Thursday, June 9, 2022

बेतरतीब 130 (50 वीं सालगिरह)

 सरोज जी के साथ विवाह की 50 वीं सालगिरह (29 मई) पर सुबह सुबह एक सेल्फी के साथ सूचना शेयर किया, साथ फोटो वाली एक फेसबुक मेमरी शेयर किया दोनों पर अनगिनत बधाइयां मिलीं, तैयार होकर बेटी-दामाद के साथ खाना खाने बाहर जाते समय फिर एक सेल्फी ले लिया था, आज सरोज जी ने शिकायत किया कि वह फोटो क्यों नहीं शेयर किया? तो उस पर भी ढेरों बधाइयां मिलने लगी हैं।

इतनी बधाइयों और शुभकामनाओं के लिए सभी मित्रों का कोटिशः आभार। मैंने लिखा था कि हमारे विवाह की कहानियां आज, नवउदारवादी युग की पीढ़ी के लिए दंतकथाओं की तरह हैं। कुछ मित्रों ने कहानियां सुनाने का आग्रह किया, नई लिखने के पहले की वर्षगांठों पर लिखी कुछ कहानियां एक एक कर शेयर करूंगा। हम शादी के 15 और गवन के 12 साल बाद साथ रहना शुरू किए उस पर भी कुछ मित्रों ने सवाल किया, उसकी भी कहानी लिखूंगा, अभी इतना बता दूं कि तब मैं 12वीं का छात्र था (परीक्षाफल निकलने के पहले ही विवाह हो गया था) और अन्यान्य कारणों से उसके बाद लंबा छात्र जीवन रहा।

सभी मित्रों की बधाई के लिए एक बार फिर से आभार।

मार्क्सवाद 265 (ब्राह्मणवाद)

 हर युग में वही शासक वर्ग होता है जिसका आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण होता है। नवउदारवादी भारत के शासक वर्ग धनपशु (पूंजीपति) ब्राह्मणवाद को औजार बनाकर मुल्क लूट रहे हैं। हिंदुत्व ब्राह्मणवाद की राजनैतिक अभिव्यक्ति है। क्लासिकल वर्णाश्रमवाद में भी सत्ता और आर्थिक संसाधनों पर कभी भी जातीय समूह के रूप में ब्राह्मणों का नियंत्रण नहीं रहा, लेकिन चूंकि वर्णाश्रम व्यवस्था को वैचारिक रूप देने वाले बुद्धिजीवी ब्राह्मण थे इसी लिए विचारधारा के रूप में ब्राह्मणवाद वर्णाश्रमवाद के पर्याय के रूप में इस्तेमाल होता है।

Tuesday, June 7, 2022

split personality

 In a split society and the world , the human beings have split personality -- split into the self's sense of self interest and self's sense of justice (or right). In order to get out of the inbuilt egocentric prejudices and enjoy happiness in the real sense of the term one must give priority to self's sense of justice over the self's sense of self interest. For example as a man my self's sense of self interest is defiance of the patriarchal values but if I wish to be just , I must shed away my male egocentric prejudices.

शिक्षा और ज्ञान 371 (धार्मिक असहिष्णुता)

अर्थ ही मूल है, हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से समाज में सांप्रदायिक विषवमन सांप्रदायिक राजनीति में चुनावी ध्रुवीकरण के लिए जरूरी है और अरब की राजशाहियों के समक्ष नतमस्तक होना पेट्रो-डॉलर की जी-हुजूरी की मजबूरी। नूपुर शर्मा का इस्तेमाल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से चुनावी फायदे के उद्देश्य से समाज को सांप्रदायिक नफरत से प्रदूषित करने के लिए किया गया और अरब आकाओं की जी हुजूरी में उनकी बलि दे दी गयी। जब तक लोग धर्मांधता की भावनाओं में बहते रहेंगे चतुर-चालाक मजहबी कारोबार के सियासतदां उन्हें उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे। 


प्रकारांतर से नूपुर शर्मा प्रसंग की एक पोस्ट पर कट्टरपंथियों के एकसमान होने के एक कमेंट के जवाब में एक मित्र ने कहा कि बंदर तथा पेड़ पौधों को पूजने वाला तथा नाग को दूध पिलाने वाला हिंदू कभी कट्टरपंथी हो ही नहीं सकता, उसका कट्टरपंथ प्रतिक्रियात्मक मजबूरी है, उस पर:


धार्मिक मिथ्या चेतना की अफीम की खुमार में हर धार्मिक को अपने धर्म के बारे में ऐसा ही लगता है, सभी अपने अपने धर्म के बारे में ऐसे ही तर्क-कुतर्क करते हैं तथा अपने घृणित कुकर्मों का औचित्य साबित करने के लिए क्रिया-प्रतिक्रिया का ऐसी ही शगूफेबाजी करते हैं, जैसा कि अटल बिहारी बाजपेयी ने 2002 में गुजराज के भीषण नरसंहार और सामूहिक बलात्कार के औचित्य के लिए किया था। ईमानदारी से इतिहास पढ़ने की जरूरत तो सांप्रदायिकता के जहरीले नशे में चूर सांप्रदायिकता के झंडबरदारों को है, जिसके लिए जरूरी है शाखा के बौद्धिक में सिखाए अफवाहजन्य इतिहासबोध से मुक्त होकर , आंखों से सांप्रदायिक मिथ्याचेतना की पट्टी हटाकर, जीववैज्ञानिक संयोग से मिली हिंदू-मुसलमान की अस्मिता से ऊपर उठकर सांप्रदायिक अंधभक्त से विवेकशील इंसान बनना। इसके लिए जरूरी है साहसिक आत्माववलोकन और आत्मालोचन। वर्षों की शाखा की फौजी ड्रिल से दिमाग की स्वतंत्र चिंतन के की जगह अनुशरण की आदत से पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन आसान काम तो सब कर लेते हैं। जब बाल-किशोर स्वयंसेवक था तब मैं भी आपकी ही तरह सोचता था तथा शाखा में पिलाई गयी नफरती संस्कारों की घुट्टी के नशे से मुक्त होने के लिए भीषण आत्मसंघर्ष करना पड़ा। प्लैटो अपनी शिक्षा सिद्धांत के पाठ्यक्रम में कहता है कि बच्चों की शिक्षा जन्म से ही शुरू कर देनी चाहिए क्योंकि शिशु-बाल्यावस्था में व्यक्ति मोम की तरह होता है, उसे जैसा आकार चाहें दिया जा सकता है। दिमाग को स्वच्छंद वितरण से रोकने कर अनुशरण के रास्ते पर डालने तथा फौजी ढर्रे पर आज्ञापालन-अनुशरण की आदत के संचार के लिए प्रारंभिक शिक्षा (0-18 वर्ष) के पाठ्यक्रम में केवल व्यायाम और संगीत रखता है। आरएसएस के संस्थापक विचारों ने जाने-अनजाने प्लैटो के शिक्षा सिद्धांत को अपनाते हुए शिशु स्वयंसेवक से ही सांप्रदायिक विषवमन की फौज तैयार करने की योजना बनाया। शैशव काल से शुरू कर वयस्क होने तक पिलाई गई घुट्टी का मन-मष्तिष्क पर असर इतना गहरा होता है कि वह अफवाहजन्य इतिहासबोध को ही सत्य के रूप में आत्मसात कर लेता है और कभी आत्मावलोकन और आत्मालोचना का साहस ही नहीं कर पाता। वह दूसरों को नहीं छलता बल्कि आत्मछलावे का शिकार होता है, वह जो कहता है, स्वयं भी उसी को सत्य मानता है। मेरे बाबा (दादा जी) दूसरों को ही ग्रह-नक्षत्रों के आधार पर किसी काम का शुभ मुहूर्त नहीं बताते थे बल्कि खुद भी उसे ही अंतिम सत्य मानते थे। मेरी आठवीं (जूनियर हाई स्कूल) की परीक्षा का केंद्र नदी के बीहड़े से होते हुए ऊबड़-खाबड़ रास्ते से 20-25 किमी दूर पड़ा था। सुबह 7 बजे की परीक्षा के लिए रात 12 बजे की साइत (मुहूर्त) थी। आधी रात को अपने 12 वर्षीय पोते को लेकर परीक्षा केंद्र पहुंचाने निकल पड़े। शाखा प्रशिक्षित स्वयंभू राष्ट्रभक्त (उसे राष्ट्रवाद की परिभाषा ही नहीं मालुम होती) सांप्रदायिकता को ही राष्ट्रवाद मानता है और साम्प्रदायिक विषवमन को राष्ट्र सेवा क्योंकि इसे ही वह वर्षों के प्रशिक्षण में अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेता है। सादर। कृपया इसे खास अपने ऊपर न लें। मैंने भी सार्वजनिक जीवन में शाखा के माध्यम से प्रवेश किया था तथा आत्मसात किए सांप्रदायिक अंतिम सत्य की मिथ्या चेतना की मुक्ति के लिए पढ़ाई-लिखाई के अलावा विकट आत्मसंघर्ष करना पड़ा, ऐसा न करता तो भौतिक सुख-सुविधाओं के अर्थ में आज बहुत बेहतर स्थिति में होता। लेकिन जैसा बोएंगे वैसा ही काटेंगे। मेरी बड़ी बेटी ने अपनी ऐसी ही किसी बात पर हास्यभाव में कहा था कि बबूल बोओगे तो आम कैसे तोड़ोगे? 2 साल की बच्चे को जंग है जंगे आजादी जैसे गीत सिखाते थे तो जानते नहीं थे कैसी होगी? इस प्रसंग की चर्चा फिर कभी।

शिक्षा और ज्ञान 370 (धार्मक असहिष्णुता)

 


फिलिस्तीन में जनसंहार से किसी इस्लामी राजशाही या गणतंत्र के शासकों की भावनाएं आहत नहीं होतीं, भारत में गोहत्या की अफवाह या संदेह से मुसलमानों की हत्याओं या दंगों में होने वाली हत्याओं पर उनकी भावनाएं आहत नहीं होतीं लेकिन किसी चैनल पर पैगंबर के बारे में शासकदल की एक प्रवक्ता की टिप्पणी से उनकी भावनाएं इस कदर आहत हुईं कि उनकी सम्मिलित प्रतिक्रिया से हिंदू-मुसलमान नरेटिव से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की संजीवनी पर आश्रित राजनैतिक जीवन वाली शासक पार्टी को अपनी प्रवक्ता को निलंबित करना पड़ा।

अर्थ ही मूल है, हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से समाज में सांप्रदायिक विषवमन चुनावी ध्रुवीकरण के लिए जरूरी है और अरब की राजशाहियों के समक्ष नतमस्तक होना पेट्रो-डॉलर की जी-हुजूरी की रणनीति। नूपुर शर्मा का इस्तेमाल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से चुनावी फायदे के उद्देश्य से समाज को सांप्रदायिक नफरत से प्रदूषित करने के लिए किया गया और अरब आकाओं की जी हुजूरी में उनकी बलि दे दी गयी। जब तक लोग धर्मांधता की भावनाओं में बहते रहेंगे चतुर-चालाक मजहबी कारोबार के सियासतदां उन्हें उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे।

Wednesday, June 1, 2022

ईश्वर विमर्श 105 (नास्तिकता)

 हर देश में ईश निंदा के विरुद्ध इतने कठोर कानून हैं और उससे भी अधिक धर्मोंमादी भीड़ के प्रकोप का इतना भय है कि नास्तिक बेचारा अंधभक्ति के एजेंडे पर खासकर ईश्वर के बारे में बहुत संभलकर प्रतिक्रिया देता है। किसी के विरुद्ध लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काना बहुत आसान होता है। प्राचीन यूनान में एथेंस की न्यायिक सभा में जब (वर्ष 399 ईशापूर्व) सुकरात पर नास्तिकता फैलाने का मनगढ़ंत मुकदमा चल रहा था तो बाहर धर्मोंमादी भीड़ सुकरात की मौत की मांग के नारे लगा रही थी। सुकरात को तो मार डाला गया लेकिन साथ ही शुरू हो गया गौरवशाली यूनानी दार्शनिक-शैक्षणिक परंपराओं का पतन। उसी तरह 1600 में रोमन चर्च में पादरियों द्वारा वैज्ञानिक, दार्शनिक, लेखक, ब्रूनो पर 7 साल मुकदमा चलाने के बाद जब उन्हें चौराहे पर जिंदा जलाने की सजा को अंजाम दिया जा रहा था तो धर्मोंमादी भीड़ उल्लास में जश्न मनाते हुए तमाशा देख रही थी। कलबुर्गी, गौरी लंकेश, पंसारे, दाभोलकर या पाकिस्तान में मशाल खां की हत्याओं पर भी धर्मोंमादी मानसिकता के लोगों ने जश्न मनाया। धर्मोंमादी मानसिकता बहुत ही अमानवीय, क्रूर और बर्बर होती है, इसलिए नास्तिकों को बहुत फूंक फूंक कर चलना पड़ता है।

ईश्वर विमर्श 104 (नास्तिकता)

 एक मित्र ने कहा कि इलाहाबाद से दिल्ली जाकर मैं हिंदू धर्म त्यागकर वामपंथी हो गया। उस पर :


एक प्रामाणिक नास्तिक के रूप में मैंने हिंदू धर्म का नहीं, धर्म का त्याग किया और इलाहाबाद से पढ़ कर दिल्ली जाकर नहीं मेरी नास्तिकता की यात्रा इलाहाबाद में पढ़ते हुए ही पूरी हुई। मैं एबीवीपी का जब नेता था तो नास्तिक हो चुका था। सावरकर और जिन्ना की ही तरह मैं धार्मिक नहीं था, सांप्रदायिक था। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं धर्मेन्मादी लामबंदी की राजनैतिक विचारधारा है। पुस्तकों और आंदोलनों में शिरकत के जरिए सांप्रदायिकता से मोहभंग हुआ और सवाल-दर-सवाल की द्वंद्वात्मक पद्धति अपनाने के चलते मार्क्सवादी बना। नास्तिकता में मनुष्य हिंदू-मुसलमान या किसी विशिष्ट धर्म का त्याग नहीं करता बल्कि किसी अलौकिक सर्वशक्तिमान की अवधारणा के निषेध के चलते धर्म का त्याग करता है। मनुष्य ईश्वर की रचना नहीं है, बल्कि ईश्वर की अवधारणा खास ऐतिहासिक संदर्भ में मनुष्य की रचना है, इसीलिए देश-काल के लिहाज से उसका स्वरूप और चरित्र बदलता रहता है। इसीलिए अपनी ऐतिहासिक उत्पत्ति के आधार पर अल्लाह, भगवान और गॉड अलग अलग हैं। पहले ईश्वर असहाय और निर्बल की सहायता करता था अब सोसल डार्विनवाद के सिद्धांत का अनुशरण करते हुए सक्षम की सहायता करता है।(God helps those who help themselves) जनपक्षीय परिवर्तन का हिमायती होने के चलते वामपंथी हूं क्योंकि ऐतिहासिक रूप से जनपक्षीय परिवर्तन की पक्षधरता ही वामपंथ है। सादर।