा था लेलिन "कुछ करने" का sankshipनहीं. एकाकीपन से टूटन झलक रही थी. एक साल बाद फिर किसी कारण अभय विश्वविद्यालय आये तो फिर एक बैठक हुई. इस बार अभय कला-साहित्य की व्यर्थता पर जोर दे रहे थे. छिपाने के बावजूद एकाकीपन की पीड़ा झलक रही थी. यह अंतिम मुलाक़ात थी उसके बाद हम फोन पर मिलाने की बातें करते रहे, लेकिन मिले नहीं.
उसके बाद शनिवार को खबर मिली की अभय ने इस दुनिया को बदलने की बजाय खारिज कर दिया.
अभय सिन्हा मेरा मित्र था, उतना घनिष्ठ नहीं जितना सुमन; संध्या; अजय; खुर्शीद; अमिताभ; आभा आदि का. अभय के नेतृत्व में इन लोंगों द्वारा कथ्य की तैयारी का मैं एक असाहित्यिक, दूरस्थ-उत्सुक दर्शक मात्र था. एम्.ए. के विद्यार्थियों द्वारा पत्रिका निकालना, वह भी साहित्यिक, असाधारण लगता था. लेकिन हम मित्र थे और दोनों एक दूसरे को संवेदनशीलता की अति से बचने की हिदायत देते थे. दोनों में पारस्परिक सम्मान और प्यार-सरोकार था.शनिवार को अपराह्न मुझे मुझे दिनेश(ओरियंटल इंश्योरेंस) से मुझे अपुष्ट खबर मिली जिसे मैंने सुमन-संध्या के माध्यम से पुष्ट किया. तब से ही उद्वेलित और अवसादग्रस्त हूँ लेकिन मेरे अन्दर कोई अपराध-बोध नहीं है. बल्कि मैं तो अभय सिन्हा को मरणोपरांत ह्त्या का अपराधी घोषित करता हूँ. किसी को किसी की भी जान लेने का अधिकार नहीं है, अपनी भी. आप एक तरफ भाषण देते हैं कि अपने व्यक्ति और व्यक्तित्व पर निजी एकाधिकार एक बुर्ज़ुआ भ्रान्ति है जिसे उदारवाद अंतिम सत्य के रूप में स्थापित करता है और दूसरी तरफ अपने जीवन का अंत करते हुए यह नहीं सोचते कि उनके व्यक्ति और व्यक्तित्व के निर्माण में बहुतों का योगदान है. किसी भी सर्जनशील व्यक्ति की सृजनता उसके पास समाज की धरोहर है जिसे निजी संपत्ति समझ अंत करना एक सामाजिक अपराध है.
1.08.2011
सुमन मई तुम्हारी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ . कल का कमेन्ट २ दिन की लगभग विक्षिप्तावस्था; आत्म-मंथन और शायद प्रकारांतर से अपराध-बोध की परिणति थी. कल मेरी स्वाति (आभा की बेटी) से लम्बी बातें हुईं. वह भी बहुत परेशान है. वह कई सालों से अभय से मिलना चाहती थी. मुझसे भी उसका संपर्क नहीं था. फेसबुक पर उसने रेकुएस्ट भेजा था. मैंने कई बार अपना नंबर दिया लेकिन वह पुनीत के माँ-बाप से अलग किसी दोस्त के साथ रहती है और स्टूडियो चलाती है. कल अभय के बारे में संदेस दिया तब उसका फोन आया. मैं नहीं जानता था वह अभय से मिलने को इतनी विह्वल होगी. तुम उसकी वाल पर अभय की तस्वीर पोस्ट कर सको तो अच्छा रहेगा. बिलकुल अकेली है, अभय की तरह. लम्बे समय मयूरविहार में आस-पास की सोसाइटियों में रहने के कारण और खासकर, आभा-पुनीत के प्रोडक्सन हाउस के लिए कुछ स्क्रिप्ट लेखन के दौरान आना-जाना होता था लेकिन घर के औपचारिक अनौपचारिक माहौल के चलते, शायद, स्वाति से मेरी मित्रता नहीं हो पाई. आभा पुनीत की असामयिक मृत्यु के बाद तो बिलकुल संपर्क नहीं रहा, फरहत से कभी-कभी खबरें मिलती थीं की दादा-दादी से उसका झगडा चल रहा है.
कल का कमेन्ट, टोपो; गोरख और अभय के ऊपर संचित गुस्से का परिणाम था. लंबा कमेन्ट लिखना चाह रहा था लेकिन कलम जवाब दे दिया. आज भी सुबह की क्लास का लेक्चर तैयार करना है लेकिन चूंकि पिछले ३ सालों से मैं अभय के साथ टेलीफोन-संपर्क में रहा हूँ, इसलिए इसे पूरा ही करूंगा. किसी ने पूछा भी है की क्या मई भी अभय को जानता हूँ? जी हाँ जानता हूँ लेकिन अच्छी तरह नहीं. शायद कोइ भी किसीको (स्वयं समेत) भी अच्छी तरह नहीं जानता. आभा जी से अभय से शादी के पहले और बाद में भी मेरा दुआ-सलाम का सम्बन्ध भर था. अभय के जनेवि छोड़ने के बाद यदा-कदा संयोग से भेंट हो जाती थी. ये लोग शायद मयूर-विहार में रहने लगे.
१९८५-८६ की बात होगी. मैं पुष्प-विहार में एक फ़्लैट किराए पर लिया था (रहता प्रायः जनेवि में ही था). पुनीत टंडन से मेरी जान-पहचान लखनऊ में आशुतोष मिश्र के माध्यम से हुआ था. पुनीत एक दिन सुबह मेरे फ़्लैट पर आये और शाम को आभा आयीं. पुनीत आभा को आभाजी और आभादी के संबोधनों से अदल-बदल कर संबोधित कर रहे थे. चाय -वाय के बाद दोनों लोग चले गए.
अभय से मुलाकातें बहुत कम होने लगीं. कई साल बाद कई साल पहले संयोग से शंकर मार्केट में टकरा गए. पिछवाड़े चाय के ढाबे पर हम घंटों चाय-सिगरेट पीते रहे और देह-दुनिया-बिहार-दोस्ती आदि पर घंटों बतियाते रहे. उस समय अभय गुडगाँव में रह रहे थे. एकाकीपन की पीड़ा तो थी, लेकिन 'कुछ" करने का जज्बा उससे ज्यादा था. हम विदा हुए मिलते रहने के वायदे के साथ और फिर बहुत दिनों तक नहीं मिले.
बीच-बीच में कुछ सार्वजनिक कार्यक्रमों में परिस्थिति-जन्य एकाध मुलाकातें और हुईं थीं.
३ साल पहले अभय का अनापेक्षित फोन आया. मेरे घर आना चाहता था, उसी शाम अपने कटवारिया के मकान-मालिक, वीर सिंह और उनकी बेटी के साथ घर आ गए. बहुत अच्छा लगा. वीर सिंह की बेटी एड्मिसन की जानकारियाँ लेने आयी थी. मैं हॉस्टल वार्डेन था. बगीचे में तीनो ने एक बोतल वोदका खाली किया और साथ में घर का शाकाहारी भोजन किया. प्रायः लते रहने के वायदे के साथ विदा लिया. उसके बाद से फोन पर यदा-कदा बातें होती रहती थी. इस मुलाक़ात में थोड़ी मायूस हुआ. जीने का जज्बा था लेलिन "कुछ करने" का sankshipनहीं. एकाकीपन से टूटन झलक रही थी. एक साल बाद फिर किसी कारण अभय विश्वविद्यालय आये तो फिर एक बैठक हुई. इस बार अभय कला-साहित्य की व्यर्थता पर जोर दे रहे थे. छिपाने के बावजूद एकाकीपन की पीड़ा झलक रही थी. यह अंतिम मुलाक़ात थी उसके बाद हम फोन पर मिलाने की बातें करते रहे, लेकिन मिले नहीं.
उसके बाद शनिवार को खबर मिली की अभय ने इस दुनिया को बदलने की बजाय खारिज कर दिया.
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