इलाहाबाद में कुछ तुकबंदियां करता था लेकिन विज्ञान का छात्र था, सोचता था कि लेखक किसी और ग्रह से आते होंगे। दिल्ली आने के बाद कुछ कहानियां लिखने की कोशिश की, आपराधिक रूप से बुरे संरक्षणबोध के चलते इधर-उधर हो गयीं। 1983 में, आत्मविश्वास की कमी के चलते जनसत्ता में एक लेख छद्म नाम से लिखा, छपने के बाद लोगों की प्रशंसा से लेखकीय आत्मविश्वास की अनुभूति शुरू हुई। 1973 में घर से पैसा लेना बंद किया तो गणित के ट्यूसन से आजीविका चलाने लगा। 1985 में डीपीएस में पढ़ाना छोड़ने के बाद भूखों-मरने की नौबत आने तक गणित से आजीविका न कमाने का गलत निर्णय लिया तथा कलम की मजदूरी से घर चलाने लगा तथा कई संयोगों के टकराव के चलते 1995 में हिंदू कॉलेज (दिल्ली विवि) में नौकरी मिलने के बाद पूरक आय के लिए। ज्यादातर लेखन असंरक्षित रहने के चलते इधर-उधर हो गया।
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गणित से दुश्मनी नहीं, मुहब्बत थी, 13 साल गणित से ही रोजी चली। 1985 तक एक स्कूल में गणित पढ़ाता था, मैं बहुत अच्छा गणित शिक्षक माना जाता था, 1985 में स्कूल छोड़ने के साथ सोचा अब रोजी के और उपाय ढूंढ़ा जाए और जब तक आसान उपाय उपलब्ध हो तो कठिन उपाय ढूंढ़ने में आना-कानी होती। बाद में लगा कि तैश में लिया गया वह फैसला गलत था। गणित दिमाग को तार्किकता प्रदान करता है।
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