Thursday, December 25, 2025

शिक्षा और ज्ञान 385 (प्रोफेसर का निलंबन)

 इंडियन एक्सप्रेस की खबर के हवाले से मुस्लिमों की प्रताड़ना पर जामिया में सोसलवर्क विभाग में सेमेस्टर परीक्षा में प्रश्न पूछने पर प्रो. वीरेंद्र बलाजी के निलंबन पर Vishnu Nagar जी की पोस्ट पर कमेंट:


1990-91 की बात है मैं बीए प्रथम वर्ष के विद्यार्थियो को मैक्यावली के संदर्भ में धर्म और राजनीति पढ़ा रहा था उस समय आरएसएस के संगठन बाबर की औलादों को एक धक्का और देकर (एक कब दिया था, पता नहीं) बाबरी मस्जिद की जगह 'मंदिर वहीं बनाेंगे' के अबियान में लगे थे। मैक्यावली धार्रामिक आचार संहिता से स्वतंत्र राजनैतिक आचार संहिता की की हिमायत करता है और दोनों में टकराव की स्थिति में धार्मिक आचारसंहिता पर पर राजनैतिक आचारसंहिता को तरजीह देने की। लेकिन वय यह भी कहतीा है कि धार्मिक रीति-रिवाज; कर्मकांंड कितने भी गड़बड़ लगें, समजदार राजा को उनसे न केवल छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए, बल्कि उनका पालन सुनिश्चित करना चाहिए क्योंकि धर्म लोगों को संगठित और वफादार बनाए रखने का सबसे कारगर औजार है। राजनीति के लिए कितना भी फरेब, धोखाधड़ी, हत्या आगजनी समेत कितने भी कुकृत्य क्यों न करे लेकिन उसे धर्मात्मा दिखने की कोशिश करना चाहिए। भगवान का भय राजा के भय मेें दिल में उतर जाता है और लोग यह भी सोचेंगे कि जब भगवान उसके साथ है तो उनके जैसे साधारण लोग उसका क्या ही बिगाड़ लेंगे। कितना भी बड़ा धूर्त और नरपिशाच क्यों न हो लेकिन उसे सौम्य और करुणामय दिखना चाहिए क्योंकि जनता दिखावे पर फिदा होने वाली भीड़ होती है, उसे जो भी दिखाया जाता है, वह सच मान लेती है। कुछ लोग जो हकीकत जानते हैं, जनता जब राजा के साथ है तो उनकी क्या बिसात, उनके साथ वह आसानी से निपट सकता है, नसीहत के लिए उनमें से कुछ को निपटा भी सकता है। इसी संदर्भ मेंने आरएसएस के बाबरी मस्जिद -राममंदिर अभियान की चर्चा किया। अगले दिन एक एक साल सीनियर छात्र मेरे पास यह आग्रह लेकर आया कि मैं क्लास में आरएसएस की बात न करूं। मैंने उससे पूछा कि वह धमकाने तो नहीं आया था तो वह सर सर करने लगा। आज का समय होता तो शायद बात नौकरी पर आ जाती। वह लड़का आज दिल्ली विवि के एक कॉलेज में प्रिंसिपल है। इसी घटना को फसाना बनाकर मैंने 22 जनवरी 1992 को नवभारत टाइम्स के 'आठवां कॉलम' में 'कबीर कौन था' लिखा था।

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