Friday, March 15, 2024

बेतरतीब 174 (पारंपरिक सामूहिकता)

 मित्र Ranjan Sharma ने पुराने समय में बिना टेंट हाउस, डीजे और कैटरिंग व्यवस्था से पारस्परिक सहयोग और सहकीरिता-सामूहिकता से शादी-व्याह संपन्न होने की एक पस्ट शेयर किया, उसपर मेरा कमेंट:

मेरी शादी और उसके बाद तक ऐसा ही होता था। एक बात आप भूल गए, शादी तीन दिन की होती थी, पहले दिन द्वारपूजा और विवाह की रश््में तथा कोहबर। दूसरे दिन बहार होता, दोपहर भोजन के बाद महफिल सजती, नौटंकी या पतुरिया या कथक का नाच होता। महफिल के बाद मा़व में खिचड़ी की रश्म होती जिसमें दहेज के सामान (घड़ी, साइकिल, कलम, रेडियोआदि और बर्तन) सजाए जाते। लड़का खिचड़ी छूने के लिए नखरे करता फिर कोई चाचा/मामा या ऐसे कोई बड़ा आकर लड़के को इशारा करता तब लड़का खिचड़ी छूता और जयनाद होती, बंदूक से हवा में गली दागी जाती। तब दूल्हा, उसके मित्र, सहबाला और छोटे भाई आदि मिठाई आदि खाकर वापस बारात में जाते। अगले दिन नाश्ते के बाद बारात विदा होती थी। ववाह में दोनों पक्षों में विवाद की स्थिति से निपटने के लिए बारात में बैल गाड़ी पर एक दिन के भोजन की सामग्री तथा लाठी-भाला भी जाता था । मेरी शादी पर खिचड़ी पर एक अजीब बात हुई थी जिसके बारे में फिर कभी।

2 comments:

  1. Sanjay Jha बात अतीतजीवी या भविष्यजीवी होने की नहीं, बात सामाजिक इतिहास की सनद के रूप में अतीत हो चुके को दर्ज करने की है।

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  2. Ranjan Sharma बिल्कुल सही कह रहे हैं, शादी-व्याह या अन्य कामों में सामाजिक भाईचारा समाज में मौजूद सामूहिकता और पारस्परिक सहयोग के रिवाजों का परिणाम था। आज तो गांव के गरीब भी, कर्ज से ही सही, शादी व्याह बारातघरों में ही कर रहे हैं। पहले गांव के सभी घरों में एकाध चारपाई, दरी-तकिया-चादर पर नाम लिखे होते थे जिससे ले जाने लौटाने में सुविधा हो। दूध-दही लोग खुद पहुंचाते थे।

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