Thursday, October 31, 2024

बेतरतीब 188 (दिल्ली 1971)

 वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार Ramsharan Joshi की अपने पत्रकार-साहित्यकार मित्रों Pankaj Bisht और Ibbar RabiRabbi के साथ प्रेस क्लब और कनाटप्लेस में घूमते हुए नास्टजिआने की एक पोस्ट पर एक नास्टेजिआता कमेंट:


अद्भुत तिकड़ी और साथ मिलकर यादों की शैर की अद्भुत बानगी। मैं 16 साल की उम्र में,1971 में पहली बार दिल्ली आया। बड़े भाई की स्टेट्समैन के टाइम ऑफिस में नई नई नौकरी लगी थी, तिलक ब्रिज रेलवे कोढियों के किसी सर्वेंट क्वार्टर में किराए पर रहते थे। हर शाम मंडी हाउस घूमते हुए, मंडी हाउस में तरह तरह की अड्डेबाजियों का जायका लेते हुए, कनाट प्लेस जाता था, दूर से कॉफीहाउस में कॉफी के प्यालों में क्रांति करते लोगों की बहसें सुनता और हरकारे बन दौड़ते सिगरेट के धुएं देखता। कॉफी बहुत सस्ती होती थी। आज की पालिका बाजार की पार्किंग की जगह आइसक्रीम पार्लर सा कुछ होता और वहीं पहली बार सिगरेट पी थी। सबसे अच्छी सिगरेट मांगने पर 2 आने की गोल्डफ्लेक दिया और इतनी खांसी आई कि सोचा अब कभी नहीं पिऊंगा। लेकिन ...। हो सकता है मंडी हाउस या कॉफी हाउस में आप लोगों की किसी अड्डेबाजी का भी दूर से जायजा लिया हो। हमारे समय के तीन महान जनवादी लेखक-कवि-साहित्यकार-पत्रकारों को सलाम। हर शुक्रवार पैदल लाल किला जाता क्योंकि शुक्रवार को लालकिले में जाने का टिकट नहीं खरीदना पड़ता था। उस समय राष्ट्रपति भवन के बगीचों में भी लोग बेरोक-टोक जा सकते थे। वहां घूमते हुए एक बार राज्यसभा की सांसद विद्यावती चतुर्वेदी के बेटे प्रियव्रत चतुर्वेदी से परिचय हुआ था। उस समय वह शाहजहां रोड पर रहतीं थीं। एक दिन चांदनी चौक में घूमते हुए किसी सिनेमा हॉल में कटी पतंग का पोस्टर दिखा और टिकट लेकर घुस गए। उस समय दिल्ली में तांगे भी चलते थे और कनाट प्लेस से लालकिले तक फटफटी। फटफटी तो 80 के दशक तक चलती थी। एक बार कनाट प्लेस में प्यास लगी और 2 पैसे में मशीन का पानी मिलता था। गांव के लड़े के पानी खरीदकर पीने की बात गले से नीचे नहीं उतरी और एक हलवाई (शायद गुलजारी) की दुकान के काउंटर पर पानी के गिलास रखे थे, वेटर से पूछ कर एक गिलास पानी पिया।

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