Monday, October 14, 2024

मार्क्सवाद 303 (जेपी)

 Prof. Gopeshwar Singh की पोस्ट, उसपर 3 कमेंट के साथ।


1934-42 का दौर राजनैति-बौद्धिक क्रियाकलापों की दृष्टि से सबसे अच्छा दौर था राजनैतिक विभ्रम की स्थिति 1960 के दशक के अंत तक चरम पर पहुंच चुकी थी तथा बिहार छात्र आंदोलन के समय तक वे अपरिभाषित सर्वोदयी भ्रम जाल में पंसकर राजनैतिक रूप से लगभग अप्रासंगिक हो चुके थे । 1972 में जेएनयू सिटी सेंटर (35 फिरोजशाह रोड) में उनकी एक 35-40 लोग थे। छात्र आंदोलन को एक जेपी जैसे बड़े कद का नेता चाहिए था और बिहार छात्र आंदोलन जेपी आंदोलन बन गया और आरएसएस के सहयोग से जेपी ने अपरिभाषित संपूर्णक्रांति का नारा दिया । मैंने भी संपूर्ण क्रांति करते हुए कुछ दिन की जेलयात्रा की थी। संपूर्ण क्रांति का और जो भी परिणाम रहा, जनता पार्टी के हिस्से जनसंघ के जरिए आरएसएस को सामाजिक स्वीकार्यता मिली और उसके काफी कार्यकर्ता मीडिया और तमाम महकमों में घुसपैठ बना सके। 1980 में अपरिभाषित गांधीवादी समाजवाद को वैचारिक धुरी घोषित कर बनी भाजपा ने1984 से अयोध्या को मुद्दा बना आक्रामक सांप्रदायिक लामबंदी शुरू कर दी।

Gopeshwar Singh
Ish N. Mishra संघ ने अपना एजेंडा सेट किया लेकिन समाजवादी जमात ने आगे आकर कुछ क्यों नहीं किया? उस आंदोलन में सीपीएम भी समर्थन में था। उसका लाभ उसे बंगाल चुनाव में मिला
। लगभग तीन दशक उनकी सत्ता रही। वे क्यों असफल हुए?
हमें आत्मावलोकन की जरूरत है।

Gopeshwar Singh बिल्कुल सही कह रहे हैं, कल हम लोग यही बात कर रहे थे कि देश-समाज की आज की दुर्दशा का सर्वाधिक 'श्रेय' इस देश के कम्युनिस्ट-सोसलिस्टों के अकर्म-कुकर्मों को जाता है। 1967 में पहली बार आरएसएस की संसदीय शाखा, जनसंघ को लोहिया-दीनदयाल समझौते के तहत संविद सरकारों में हिस्सेदारी से पांव पसारने का मौका मिला लेकिन संविद सरकारों में सोसलिस्ट ही नहीं कम्युनिस्ट (सीपीआई) भी थी। 1964 में संशोधनवाद के मुद्दे पर सीपाआई से टूटकर बनी सीपीएम तीन ही साल में उससे बड़ी संशोधनवादी पार्टी बन गयी। जेपी आंदोलन एक जनांदोलन था और मार्क्स की माने तो जनता के मुद्दे से अलग कम्युनिस्ट का कोई अपना मुद्दा नहीं होता। सीपीआई कांग्रेस का पुछल्ला बनी थी और सीपीएम एक कदम आगे-दो कदम पीछे की वैचारिक कसरत में लगी थी, अतिक्रांतिकारी सत्तर के दशक को मुक्ति का दशक घोषित करने में। मैंने 1985 में एक पेपर लिखा था, COnstitutionalism in Communist Movent of India जिसमें यह बात रेखांकिित की थी कि क्रांतिकारी विचारों के प्रसार या सामाजिक चेतना के जनवादी करण के साधन रूप में अपनाई गयी चुनावी नीति साध्य बन गयी। मार्क्स ने हेगेल की प्रस्थापना को उलट कर सर से पांव के बल खड़ा कर दिया था। भारतीय कम्युनिस्टों ने मार्क्स को उलट कर सिर के ल खड़ा कर दिया। कम्युनिस्ट पार्टी, ग्राम्सी के शब्दों मे Moden Prince राजनैतिक शिक्षा के अपने दायित्व में पूर्णतः असफल रही। यह अपने संख्याबल को जनबल में तब्दील करने में बिल्कुल नाकाम रही और पार्टी लाइन से हांका जाने वाला इनका संख्याबल भाजपा या टीएमसी का संख्याबल बन गया। आत्मालोचना मार्क्सवाद की प्रमुख अवधारणा है, जिसे कम्युनिस्ट पार्टियों ने फ्रेम कराकर अपने दफ्तरों में फूल-माला चढ़ाने के लिए टांग दिया है। वैसे दुनिया भर में पूंजीवाद ही नहीं सिद्धांत के संकट से गुजर रहा है, उसका विकल्प समाजवाद भी सिद्धांत के संकट से गुजर रहा है। जाने-माने मार्क्सवादी इतिहासकार, एरिक हॉब्सबाम ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में दुनिया के तम्युनिस्ट नेताओं को फिर से मार्क्स पढ़ने की सलाह दी थी, शायद कभी वे उनकी सलाह मान अपना पुनरुत्थान कर सकें। रोजा लक्जरबर्ग ने 1918 में 1917 की रूसी क्रांति पर लिखे अपने विश्लेषण में लिखा था कि रूस की तत्कालीन विशिष्ट परिस्थितियों में अपनाई गयी नीतियों को अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति की नीति नहीं बनाया जा सकता, लेकिन कॉमिन्टर्न निर्दिष्ट कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद को method के रूप में न अपनाकर model के रूप में अपना लिया। और उसके चलते अगली क्रांति की बजाय प्रतिक्रांति हो गयी। अगली क्रांति का इंतजार करना है।

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