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लोहिया ने 1960 के दशक में कांग्रेस विरोधी गठजोड़ बनाने के लिए दीनदयाल उपाध्याय से समझौता कर, आरएसएस के सांप्रदायिक फासीवाद को सामाजिक स्वीकार्यता का पथप्रशस्त करने की शुरुआत की जिसकी परिणति 1967 की संविद सरकारों के गठन में हुई जिसमें समाजवादी और सीपीआई तथा जनसंघ एकसाथ आए, संविद प्रयोग विफल रहा, लेकिन तब तक सामाजिक अस्पृश्यता का शिकार आरएसएस को सामाजिक स्वीकर्यता मिलना शुरू हो गयी। लोहिया के कांग्रेस विरोधी मंच के नाम पर आरएसअएस को सहयोगी बनाने की पुनरावृत्ति जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुई जब बिहार छात्र आंदोलन के नेतृत्व के निर्वात ने उन्हें 'लोक नायक' बनने का अवसर प्रदान किया और उन्होंने आरएसएस को अपनी अपरिभाषित, भ्रामक संपूर्ण क्राांति का प्रमुख सहयोगी बनाया, जिसकी परिणति जनता पार्टी सरकार में हुई जिसमें समाजवादियों के साथ जनसंघ शामिल हुई तथा विदेश और सूचना-प्रसारण जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय हथियाया। पत्रकारिता में शाखा प्रशिक्षित लोगों का प्रवेश लाल कृष्ण आडवाणी का महत्वपूर्ण योगदान है। संविद की ही तरह जनता प्रयोग भी विफल रहा और जनता पार्टी के विघटन के बाद आरएसएस की संसदीय शाखा जनसंघ ने खुद को गांधीवादी समाजवाद को वैचारिक आधार पर भारतीय जनता पार्टी के नाम से पुनर्गठित किया। जेपी के संपूर्ण क्रांति की ही तरह भजपा का गांधीवादी समाजवाद भी एक शगूफा ही साबित हुआ तथा 1984 की भयानक संसदीय हार के बाद आरएसएस की संसदीय शाखा, भाजपा रक्षात्मक सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर देश भर में दीवारों पर 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं' के नारे लिख कर बाबर की औलादों के एक धक्का देकर मंदिर वहीं बनाने के नारे के साथ आक्रामक सांप्रदायिकता के तेवर में आ गयी। 1990 के दशक तक लोहिया और जेपी के जॉर्ज, नीतीश और शरद यादव जैसे तमाम योद्धा सांप्रदायिक फासीवाद के अभियान के सिपहसालार बन गए। तब से अब तक लोहिया-जेपी के लोगों के सक्रिय सहयोग से समाज का आक्रामक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जारी है और लगता है देश के टुकड़े-टुकड़े होने तक चलता रहेगा।

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