Monday, December 22, 2025

बेतरतीब 182 (जेएनयू 1983)

जगदीश्वर चतुर्वेदी की एक पोस्ट पर कमेंट:

1983 के छात्र आंदोलन कुचले जाने में एसएफआई प्रकांरांतर से प्रशासन के साथ थी और यूनिवर्सिटी अनिश्चितकाल के लिए बंद होने के बाद तो एसएफआई-एसएफआई-फ्रीथिंकर्स सबने समझौता कर लिया था। मुख्यधारा संगठनों से अलग कुछ छात्र, लगभग 20 रस्टीकेट हुए, ज्यादातर ने माफी मांग ली। अध्यक्ष नलिनी रंजन मोहंती का रस्टीकेसन बाद में वापस हो गया। वैसे उनका तो तहना है कि वीसी ने उनके व्यवहार से खुश होकर उनका रस्टीकेसन वापस लिया था, उन्होंने माफी नहीं मांगी थी जो विश्वसनीय नहीं लगता। एसएफआई के जगपाल सिंह का भी रस्टीकेसन वापस हो गया था। इतने छात्रों के रस्टीकेसन के खिलाफ मुख्यधारा के किसी संगठन ने कोई आवाज नहीं उठाई, आंदोलन की तो बात ही छोड़िए। ज्यादातर लोग 2 साल के लिए रस्टीकेट हुए थे, 4 लोग 3 साल के लिए -- अधियक्ष के नाते मोहंती, बाद में जिनका रस्टीकेसन निरस्त हो गया, उर्मिलेश, मैं और सयुस काअटल शर्मा। बाकी लोगो में इग्नू से रिटायर, इतिहासकार प्रो. शशि भूषण उपाध्याय, दलित बुद्धिजीवी चंद्रभान प्रसाद, बीजी तिलक, वैज्ञानिक सुगठन तथा विलुप्त हो चुके कवि राजेश राहुल शामिल थे। अध्यक्ष के निष्कासित होने के बाद नर्वाचित ज्वाइंट सेक्रेटरी रश्मि दोरईस्वामी का कार्यकारी अध्यक्ष बनना आंदोलन विरोधी कृत्य था। वैसे आपका अध्यक्ष बनना और समय पर पीएचडी जमा करना प्रशंसनीय है। यह कमेंट टाल सकता था, लेकिन नहीं टाला।

Jagadishwar Chaturvedi आंदोलन का नेतृत्व छात्रसंघ ने किया था, एसएफआई को सदस्य भी छात्र होवने के नाते सिद्धांतः उसमें शरीक थे, एसएफआई चुनावी हार की कुंठा से निकल नहीं पाई और आंदोलन के साथ गुप्त गद्दारी की। वैसे उस चुनाव में फ्रीथिंकर्स से समझौता कर हमने भी गलती की थी। वह अलग विषय है। एसएफआई वालों की ही तरह मोहंती ने भी समझौता कर अपनीा रस्टीकेसन वापस करा लिया। एसएफआई के लोग खुले आम कहते फिर रहे थे कि हम अंडरहैंड डीलिंग करें या जो भी करें यूनिवर्सिटी साइनेडाई नहीं होने देते थे। बड़ा संगठन होने के नात्े लगभग 20 छात्रों के रस्टीकेसन को लेकर एसएफआई ने कोई वक्तव्य तक नहीं दिया, डीएसएफ को छोड़कर किसी ने कोई वक्तव्य नहीं दिया था।उपाध्यक्ष पद पर जीता हमारे संगठन का संजीव चोपड़ा भी रस्टीकेट होने से बच कर अंततः आईएएस बन गया। हम भी माफी मांगकर रस्टीकेसन से बच सकते थे। मेरा तो मैरिड हॉस्टल का नंबर आने वाला था। 1983 में पैदा हुई मेरी बेटी आज तक ताने देती है कि मैं उसे 4 साल तक गांव में छोड़े रहा। हॉस्टल मेरे इविक्सन के समय 2 ट्रक पुलिस बुलाई गयी थी और प्रतिरोध में 15-20 लोग थे। मुझे 1948 का लंदन में चार्टर्ड आंदोलन की याद आई संसद में 20 लाख हस्ताक्षर जमा करने के बाद परमुखतः वयस्क मताधिकार के मुद्दे पर प्रदर्शन का आह्वान किया गया था, सेना-पुलिस की तैनाती से लंदन की गेराबंदी कर दी गयी थी और अंततः 100-200 लोग इकट्ठे हुए। रश्मि शायद ज्वाइंट सेक्रेटरी थीं कार्यकारी अध्यक्ष बनने के उनके तकनीकी अधिकार की नहीं आंदोलन से दगा करने के नैतिक-राजनैतिक पहलू की बात कर रहा हूं।

Sunday, December 21, 2025

मार्क्सवाद 357 (नास्तिकता)

 जावेद अख्तर तथा मुफ्ती शमैल नदवी के बीच आस्तिकता-नास्तिकता पर बहस की एक पोस्ट पर एक सज्जन ने कमेंट किया


"आस्तिक, नास्तिकों से कहीं अधिक ख़तरनाक हैं क्योंकि वे धार्मिक कम धर्मांध ज्यादा हैं।"

उस पर :

मतलब कि नास्तिक भी खतरनाक होता है, अपेक्षाकृत कम? एक धार्मिक समाज में नास्तिकता अनवरत चिंतन-मनन, अदम्य साहस और दुरूह आत्मसंघर्ष का परिणाम होती है। नास्तिक की तार्किकता सत्य का प्रमाण मांगती है, दैवीयता का प्रमाण नहीं मिलता इसलिए उसे वह नकारती है। भगवान की भय से मुक्ति के लिए धैर्य और संयम की आवश्यकता होती है तथा दैवीयता की बैशाखी तोड़कर फेंकने के लिए आत्मबल की। नास्तिक किसके लिए क्या खतरा पैदा करता है? मेरे परिजनों में 99.99% धार्मिक हैं, धर्मांध नहीं, लेकिन धार्मिकता में धर्मांधता की संभावनाएं मौजूद रहती हैं।

Rehan Ashraf Warsi वाद-विवाद तर्क आधारित होनी चाहिए तथा आस्था में तर्क का कोई स्थान नहीं होता, किसी दैवीय शक्ति का नकार उस पर दृढ़ आस्था रखने वालों को उसका मजाक लगेगा इसमें तर्क का कोई दोष नहीं है। सत्य वही जिसका प्रमाण हो। नास्तिक जब किसी सर्वशक्तिमान की अवधारणा को खारिज करता है तो वह किसी मशीहा या अवतार की बात क्यों मानेगा? धार्मिकों को तर्क करने का धैर्य अर्जित करना चाहिए।

Thursday, December 18, 2025

मार्क्सवाद 356 (लोहिया-जेपी-आरएसएस)

 एक पोस्ट पर एक कमेंट पर कमेंट---


लोहिया ने 1960 के दशक में कांग्रेस विरोधी गठजोड़ बनाने के लिए दीनदयाल उपाध्याय से समझौता कर, आरएसएस के सांप्रदायिक फासीवाद को सामाजिक स्वीकार्यता का पथप्रशस्त करने की शुरुआत की जिसकी परिणति 1967 की संविद सरकारों के गठन में हुई जिसमें समाजवादी और सीपीआई तथा जनसंघ एकसाथ आए, संविद प्रयोग विफल रहा, लेकिन तब तक सामाजिक अस्पृश्यता का शिकार आरएसएस को सामाजिक स्वीकर्यता मिलना शुरू हो गयी। लोहिया के कांग्रेस विरोधी मंच के नाम पर आरएसअएस को सहयोगी बनाने की पुनरावृत्ति जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुई जब बिहार छात्र आंदोलन के नेतृत्व के निर्वात ने उन्हें 'लोक नायक' बनने का अवसर प्रदान किया और उन्होंने आरएसएस को अपनी अपरिभाषित, भ्रामक संपूर्ण क्राांति का प्रमुख सहयोगी बनाया, जिसकी परिणति जनता पार्टी सरकार में हुई जिसमें समाजवादियों के साथ जनसंघ शामिल हुई तथा विदेश और सूचना-प्रसारण जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय हथियाया। पत्रकारिता में शाखा प्रशिक्षित लोगों का प्रवेश लाल कृष्ण आडवाणी का महत्वपूर्ण योगदान है। संविद की ही तरह जनता प्रयोग भी विफल रहा और जनता पार्टी के विघटन के बाद आरएसएस की संसदीय शाखा जनसंघ ने खुद को गांधीवादी समाजवाद को वैचारिक आधार पर भारतीय जनता पार्टी के नाम से पुनर्गठित किया। जेपी के संपूर्ण क्रांति की ही तरह भजपा का गांधीवादी समाजवाद भी एक शगूफा ही साबित हुआ तथा 1984 की भयानक संसदीय हार के बाद आरएसएस की संसदीय शाखा, भाजपा रक्षात्मक सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर देश भर में दीवारों पर 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं' के नारे लिख कर बाबर की औलादों के एक धक्का देकर मंदिर वहीं बनाने के नारे के साथ आक्रामक सांप्रदायिकता के तेवर में आ गयी। 1990 के दशक तक लोहिया और जेपी के जॉर्ज, नीतीश और शरद यादव जैसे तमाम योद्धा सांप्रदायिक फासीवाद के अभियान के सिपहसालार बन गए। तब से अब तक लोहिया-जेपी के लोगों के सक्रिय सहयोग से समाज का आक्रामक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जारी है और लगता है देश के टुकड़े-टुकड़े होने तक चलता रहेगा।

शिक्षा और ज्ञान 384 (हिजाब)

 नीतीश कुमार द्वारा, जबरन एक स्त्री डॉक्टर का हिजाब उतारने की आलोचना की एक पोस्ट पर एक सज्जन ने लिखा कि हिजाब पहनना उसका अधिकार नहीं बल्कुि माइंड वाशिंग या मेंटल कंडीशनिंग है। उस पर --


बिल्कुल सही कह रहे हैं, यह वैसी ही माइंड वाशिंग है, जैसे करवा चौथ या नवरात्र का व्रत रखना या खुशी-खुशी कन्यादान के अनुष्ठान से दान की वस्तु बन जाना या हिंदू अथवा मुस्लिम होने पर गर्व करना। लेकिन यह पोलिटिकल नहीं कल्चरल कंडीशनिंग है इसका निदान जोर जबरदस्ती करवा चौथ पर पाबंदी लगाना नहीं सांस्कृतिक चेतना बदलना है जिससे स्त्रियां करवाचौथ का व्रत रखने का मर्दवादी निहितार्थ समझ सकें और खुद उसका परित्याग कर सकें। ज्यादातर मुस्लिम छात्राएं हिजाब नहीं पहनतीं। इरान में हिजाब के विरुद्ध जबरदस्त आंदोलन चला। मैंने उस समय हिजाब के विरुद्ध इरानी स्त्रियों के आंदोलन का समर्थन किया था और साथ ही हिंदुस्तान के कुछ संस्थानों में हिजाब पर पाबंदी के विकुद्ध स्त्रियों के आंदोलन का भी। हर किसी को अपना भोजन-वस्त्र चुनने की आजादी होनी चाहिए। आजादी की समझ पर भी सामाजिक चेतना का दबाव होता है तो निदान आजादी पर प्रतिबंध नहीं, सामाजिक चेतना का जनवादीकरण है।

जिस पोस्ट पर जिस कमेंट के जवाब में यह कमेंट लिखा गया, उन सज्जन ने मेरे कमेंट के जवाब में पूछा--

Abhinav Bhatt
Ish Mishra लेकिन उस समाज का क्या करे जो अपनी कोई कुरीति छोड़ना ही नहीं चाहता, और हर पागल पन को ऊपर वाले का आदेश बताता है, आपने किसी पढ़े लिखे मुसलमान को सुना, कहते बुर्का प्रथा कुरीति है, और तो और मजे की बात ये है कि वो एक डॉक्टर थी जो बुर्का पहन कर नियुक्ति पत्र लेने आई, फिर ऐसे में आप किस से अपेक्षा करेंगे मानसिक विकास की?

मेरा जवाब:

Abhinav Bhatt जी बहुत से मुसलमान यह कहते हैं कि बुर्का इस्लामी नहीं ऐतिहासिक प्रचलन है। घूंघट और बुर्का सारे मर्दवादी प्रतीक हैं। बहुत सी अल्ट्रा मॉडर्न लड़कियां भी करवा चौथ रखती हैं। वह डॉ. हिजाब पहने थी, और आपको किसी के खाने-पहने के चुनाव की आदत का सम्मान करना चाहिए। आपने कितने सनातन का भजन गाने वालों को यह कहते सुना है कि करवा चौथ या पति के नाम पर मंगल सूत्र पहनना या कन्यादान जैसी मर्दवादी अवधारणाएं कुरीतियां हैं? सारे धर्मांध अपने धर्मों की कुरीतियों के औचित्य के कुतर्क गढ़ते रहते हैं। इरान में हिजाब के विरुद्ध स्ियों के जुझारू आंदोलन को इरान तथा दुनिया के अन्य बहुत से देशों के पुरुषों का समर्थन प्राप्त है। मैंने विवाह में अपनी पत्नी की शकल ही नहीं देखी थी। हिंदू विवाहों लड़किया 3 फुट लंबा घूंघट निकाले रहती थीं। धीरे-धीरे सभी समुदायों में बदलाव आ रहे हैं।

Wednesday, December 17, 2025

शिक्षा और ज्ञान 383 (हिजाब)

नीतीश कुमार द्वारा, जबरन एक स्त्री डॉक्टर का हिजाब उतारने की आलोचना की एक पोस्ट पर एक सज्जन ने लिखा कि हिजाब पहनना उसका अधिकार नहीं बल्कुि माइंड वाशिंग या मेंटल कंडीशनिंग है। उस पर --

बिल्कुल सही कह रहे हैं, यह वैसी ही माइंड वाशिंग है, जैसे करवा चौथ या नवरात्र का व्रत रखना या खुशी-खुशी कन्यादान के अनुष्ठान से दान की वस्तु बन जाना या हिंदू अथवा मुस्लिम होने पर गर्व करना। लेकिन यह पोलिटिकल नहीं कल्चरल कंडीशनिंग है इसका निदान जोर जबरदस्ती करवा चौथ पर पाबंदी लगाना नहीं सांस्कृतिक चेतना बदलना है जिससे स्त्रियां करवाचौथ का व्रत रखने का मर्दवादी निहितार्थ समझ सकें और खुद उसका परित्याग कर सकें। ज्यादातर मुस्लिम छात्राएं हिजाब नहीं पहनतीं। इरान में हिजाब के विरुद्ध जबरदस्त आंदोलन चला। मैंने उस समय हिजाब के विरुद्ध इरानी स्त्रियों के आंदोलन का समर्थन किया था और साथ ही हिंदुस्तान के कुछ संस्थानों में हिजाब पर पाबंदी के विकुद्ध स्त्रियों के आंदोलन का भी। हर किसी को अपना भोजन-वस्त्र चुनने की आजादी होनी चाहिए। आजादी की समझ पर भी सामाजिक चेतना का दबाव होता है तो निदान आजादी पर प्रतिबंध नहीं, सामाजिक चेतना का जनवादीकरण है।

Monday, December 8, 2025

बेतरतीब 182(बचपन)

 हम सारे भाइयों की मुंडन 2 बार हुई, पहली बार भैरो भैरो बाबा के थाने में दूसरी बार विंध्याचल के मंदिर परिसर में। भैरो बाबा आजमगढ़ जिले में महराजगंज से कुछ दूर उत्तर में भैरोबाबा का मंदिर है, मुंडन के बाद फिर कभी नहीं गया लेकिन 1971 में एक-डेढ़ महीना उद्योग विद्यालय कोयलसा में पढ़ने के दौरान चाय पीने महराजगंज रोज ही जाते थे। हमारे यहां से लगभग 40-45 किमी होगा। उस समय पैदल, बैलगाड़ी, तांगा-इक्का ही यातायात के साधन थे। कहीं कहीं के लिए कहीं कहीं से कुछ बसें भी चलती थीं। मेरे गांव में पिताजी समेत कुछ लोगों के ही पास साइकिल थी। जाने की यात्रा की याद नहीं लौटने की थोड़ी थोड़ी याद है। यह भी याद है कि बाल काटने वाले नाई से मैं बाल वापस लगाने की जिद कर रहा था, हा हा। पिताजी (बाबू) और अइया (दादी) के साथ साइकिल पर गया था। साइकिल पर दादी को पीछे कैरियर पर और मुझे आगे फ्रेम के डंडे पर तौलिया लपेटकर  बैठाकर खेतों की पगडंडियों और गांवों के रास्ते की यात्रा थी। रास्ता किसी गांव के अंदर  पहुंचता तो दादी उतर कर पैदल चलती। अहरौला से पहले किसी गांव में पिताजी के किसी परिचित की नई गोशाला में अहरा लगाया था। यह इसलिए याद है कि लोग खासकर मेरी मूर्खता के पक्ष में इस घटना की याद दिलाते हैं। खाना बनाते हुए मां-बेटे अपनी बातों में लग गय और मैं गांव के भूगोल का मुआयना करने निकल पड़ा (यह आदत आज तक है)। मैं वहां से पैर से किरमिच के जूते से मिट्टी में निशान लगाते गया था, यह इसलिए याद है कि गायब होने से बचने का यही तरीका समझ में आया था। अब लगता है, बचपन से ही आवारा हूं।


       बचपन में मेरे खोने की तीन और घटनाएं हैं। (एक और बार खोयाथा, जो जीवन का मेटामॉर्फिस विंदु बन सकता था, 16 की उम्र मे। लेकिन सौभाग्य से बच गया, सत्य समाज में है, गुफाओं और कंदराओं में नहीं। यह संस्मरण पढ़ने शहर जाने के बाद के सस्मरण के साथ शेयर करूंगा।) मुंडन के आसपास की ही बात है। एक बार छुपन-छुपाई खेलते हुए मैंने पुरौट के नीचे एक आंटा पुवाल में अपने को छुपा लिया। पुवाल की ऊष्मा से नींद आ गयी। नींद खुली तो देखा दुआरे अफरा-तफरी मची थी। लोग मुझे नदी के किनारे और पास के बबूल के बन में खोजने लगे। नींद खुली और पुरौटी के पुआल से निकला तो पता चला कि मुझे खोजा जा रहा है। अइया ने प्यार से गोद में ले लिया फिर किसी की डांटने की हिम्मत नहीं थी, पिटाई की तो बात ही छोड़ो। अइया हम बच्चों की सुरक्षा कवच थीं।

   बचपन की खोनेकी बाकी दो घटनाओं में कौन पहले की है कह नहीं सकता, लेकिन जो ज्यादा सचित्र याद है, उसे बाद की मान लिया जाए। गांव के कुछ पुरुष और कई स्त्रियों के मेलाके साथ विंध्याचल गया था। शायद दूसरी मुंडन के लिए। मेले में घर का और कौन था याद नहीं, लेकिन अइया और माई तथा पड़ोस की एक काकी व एक भाभी की याद है। माधव सिंह स्टेसनगंगा घाट से थोड़ी ही दूर है। वहां दूसरी बार 2019 में गया विंध्याचल से पत्नी के भतीजे पिंटू के साथ कार में घर लौटते हुए स्टेसन की याद आ गयी। यह बनारस इलाहाबाद (तब छोटी)  लाइन पर है। हम वहां कैसे पहुंचे होंगे, अंदाज ही लगा सकता हूं। हमारे गांव से सबसे नजदीकी स्टेसन बिलवाई है वहां लोकल-पैसेंजर गाढ़िया ही रुकती हैं, फैजाबाद (या लखनऊ)-मुगल सराय लोकल (पैसेंजर) ट्रेन से बनारस गए होंगे और वहां से माधव सिंह। उस समय गंगा पर मिर्जापुर में पुल नहीं था, स्टीमर चलता था। अगले स्टीमर के घाट पर आने में काफी देरी थी। सब लोग स्टेसन के बाहर डेरा जमाए थे। मैं आदतन आस-पास के भूगोल और समाजशास्त्र का मुआयना करने निकल पड़ा। बाजार भी लगी थी। जो भी मुझे देखते, लगता है सोचते होंगे मैं, खो गया हूं। एक ने रोक कर पूछ ही लिया कि मैं किसी को खोज रहा था, मैंने कहा नहीं, मेला घूम रहा था। जेब में कुछ पैसे थे, खीरा खरीद लिया। खाते हुए उसी रास्ते स्टेसन पहुंच गया। सीधा रास्ता था, भूलने की गुंजाइश नहीं थी। मेला में हंगामा मचा था, मुझे देख सब चकित थे। उन लोगों ने जहां मैं था वहां छोड़ कर सब जगह खोज डाला। । मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इसमें ऐसा क्या हो गया कि लोग इतने परेशान हो गए। मां के पूछने पर मैंने मासूमियत से कहा, खीरा खाने गया था। सब हंस पड़े। स्टीमर देख कर, आज भी याद है, इतना विशाल और अंदर जाकर ऊपर नीचे करने लगा। किसी को मुझपर नजर रखने के लिए कहा गया। बाकी विंध्याचल की यादों में कुछ उल्लेखनीय नहीं है। काली खोह पर पहली बार लंगूर देखा और उसकी एक्रोबेटिक्स पर मुग्ध हो गया था। पहाड़ पर एक देवी का मंदिर है, शायद अष्ठभुजा देवी का। उनके बारे में कहा जाता है कि कंस कृष्ण से बदली नंद की बेटी को मारने की कोशिस की तो वह उसके विनाश की आकाशवाणी करते हुए उसके हाथ से छूटकर हवा में विलीन हो गयीं और विध्याचल के पहाड़ पर आकर वहीं स्थापित हो गयीं। एक और बात जो याद है, वह है पहाड़ के ऊपर से घाटी में चरते गाय-भैंस-बकरी.. और चरवाहे इतने छोटे दिख रहे थे कि मुझे लगा था कि ये लोग किसी और लोक के हैं। पता नहीं इन सामान्य यादों में समय खपाने का कोई सामाजिक उपयोग है या नहीं। 2-4 पैरा की बात को अनावश्क रूप से फैला दिया। खैर जब फैला ही दिया तो मेले में खोने की आखिरी कहानी  बता ही दूं।

     आजमगढ़ जिले में एक जगह है, दुर्बासा। टंवस और मझुई नदियों के संगम पर। पास में ही खुरासों है, 1967 में हमारी जूनियर हाई स्कूल बोर्ड की परीक्षा सेंटर वहां पड़ा था। दुर्वासा वहां से कुछ किमी उत्तर है। किंवदंति के अनुसार, दुर्वाशा ऋषि, जिनका स्पेसलाइजेसन, जैसा कि सविदित है, क्रोध और शाप में था। ई ऋषि-मुनिवे इतने खुराफाती क्यों होते थे? परिभाषा से तो उन्हें ज्ञानी और दयालु तथा परमार्थी होना चाहिए? और ई भगवान लोग भी अजीबै हैं, कभी भी किसी की तपस्या से खुश होकर ऊलजलूल बरदान दे देते थे। याद नहीं आ रहा है किस देवता ने दुर्वाशा को शाप से भस्म करने की शक्ति का बरदान दिया था? पता करके लिखूंगा। लेकिन देवता लोगन के दिमाग नहीं होता क्या? यह भी याद नहीं कि दुर्वासा ने किस देवता या नामी-गिरामी भक्त को शाप दिया था कि विष्णु इतने कुपित हो गए कि उसकी हत्या के लिए चक्र सुदर्शन छोड़ दिए। दुर्वासा भागते-भागते नदी में कूद पड़े, लेकिन सुदर्शन कहां मानने वाला था, विष्णु का चक्र था पिछियातेपिछियाते नदी मे दुर्वासा के सिर ऊपर उठाने का इंतजार करने लगा और सिर उठाते ही चीर दिया। मंदिर में उनकी मूर्ति का सिर फटा हुआ है। श्रृष्टि के रक्षक भगवान इतने कमजोर हैं कि किसी बौड़मियाए साधू को सही रास्ते पर लाने में अक्षम होता है और उसकी हत्या कर देता है। भगवान-खुदाओं के साथ दंड और भय की ही अवधारणाएं धर्मों के अभिन्न अंग के रूप में क्यों जुड़े है? विष्णु अपनी कैबिनेट में ऐसे देवताओं को क्यों रखते हैं जो इतने विनाशक शाप की क्षमता का वरदान दे देते हैं? दंड से सिखाने वाला शिक्षक, शिक्षक की पात्रता खो देता है, उसी तरह कुछ व्यक्तियों की हत्याकर या सजा देकर धरती से पाप दूर करने वाला भगवान, भगवानत्व की पात्रता खो देता है। भूमिका बहुत लंबी हो गयी। मूल कहानी पर वापस आते हैं। 


      कार्तिक पूर्णिमा को दुर्वासा में बहुत बड़ा मेला लगता था (अब भी लगता होगा)।  यह रात का मेला होता है (जानकार लोग संशोधन करें) और भोर में नहान। सैकड़ों लोग भोर 4 बजे से ही नदी में, कांपते हुए डुबकियां लगाना शुरू कर देते थे (अब भी ऐसा ही होगा)। मेरे पिताजी और भइया ने मुझे बहकाकर बाग में खेलने भेज दिया और खुद साइकिल से मेला चल दिए। सही सही नहीं कह सकता कि क्या उम्र रही होगी, लेकिन चीन के साथ लड़ाई के पहले की बात है और स्कूल जाना शुरू करने के बाद की। यह अच्छी तरह याद है कि घुटनों तक आने वाली भइया की पुरानी कोट पहने था। किसी लड़के ने बताया कि बाबू-भइया मुझे बंहकाकर दुर्वासा के लिए निकल पड़े हैं। अपने साथ ऐसा छलबर्दाश्त के बाहर था, मैं सीधे अंडिका की सड़क की तरफ दौड़ पड़ा। साइकिल का रास्ता घूमकर था और पैदल का खेतों में होते हुए सीधा। अंड़िका पहुंचते-पहुंचते ये लोग जरा सा आगे निकल गए थे। खेत में काम करते किसी ने मुझे देख और पहचान लिया और पिताजी को आवाज दिया। वे लोग रुक गए और छलके लिया पछतावा के बदले भइया मुझे ही डांटने लगे। भइया क कैरियर पर पीछे और डंडे पर तौलिया लपेट कर मुझे सािकिल पर ागे बैटा कर बाू चल दिए। चांदनी रात में साइकिल यात्रा में बहुत मजा आ रहा था। अंदाजन 20-25 किमी की दूरी होगी। इतना बड़ा मेला और इतनी दुकानें, इतने लोग एक जगह पहली बार देख रहा था। पिताजी के कई परिचित मिल गए। एक जगह चाय पीने बैठे और अपने परिचितों से वार्तालाप में उलझ गए। छोटा सा कुल्हड़ होता था, मैं गरम गरम 4 चाय पी गया। मुझे इन लोगों के वार्तालाप में मजा नहीं आ रहा था सो भूगोल का मुआयना करने चल दिया। निशान तो दिमाग में बैठाकर चलता गया। एक अस्थाई दुकान पर पकौड़ियां बन रहीं थी। दुकानदार से पकौड़ी मांगा, उसने पूछा किसके साथ था? मैं चवन्नी दिखाकर बोला था कि मेरे पास पैसा है। पकौड़ी खाते हुए थोड़ा कन्फुजिया रहा था और याद कर  उस चाय की दुकान पर पहुंचा तो ये लोग गायब। दुकानदार से पूछता तो वह बताता कि पिताजी यहीं रुकने को कहे हैं लेकिन मैं इन लोगों को खोजने निकल पड़ा। लेकिन इतनी भीड़ में कैसे खोजूं? मेरे मन में एक अज्ञात भय यह लेकर था कि किसी को पता न लग जाए मैं खोगया हूं। मैं उसी पकौड़ी की दुकान पर बैठ गया क्योंकि घर वापसी का वही रास्ता था। मन में अजीब अज्ञात घबराहट हो रही थी और मैं छिपाने की कोशिस कर रहा था। तभी एक सज्जन कंबल ओढ़े आकर मेरी बगल में बेंच पर बैठे और मेरी पीठ पर हाथ रख दिए। मैं डर गया। उन्होने बड़े दुलार से पूछा, ‘तू सुलेमापुर के सालिकराम पंडितजी क हेरायल लडिका हव न?’ मुझसे कुछ कहा नहीं गया। बस तेज तेज रोना शुरू कर दिय़ा। वे वहीं बैठने को बोल पिजाजी को बताने-बुलाने चले गए। पिताजी को देखते ही मैं लिपट कर रोने लगा। वे पगलू कर गोद में उठा लिए। लेकिन भैया को डांटने का मौका मिल गया। खैर बाकी नहान और मेले की और यादें प्रासंगिक नहीं हैं। बाबा पागल नामकरण कर चुके थे, लोगों को परमाण के तौर पर एक और तथ्य मिल गया। मेरी बेटी मेरी किसी बेवकूफी पर पूछती है कि मैं बचपन से ऐसे ही हूं क्या?    

29.11.2017            





1964 में प्राइमरी यानि कक्षा 5 की परीक्षा पास करने के, बाद सबसे नजदीकी स्कूल लग्गूपुर पढ़ने गया जो हमारे गांव से 6-7 किमी दूर था। स्कूल लग्गूपुर गांव में एक जमींदार,  सरजू पांडे की विशालकाय कोठी के आहाते में था, लेकिन उसका नाम जूनियर हाई स्कूल पवई था। पवई उस गांव से सटी हुई (लगभग 1किमी दूर) बाजार है।  पांडे जी ने कोठी गोरखपुर में रहने वाले अपने दामाद क नाम संकल्प कर दिया था, और खाली रहती थी। उसी से सटा एक खपड़ैल बनाकर पति-पत्नी, उसी में रहते थे।सुना है, उसी गांव में ग्राम समाज की जमीन में वह स्कूल अलग भवन में बन गया है, मुझे कभी नजदीक से देखने का मौका नहीं मिला। अबकी बार गांव जाऊंगा तो देखने जाऊंगा। कोठी के बरामदे में कक्षा 8 की पढ़ाई होती थी और बरामदे से सटे दो कमरे ऑफिस और स्टाफ रूम के रूप में इस्तेमाल हते थे। कोठी के आहाे में विशाल अशोक के पेड़ के इर्द-गिर्द दो मड़हों में कक्षा 7 और कक्षा 6 के क्लास चलते थे। अशोक के नीचेे कुर्सियों पर शिक्षक बैठते थे। 


 जब हम कक्षा 6 में गए तो हमारे साथ कक्षा 4 में पढ़ने वाले लड़के तब कक्षा 5 में आए। कक्षा 5 के हमारे सहपाठियों में हमारे गांव के रमाकर उपाध्याय अपने बड़े भाई के साथ कलकत्ता चले गए, बाकी अगल-बगल के गांवों के लड़के कहां गए, पता नहीं। प्रभाकर जी कलकत्ता में किसी स्कूल में नौकरी करते थे। वे तब तक के हमारे गांव के चंद पढ़े-लिखे लोगों में थे। उन्हीं जितना पढ़े, सुर्जू भाई (सूर्यकुमार मिश्र) जौनपुर जिला कृषि कार्यालय में नौकरी करते थे। उस साल (1964 में)अपने गांव के से कक्षा 6 में लग्गूपुर पढ़ने जाने वाला मैं अकेला छात्र था, कक्षा 7 में कोई नहीं था। कक्षा 8 में 3 लोग थे, तीनों मेरे भइया के हमउम्र थे, भइया उसी साल 1964 में आठवीं पास कर, हाई स्कूल में पढ़ने गांव से 12 मील दूर, शाहगंज चले गए थे। जब मैं कक्षा6 में लग्गूपुर जाना शुरू किया तो साथ जाने वाले, कक्षा 8 के 3 लोग थे – राम बचन सिंह; सती प्रसाद मिश्र (लंगड़) तथा रामकिशोर मिश्र (बचूड़ी)। सती प्रसाद और किशोर क्रमशः चाचा भतीजे थे। लंगड़ भाई का नाम लंगड़ क्यों पड़ा, समझ में नहीं आता था, उनके पैर बिल्कुल दुरुस्त थे। वैसे गांव की संवेदनशीलता काफी क्रूर होती है, पैरों में कुछ खराबी वाले का बुलाने का नाम लंगड़ पड़ जाता था और नेत्रहीन का सूरदास। किशोर बताते हैं कि उनका और मेरे भइया तथा ठकुरइया के कनिक बाबा (कनिक बहादुर सिंह) के बेटे सत्येंद्र सिंह का जन्म एक-दो दिन के अंतर पर हुआ था। किशोर गांव के  रिश्ते में भतीजे लगते हैं, उम्र में 4-5 साल बड़े होने के बावजूद मिलने पर या फोन पर चाचा जी संबोधन के साथ ही बात करते हैं। फौज में थे, शायद सूबेदार के पद से रिटायर होकर अब इलाहाबाद में बस गअए हैं। सती प्रसाद कलकत्ता में बैंक में नौकरी करते थे, 7-8 साल पहले कलकत्ता से गांव आते समय गया में ट्रेन से गिर कर घायल हो गए थे जिन्हें वहीं रेलवे अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन वेे बचे नहीं।राम बचन सिंह दिल्ली में स्टेट्समैंन में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे, 8-10 साल पहले किसी बीमारी से उनका निधन हो गया। इनके हमउम्र हमारे भइया का दिसंबर, 2023 में किडनी आदि की बीमारी से नोएडा के एक अस्पताल में निधन हो गया। 


टेक्स्ट के बीच में फुटनोट की पुरानी आदत के लिए माफी के साथ आगे की कहानी यह है कि कक्षा 8 के अपने तीनें सीनियरों के साथ 10 बजे सग्गूपुर पहुंचने के लिए सुबह लगभग 7 बजे हम घर से निकल पड़ते थे, गांव पार करते करते ये तीनों लोग मिल जाते थे। हमारा पहला पड़ाव, लगभग डेढ़ किमी दूर, सलारपुर की मुर्दहिया बाग में होता था, वहां बगल के गांवों बखरिया के ठकुरी यादव और केदार यादव और चकिया के किशोर (छोटकू) कहांर मिलते थे और हम सलारपुर गांव के अंदर होतेे हुए गद्दोपुर के यमुना ताल पर पहुंचते थे। सलारपुर में घुसते ही पहला घर अंगनू कोहांर का था। अगनू भी कक्षा 8 में पढ़ते थे। अंगनू और सलारपुर के 2-3 लड़के और साथ हो लेते तथा सलारपुर के जुड़वां गांव रामनगर के कुछ लड़के यमुना ताल पर मिलते रामनगर के लड़कों में जयहिंद राजभर और विनोद सिंह और अभिमन्यु सिंह कक्षा 8 में थे, रामकेवल सिंह कक्षा 6 में हमारे साथ तथा कक्षा 6 और 7 में भी कुछ और लड़के थे, जिनके नाम याद नहीं हैं। यमुना ताल विशालकाय तालाब था जो गद्दोपुर,रामनगर और कछरा, तीन गांवों में फैला था। अब सुनते हैं यमुना ताल सिमट कर बहुत ही छोटा तालाब हो गया है।  यमुना ताल के पड़ाव के बाद हम गद्दोपुर पहुंचते थे वहां पांडे लोगों के कुंए पर पानी पिया जाता तथा वहां के 3-4 लड़कों के साथ आगे बढ़ते और हमारा आखिरी पड़ाव लग्गूपुर के पहले बनवसिया बाग में होता, यदि समय बचा होता तो हम वहां कुछ खेलते और फिर लग्गूपुर गांव के अंदर होते हुए अपने स्कूल पर पहुंते। 


मिडिल स्कूल में 2 मौलवी साहब थे, ताहिर अली (हेड मास्टर) और आले हसन; एक बाबू साहब, श्याम नारायण सिंह; एक मुंशी जी (चंद्रबली यादव) तथा एक राय साहब (राम बदन राय)। राय साहब का गांव दूर था, इसलिए स्कूल पर ही रुकते थे। राय ससाहब का पोता दिल्ली विश्वविद्यालय के केएम कॉलेज में पढ़ता था, गांव पता चलने पर पूछा था कि उसके गांव (आजमगढ़ जिले में दुर्बासा के पास) के आसपास के मेरे एक शिक्षक थे तो उसने बताया कि वे जीवित थे और उसके दादा जी थे (2लाल पहले उनका देहांत हुआ)। 2012 में मैं अपनी ससुराल (मेरे गांव से लगभग 35 किमी) से मोटर साइकिल से घर जा रहा था, मुख्य सड़क  से अपने गांव मुड़ते समय दिमाग में राय साहब से मिलने की बात आई और मुड़ा नहीं आगे बढ़ गया और वहां से सगभग 40 किमी दूर दुर्बासा पहुंचकर घाट पर चाय के साथ पुरानी यादें ताजा करके नए बने पुल से नदी पार कर, राय साहब के गांव (पश्चिम पट्टी) पहुंच गया। मैने 1967 में मिडिल पास किया था और ताज्जुब हुआ कि  45 साल बाद भी राय साहब ने बताने पर पहचान लिया और मेरे बारे में उस समय की कई बातें याद दिलाया। हमने 1964 में जब जूनियर हाई स्कूल पवई में कक्षा 6 में दाखिला लिया तो वहां 4 शिक्षक थे: प्रधानाध्यापक छोटे कद के, बड़े मौलवी साहब,ताहिर हुसैन; और लंबे कद के छोटे मौलवी साहब, आले हसन; बाबू साहब, श्याम नारायण सिंह और कृषि मास्टर मुंशीजी चंद्रबली यादव। बड़े मौलवी साहब कक्षा 6 को नहीं पढ़ाते थे। 


स्कूल हम लोग खेलते-कूदते खुराफात मचाते जाते थे। रामनगर के एक जमींदार थे घोड़ सिंह। उनका नाम राधाधीन सिंह था,लकिन वे गालियां मां-बहन-बेटियों का घोड़े से रिश्ता जोड़कर देते थे। धमाचौकड़ी मचाते स्कूल जाते बच्चों को देखकर वेदूर से ही गाली देते थे, ‘तेली-तमोली-भर-बांगर क लड़िका एक तौ पढ़ै के न चाही, पढ़ै जइहें तो खुराफात मचैहेंट तरी बेटी क घोड़……’।  इसलिए उन्हें सब घोड़ सिंह कहने लगे। जातीय श्रेष्ठतावाद एक सामाजिक सच्चाई थी,लेकिन प्रतिरोध की संस्कृति भी शुरू हो गयी थी। शिक्षा की सार्वभौमिक सुलभता औपनिवेशिक शिक्षा नीति का एक सकारात्मकउपपरिणाम है। गैर द्विज शूद्र जातियों के लड़के भी पढ़ने लगे थे। स्कूल कॉलेजों में लड़कियोंकी संख्या नगण्य थी। हमारी क्लास में पांडेय जी के खानदान की दो लड़कियां थीं और दूर के एक गांव, भुलेसरा  की एक ही लड़की स्कूल आती थी। अब लगता है कि कि कितनी साहसी लड़की थी, भुलेसरा भी स्कूल से 6-7लकिमी दूर था। अगर समकोण त्रिभुज के माध्यम से भौगोलिक स्थिति का वर्णन करें तो हमारा गांव स्कूल से कर्ण की दूरी पर था तो भुलेसरा लंबवत भुजा की। उसका नाम विद्यावती था। हम कभी नजदीक की बाजार होते घर जाते तो भुलेसरा के बच्चे भी मिल्कीपुर तक साथ ही जाते थे, वहां से हमारा गांव 3-4 किमी दूर था। मिडिल स्कूल के एक ही सहपाठी, राधेमोहन सिंह से अभी तक संपर्क है, उनका गांव भुलेसरा के पास भरचकिया है। राष्ट्रीयसहारा में प्रूफ रीडर की नौकरी से रिटायर होकर हो गांव में रहतते हैं। बासूपुर एक जमींदार परिवार के भोले (देवेंद्र पांडे) से गांव जाने पर एकाध बार मलाकात हो गयी। बासूपुर और लग्गूपुर के पांडेय परिवार एक ही कुल के हैं। स्कूल के हमारे एक सीनियर अभिमन्यु सिंह गांव जाने पर कभी कभी मिलते थे, प्राइमरी में शिक्षक थे, कुछ साल पहले उका निधन हो गया।  स्कूल के सहयात्रियों में एकाध दलित और कुछ अन्य पिछड़ी जातियों (अब के ओबीसी) के लड़के भी थे उनमें जयहिंद राजभर काफी वाचाल थे। औपनिवेशिक शिक्षा नीति का एक सकारात्मक उपपरिणाम है शिक्षा की सार्वजनिक सुलभता, जो 1980-90 के दशक तक व्यवहार में भी दिखने लगी।  तथाकथित छोटी जातियों को भी सैद्धांतिक रूप से शिक्षा की सुविधा उपलब्ध थी। फीस नाममात्र की थी – जहां तक मुझे याद है, प्राइमरी में 2 पैसा, मिडिल स्कूल में 2 आने थी तथा हाई स्कूल और इंटर में 2 रुपया 2 आना। इस तरह स्कूल की पढ़ाई हम लगों ने लगभग मुफ्त में की। 


       मार्च से स्कूल खुलने का समय 10 बजे से पीछे खिसक कर 7 बजे हो जाता था। 5 बजे ही घर से निकलना पड़ता था। घर की मुख्य रसोई केबरामदे के कोने में अइया (दादी) ने एक छोटा चूल्हा बना रखा था, सुबह सुबह कुछ बना देतीं थीं, और कुछ नहीं तो एक रोटी बन जाती थी दूध या घी में पिघलाकर गुड़ के साथ खाकर और कुछ भूजा वगैरह लेकर सुबह बहुत जल्दी स्कूल के लिए निकल पड़ता था। कक्षा 8 की जिला बोर्ड की परीक्षा मार्च में होती थी। हमारे गाव के तीनं सहयात्री उसके बाद स्कूल जाना बंद कर दिए तो मार्च के बचे दिन और अप्रैल-मई में अपने गांव से मिडिल स्कूल जाने वाला मैं अकेला छात्र था। सलारपुर तक अकेले जाता था वहां से कुछ और साथी मिल जाते थे। इन गर्मियों में एक भूत का एपीसोड है जिसे थोड़ा बाद में बताता हूं।  


हम जब स्कूल में दाखिला लिए तो स्कूल में सभी शिक्षक लगभग स्थानीय थे। सबसे नजदीक, पवई के आलेहसन मौलवी साहब थे, जो पैदल ही आ जाते थे। अंग्रेजी और इतिहास के शिक्षक श्याम नारायण सिंह, 5-6 किमी दूर के गांव छज्जो पट्टी के थे और हेड मास्टर, ताहिर मौलवी साहब 6-7 किमी दूर माहुल के थे तथा कृषि अध्यापर चंद्रबली मुंशी जी, 7-8 किमी दूर खैरुद्दीन पुर के। ये तीनों साइकिल से स्कूल आते थे। संस्कृत शिक्षक राम बदन राय दुर्बासा के पास पश्चिम पट्टी के थे, जो वहां से 25-30 किमी दूर था, वे स्कूल में ही रुकते थे। जिस बरामदे में कक्षा 8 की क्लास चलती थी उसके ऊपर के बरामदे को दोनों किनारे एक एक कमरे थे, उनमें से एक में राय साहब टिकते थे। स्कूल में रामशकल नाम के चपरासी थे, वे और उनकी मां भगतिन चाची मिल कर नौकरी करते थे, भगतिन चाची की बात की कुछ खास बातें कक्षा 8 की चर्चा के साथ बताऊंगा। रायसहब हमारे दाखिला लेने के बाद किसी और स्कूल से स्थांरित होकर आए थे। मैं कक्षा में सबसे आगे बैठता था। संस्कृत का पहला पाठ सरस्वती बंदना था, “या कुंदेंदुतुषारहार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता…….”।राय साहब ने पूछा कि कौन वह श्लोक लय में पढ़ सकता था। मैंने हाथ उठा दिया , और पूरा श्लोक सही सही पढ़ दिया। रायसाहब ने छात्रों को संबोधित कर कहा कि आज से मुझे ईश नारायण मिश्र की बजाय पंडित ईशनारायण मिश्र बुलाया जाए। कुछ दिन लड़के पंडित कह चिढ़ाते थे, फिर छोड़ दिया। 


एक दिन मैं  स्कूल खुलने से थोड़ा पहले पहुंच गया और राय साहब स्कूल के कुंए पर नहा रहे थे। मुझे प्यास लगी थी, मैं कुंए पर पानी पीन पहुंचा। रामशकल कुंए से बाल्टी में पानी निकाल रहा था। राय साहबव में हंसकर पूछा कि क्या खाकर आया हूं मैंने थोड़ा हिचकिचाहट के साथ बताया, धूध रोटी, उन्होंने पूछा कितनी रोटी? मैंने कहा एक त वे रामशकल से बोले , “ अरे इसे जल्दी पानी पिलाओ, एक रोटी खाकर आया है”। 


कक्षा 6 के एक और संस्मरण के बाद आगे बढ़ता हूं। यह जीवन की नैतिक अपराध बोध की पहली याद घटना है, इसे मैंने बहुत (लगभग 10 साल) पहले लिखा।   जिसे यहां कॉपी-पेस्ट कर रहा हूं। 



अपराधबोध 1

कुछ अपराधबोध आजीवन साथ नहीं छोड़ते, चाहे अपराध (गलती) बालसुलभ ही क्यों न हो। आज कुछ जल्दी उठ गया और पहले से विलंबित, समयांतर (जनवरी) का लेख पूरा करने बैठा। आवारा मन, अलसुबह का सन्नाटा और झोपड़ी का एकांत, यानि मन भटकने का खुला मैदान। 1964 की एक घटना के चलते मन 53 साल पुरानी यादों में भटक गया। 9 साल में प्राइमरी पास कर लिया था और आगे पढ़ने मिडिल स्कूल, लग्गूपुर जाते 2-3 महीने हुए थे। कक्षा में टाट की 3 कतारें थीं। मैं क्लास का सबसे छोटा था और बीच की कतार में सबसे आगे बैठता था। संयोगात, विशेषाधिकार को लोग अधिकार समझ लेते हैं। वह जगह मुझे ‘मेरी जगह’ लगने लगी। एक दिन एक लड़का मुझसे पहले पहुंच गया और ‘मेरी जगह’ बैठ गया। उनका नाम आज भी शायद इसीलिए याद है, उमाशंकर मिश्र (गांव –सुल्तानपुर)। 1967 के बाद मुलाकात नहीं हुई। हमें कभी बाजार (मिल्कीपुर) होते, लंबे रास्ते से घर जाना होता तो कुछ देर का साथ होता। असली मुद्दे पर आते हैं। उमाशंकर मुझसे बड़े और लंबे-चौड़े थे। मैंने उनका बस्ता ‘अपनी जगह’ से उठाकर फेंक दिया और उन्होंने मुझे एक थप्पड़ जड़ दिया, जवाबी प्रतिक्रिया में मैंने उनकी कलाई पर दांत गड़ा दिया। गुरुजनों तक मामला उनके ले जाने के पहले मैं ही पहुंच गया। श्यामनारायण सिंह (बाबूसा’ब) के पास मासूमियत ओढ़कर पहुंचा और बताया कि उमा ने मुझे थप्पड़ मारा और मैं जब उनके पास शिकायत करने आने लगा तो उसने अपनी कलाई पर अपने ही दांत का निशान बना लिया। बद अच्छा बदनाम बुरा। मेरी अच्छे बच्चे की छवि के चलते बिना खोजबीन के मेरी बात मान ली और उनकी बात सुने बिना आते ही छड़ी जड़ दिया यह कहते हुए कि वे जानते हैं कि वह क्या कहेगा। उस दिन हमें बाजार होकर जाना था। उमा मुझसे बोल नहीं रहे थे। मैंने मॉफी मांगी। उन्हें भी बाजार कुछ काम था। मैं चवन्नी लेकर आया था, रबर-पेंसिल खरीदने के लिए लेकिन हम लोगों ने (बाकी कौन थे उनमें से ओमप्रकाश मौर्य का ही नाम याद है) प्याज की पकौड़ी खाया। 4 आने में बहुत पकौड़ी आती थी। घर जाकर झूठ बोल दिया कि पैसा खो गया, अच्छे बच्चे की छवि के चलते मेरी बात पर यकीन कर लिया गया और डांट नहीं पड़ी।

पता नहीं उमा ने मुझे माफ किया था कि नहीं, लेकिन मुझे आज भी अपराधबोध सालता है। उस उम्र के अपमान और बेबसी की वेदना मैं तब नहीं समझता था। मुझे जाकर कहना चाहिए था कि उसने मारा, मैं शरीर से उससे नहीं निपट सकता था सो काट लिया, मामला बराबर। बाबू सा’ब को चाहिए था कि पता करते और हम दोनों को डांटकर कहते कि मार-पीट से मामले नहीं हल होते संवाद से होते हैं। लेकिन नैतिकता और विवेक के विकास के उस स्तर पर शायद 9 साल के बच्चे में तुरंत गलती मानने और माफी मांगने का नैतिक साहस नहीं होता।

23.12.2017   

       


Wednesday, December 3, 2025

बेतरतीब 181 (बचपन 3 a)

 स्कूल हम लोग खेलते-कूदते खुराफात मचाते जाते थे। रामनगर के एक जमींदार थे घोड़ सिंह। उनका नाम राधाधीन सिंह था,लकिन वे गालियां मां-बहन-बेटियों का घोड़े से रिश्ता जोड़कर देते थे। धमाचौकड़ी मचाते स्कूल जाते बच्चों को देखकर वेदूर से ही गाली देते थे, ‘तेली-तमोली-भर-बांगर क लड़िका एक तौ पढ़ै के न चाही, पढ़ै जइहें तो खुराफात मचैहेंट तरी बेटी क घोड़……’।  इसलिए उन्हें सब घोड़ सिंह कहने लगे। जातीय श्रेष्ठतावाद एक सामाजिक सच्चाई थी,लेकिन प्रतिरोध की संस्कृति भी शुरू हो गयी थी। शिक्षा की सार्वभौमिक सुलभता औपनिवेशिक शिक्षा नीति का एक सकारात्मकउपपरिणाम है। गैर द्विज शूद्र जातियों के लड़के भी पढ़ने लगे थे। स्कूल कॉलेजों में लड़कियोंकी संख्या नगण्य थी। हमारी क्लास में पांडेय जी के खानदान की दो लड़कियां थीं और दूर के एक गांव, भुलेसरा  की एक ही लड़की स्कूल आती थी। अब लगता है कि कि कितनी साहसी लड़की थी, भुलेसरा भी स्कूल से 6-7लकिमी दूर था। अगर समकोण त्रिभुज के माध्यम से भौगोलिक स्थिति का वर्णन करें तो हमारा गांव स्कूल से कर्ण की दूरी पर था तो भुलेसरा लंबवत भुजा की। उसका नाम विद्यावती था। हम कभी नजदीक की बाजार होते घर जाते तो भुलेसरा के बच्चे भी मिल्कीपुर तक साथ ही जाते थे, वहां से हमारा गांव 3-4 किमी दूर था। मिडिल स्कूल के एक ही सहपाठी, राधेमोहन सिंह से अभी तक संपर्क है, उनका गांव भुलेसरा के पास भरचकिया है। राष्ट्रीयसहारा में प्रूफ रीडर की नौकरी से रिटायर होकर हो गांव में रहतते हैं। बासूपुर एक जमींदार परिवार के भोले (देवेंद्र पांडे) से गांव जाने पर एकाध बार मलाकात हो गयी। बासूपुर और लग्गूपुर के पांडेय परिवार एक ही कुल के हैं। स्कूल के हमारे एक सीनियर अभिमन्यु सिंह गांव जाने पर कभी कभी मिलते थे, प्राइमरी में शिक्षक थे, कुछ साल पहले उका निधन हो गया।  स्कूल के सहयात्रियों में एकाध दलित और कुछ अन्य पिछड़ी जातियों (अब के ओबीसी) के लड़के भी थे उनमें जयहिंद राजभर काफी वाचाल थे। औपनिवेशिक शिक्षा नीति का एक सकारात्मक उपपरिणाम है शिक्षा की सार्वजनिक सुलभता, जो 1980-90 के दशक तक व्यवहार में भी दिखने लगी।  तथाकथित छोटी जातियों को भी सैद्धांतिक रूप से शिक्षा की सुविधा उपलब्ध थी। फीस नाममात्र की थी – जहां तक मुझे याद है, प्राइमरी में 2 पैसा, मिडिल स्कूल में 2 आने थी तथा हाई स्कूल और इंटर में 2 रुपया 2 आना। इस तरह स्कूल की पढ़ाई हम लगों ने लगभग मुफ्त में की।