Thursday, October 31, 2024

बेतरतीब 188 (दिल्ली 1971)

 वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार Ramsharan Joshi की अपने पत्रकार-साहित्यकार मित्रों Pankaj Bisht और Ibbar RabiRabbi के साथ प्रेस क्लब और कनाटप्लेस में घूमते हुए नास्टजिआने की एक पोस्ट पर एक नास्टेजिआता कमेंट:


अद्भुत तिकड़ी और साथ मिलकर यादों की शैर की अद्भुत बानगी। मैं 16 साल की उम्र में,1971 में पहली बार दिल्ली आया। बड़े भाई की स्टेट्समैन के टाइम ऑफिस में नई नई नौकरी लगी थी, तिलक ब्रिज रेलवे कोढियों के किसी सर्वेंट क्वार्टर में किराए पर रहते थे। हर शाम मंडी हाउस घूमते हुए, मंडी हाउस में तरह तरह की अड्डेबाजियों का जायका लेते हुए, कनाट प्लेस जाता था, दूर से कॉफीहाउस में कॉफी के प्यालों में क्रांति करते लोगों की बहसें सुनता और हरकारे बन दौड़ते सिगरेट के धुएं देखता। कॉफी बहुत सस्ती होती थी। आज की पालिका बाजार की पार्किंग की जगह आइसक्रीम पार्लर सा कुछ होता और वहीं पहली बार सिगरेट पी थी। सबसे अच्छी सिगरेट मांगने पर 2 आने की गोल्डफ्लेक दिया और इतनी खांसी आई कि सोचा अब कभी नहीं पिऊंगा। लेकिन ...। हो सकता है मंडी हाउस या कॉफी हाउस में आप लोगों की किसी अड्डेबाजी का भी दूर से जायजा लिया हो। हमारे समय के तीन महान जनवादी लेखक-कवि-साहित्यकार-पत्रकारों को सलाम। हर शुक्रवार पैदल लाल किला जाता क्योंकि शुक्रवार को लालकिले में जाने का टिकट नहीं खरीदना पड़ता था। उस समय राष्ट्रपति भवन के बगीचों में भी लोग बेरोक-टोक जा सकते थे। वहां घूमते हुए एक बार राज्यसभा की सांसद विद्यावती चतुर्वेदी के बेटे प्रियव्रत चतुर्वेदी से परिचय हुआ था। उस समय वह शाहजहां रोड पर रहतीं थीं। एक दिन चांदनी चौक में घूमते हुए किसी सिनेमा हॉल में कटी पतंग का पोस्टर दिखा और टिकट लेकर घुस गए। उस समय दिल्ली में तांगे भी चलते थे और कनाट प्लेस से लालकिले तक फटफटी। फटफटी तो 80 के दशक तक चलती थी। एक बार कनाट प्लेस में प्यास लगी और 2 पैसे में मशीन का पानी मिलता था। गांव के लड़े के पानी खरीदकर पीने की बात गले से नीचे नहीं उतरी और एक हलवाई (शायद गुलजारी) की दुकान के काउंटर पर पानी के गिलास रखे थे, वेटर से पूछ कर एक गिलास पानी पिया।

Saturday, October 26, 2024

साईबाबा

 

साईबाबा : मानवाता की सेवा में एक शहादत 

ईश मिश्र

 

12 अक्टूबर, 2024 को जनवादी, बुद्धिजीवी, प्रोफेसर जीएन साईबाबा मानवता की सेवा में शहीद हो गए। जेल से छूटने के बाद वसंता (साईबाबा की पत्नी) को फोनपर साईबाबा से बातें हुईं, वे अपनी बीमारी की नहीं, प्रतीक्षित किंतु अधर में लटके अपने शिक्षक जीवन, अध्यापन, छात्रों तथा देश-दुनिया की दशा-दिशा चिंता जाहिर कर रहे थे। 2014 में गिरफ्तारी के बाद कॉलेज प्रशासन ने उन्हें निलबित कर दिया था और  2017 में एक सत्र अदालत द्वारा आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने के बाद बर्खास्त। पते की बात तो यह थी कि हाई कोर्ट से बरी होकर जेल से छूटते ही उन्हें बहाल करदेना चाहिए था। उनकी बहाली का मामला शायद कोर्ट में है, लेकिन अब उसे इसके फैसले से क्या? छूटने के बाद ही पढ़ाने यानि फिर से अपने छात्रों से संवाद की इच्छा जाहिर की थी, लेकिन पूजीवाद में श्रमशक्ति से लैश मजदूर, चाहे वह शिक्षक ही क्यों न हो, श्रम के साधन से मुक्त होता है। फिर से पढ़ाने की उनकी यह इच्छा, इस जीवन में अधूरी ही रह गयी। लेकिन अपने जीवन के उदाहरण, लेखों और कविताओं से वे आने वाली पीढ़ियों को पढ़ाते रहेंगे। साईबाबा मुझसे 12 साल छोटे थे और हमारी पहली मुलाकात इस शतीाब्दी के शुरुआती सालों में कभी हुई। जनपक्षीय सरोकार के किसी मुद्दे पर एक मीटिंग में गए थे, देखा कि लकवाग्रस्त पैरों वाला एक लड़का हाथों में चप्पल पहनकर सीढ़ियां चढ़ रहा है। मन ही मन सलाम किया। 2003 में दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में नौकरी मिली और जल्दी ही छात्रों में लोकप्रिय हो गए। रोहित बेमुला की शहादत से शुरू हुए छात्र आंदोलनों में हम दोनों सक्रिय थे। 2014 में गिरफ्तारी के पहले भी पूछ-ताछ के नाम पर पुलिस ने कैंपस में साई के घर छापा मारा था। गिरफ्तारी की आशंका को खत्म करने के लिए तत्कालीन डूटा प्रेसीडेंट नंदिता नारायण के नेतृत्व में हम बहुत से शिक्षक और छात्रों का बहुत बड़ा हुजूम साईबाबा के घर पहुंचा था। छात्रों में साईबाबा की लोकप्रियता उल्लेखनीय है। साईबाबा की शहादत से शिक्षकों ने एक बेहतरीन साथी तथा छात्रों ने एक अच्छा शिक्षक खो दिया और समाज ने एक जनपक्षीय बुद्धिजीवी। साईबाबा आदिवासियों, दलितों, स्त्रियों तथा अन्य वंचित-शोषित तपकों के अधिकारों के पक्ष में हमेशा मुखर रहे। साईबाबा की शहादत असहमति के अभिव्यक्ति कादुस्साहसकरने वाले देश के जनतांत्रिक बुद्धिजीवियों को डराने के लिए सरकार का नसीहती संदेश है। 

 

16वीं शताब्दी के राजनैतिक दार्शनिक मैक्यावली केसमझदारप्रिंस (शासक) के आधिपत्य की बुनियाद भय पर टिकी है। उसका मानना है कि भय लोगों को एकजुट और वफादार बनाए रखने का सबसे विश्वसनीय माध्यम है। उसे लोगों की नर्भयता का भय होता है। जनकवि गोरख पाांडेय की एक कविता है, “वे डरते हैं कि एक दिन, निहत्थे और ग़रीब लोग उनसे डरना बंद कर देंगे। साईबाबा की शहादत  समाज को भयाक्रांत बनाने की व्यापक योजना की कड़ी है। एल्गर परिषद मामले में जनतांत्रिक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी उसी परियोजना का हिस्सा है। इस मामले में  साईबाबा की शहादत दूसरी शहादत है, पहली शहादत फादर स्टेन स्वामी ने दी। आदिवासियों के मानवाधिकार की लड़ाई के योद्धा, 84 साल के  स्टेनस्वामी को जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित कर जेल में ही शहीद कर दिया गया। उन्होने अदालती बयान में कहा था कि मेडिकल सुविधाओं के अभाव में उनकी मौत हो सकती थी। और हो गयी। 10 साल अमानवीय हालात वाले अंडा सेल में यातना तथा सुविधाओं की वंचना ने साईबाबा को मरणासन्न कर दिया था और हाईकोर्ट से बरी होकर, जेल से छूटने के 7 महीने बाद लगातार इलाज कराते हुए शहीद हुए।    

 

 साईबाबा की शहादत पिछली शताब्दी के महान जनपक्षीय  बुद्धिजीवी, एंटोनियो ग्राम्सी की शहादत की याद दिलाती है। ग्राम्सी की शहादत से अंतर्राष्ट्रीय, क्रांतिकारी बौद्धिक जगत में एक बड़ी रिक्तता आ गयी थी, साईबाबा की शहादत भारत के जनवादी और मानवाधिकारों के आंदोलनों के बौद्धिक जगत में एक रिक्तता आ गयी है।दोनों की मानवता की सेवा में आमजन के मानवाधिकारों के संघर्षों के योद्धा थे। ग्राम्सी और साईबाबा अलग-अलग समय और अलग अलग संदर्भों में मानवता की सेवा मानवाधिकारों की रक्षा के संघर्षों में शहीद हुए।   ग्राम्सी की भी हत्या नहीं की गयी थी, 10 साल जेल की यातना और अनिवार्य चिकित्सा सुविधाओं की वंचना से मरणासन्न कर छोड़ दिया गयी था और साल भीतर उनकी मृत्यु हो गयी। ग्राम्सी भी बचपन से ही बीमारियों के हमजोली रहे, लेकिन साईबाबा की तरह बचपन से ही पोलियो प्रकोप के चलते अपाहिज नहीं थे। प्रो. साईबाबा की भी हत्या नहीं हुई, उन्हें भी गिरफ्तार किया गया और 90% विकलांगता के बावजूद अनिवार्य चिकित्सकीय सुविधाओं से वंचित कर, अमानवीय हालात वाले, कुख्यात, अंडा सेल में डाल दिया गया।हत्या और बलात्कार के दोषी राम-रहीम को डेरा में सच्चा सौदा करने के लिए पेरोल मिलता रहता है, लेकिन साईबाबा को मत्युशैया पर पड़ी मां को देखने के लिए भी पेराल नहीं मिला।  अद्भुत न्याय है! ऐसा ही अद्भुत न्याय फासीवादी इटली के भी इतिहास में दर्ज है। 1926 में इटली के फासीवादी शासक मुसोलिनी पर हमले को बहाना बनाकर फासीवादी शासन ने आपातकालीन कानून बनाने-लागू करने का सिलसिला जारी किया और संसदीय कवच के बावजूद, एंटोनियो ग्राम्सी को गिप्तार कर लिया गया था। उस समय वे इटली के कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और इटली की संसद के सदस्य थे। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर साईबाबा को भाजपा सरकार ने 2014 में प्रतिबंधित माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े होने का आरोप लगाकर गिरफ्तार किया। 1926 में फासवादी सरकारी वकील ने अदलात में कहा था कि इस (ग्राम्सी के) दिमाग को अगले 20 सालों के लिए काम करने से रोक देना चाहिए। वे दिमाग को काम करने से नहीं रोक पाए, ग्राम्सी की जेलडायरी अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक समाज के लिए उनकी अमूल्य ऐतिहासिक विरासत है। सांसकृतिक वर्चस्व के सिद्धांत का प्रतिपादन उन्होंने जेल में ही किया। फासीवादी जेल में किताबों की सीमित सुलभता होती थी, यहां की जेलों में शायद वह भी नहीं है। साईबाबा ने जेल अंडा सेल की असंभव परिस्थितियों और क्या-क्या लिखा, उसका पता चलना अभी बाकी है, सोसल मीडिया पर प्रकाश में आई उनकी कुछ कविताएं मार्मिक हैं, खासकर मां के लिए लिखी कविताएं। 

  

जब 14 अक्टूबर, 2022 को बंबई हाईकोर्ट ने गढ़चिरौली के सत्र न्यायालय के उम्रकैद के फैसले को निरस्त कर प्रो. साईबाबा की रिहाई का फैसला दिया तो लगा था कि न्याय व्यवस्था में न्याय  की संभावनाएं बाकी हैं। लेकिन सरकार को इससे ऐसा झटका लगा कि फैसला आते ही, उसे रुकवाने हड़बड़ाहट में, तुरंत सुप्रीम कोर्ट पहुंची। सुप्रीमकोर्ट को भी एक 90% अपाहिज, साहित्य के प्रोफेसर की आजादी इतनी खतरनाक लगी कि अगले दिन शनिवार को विशेष बेंच गठित कर हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी। सरकार जानती थी कि साईबाबा अभिव्यक्ति के खतरे उठाने से बाज आने वालों में नहीं थे। और सर्वाधिकारवादी शासक को सबसे अधिक खौफ विचारों का होता है। सत्ता का भय होता है, विचारों का आतंक। विभिन्न देश-काल में सत्ताएं विचारों से आतंकित हो विचारकों की हत्या करती रही हैं, चाहे वह सुकरात हों या ब्रूनो, भगत सिंह हों या ग्राम्सी या फिर साईबाबा। लेकिन सत्ताएं यह नहीं जानतीं कि विचार मरते नहीं, फैलते हैं और इतिहास रचते हैं। कानूनी जानकारों का मानना है कि विशेष बेंच के गठन का प्रावधान अत्यंत गंभीर मामलों में आपातकालीन प्रावधान है। किसी राज्य की न्यायपालिका का चरित्र वही होता है जो राज्य का। मेडिकल आधार पर उनका नजरबंदी का आवेदन भी नामंजूर कर दिया गया। अपनी रिहाई पर रोक के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद साईबाबा ने पत्नी बसंता को पत्र लिखकर अपनी पीड़ा का बयान किया था।नागपुर में ठंड पड़ने लगी है, मेरी टांगों, हाथ और पेट का मांसपेशियों में ऐंठन होती है और असह्य पीड़ा। वैसे भी कोविड और फ्लू के दो दो दौरों के बाद शरीर बहुत कमजोर हो गया है। मेरी किडनी में पथरी हो गयी है और दिमाग में खून जम गया है, निमोनिया भी परेशान कर रही है। सरकारी मेडिकल अस्पताल के डाक्टरों की संस्तुति के बावजूद अनिवार्य मेडिकल सुविधाओं का कोई भी ध्यान नहीं दे रहा।उस समय वसंता ने बताया था कि अब साईबाबा पहले सा नहीं लिख पाते, एक पेज लिखने में पूरा दिन लगा देते हैं। साईबाबा को शहीद कर इस सरकार में मानवता की सेवा में हमारा एक दमदार सहयात्री छीन लिया। इतिहास साईबाबा की शहादत को मानवता के विरुद्ध एक  भीषण अपराध के रूप में याद करेगा। 2016 में फेसबुक पर साईबाबा की किसी खबर की एक पोस्ट पर तुकबंदी में एक कमेंट लिखा था, इस श्रद्धांजलि लेख का समापन उस तुकबंदी से करना अप्रासंगिक नहीं होगा। हम आपस में साईबाबा को पहिए की कुर्सी वाला प्रोफेसर कहते थे। 

 

पहिए की कुर्सी वाला प्रोफेसर खतरा है देश की सुरक्षा के लिए

माना नहीं उठा सकता बंदूक यह अपाहिज प्रोफेसर

पर दिमाग तो चला ही सकता है

और विचार बंदूक से ज्यादा खतरनाक होता है

सत्ता का भय होता है, विचारों का आतंक

 

सही है कि वह अपाहिज है और नहीं उठा सकता बंदूक

पर फिरा सकता है कम्यूटर के कीबोर्ड पर उंगलियां

और फैला सकता है खतरनाक विचार

वह भी बेहद खतरनाक

 आदिवासियों के भी मानवाधिकार के विचार

 

माना कि बंदूक नहीं उठा सकता

लेकिन पहिए की कुर्सी पर बैठे-बैठे पैदा कर सकता है विचार

सरकार चलाती है जब राष्ट्रवादी ग्रीनहंट अभियान

देने लगता है सेना के छोटे-मोटे अत्याचारों पर गंभीर बयान

इतना ही नहीं कश्मीरी मुसलमानों को भी इंसान मानता है

उनके  भी मानवाधिकार की बात करता है

राष्ट्र की अखंडता पर आघात करता है

माना कि भाग नहीं सकता पहिए की कुर्सी वाला प्रोफेसर

लेकिन मिलेगी नहीं जब तक जेल की प्रताड़ना

खतरनाक होती जाएगी बुद्धिजीवियों की चेतना

और देश की सुरक्षा के लिए सबसे खतरनाक है चिंतनशील इंसान

डरा सकता जिसे न कोई भूत न ही भगवान

करते रहेगे ये वैसे तो जेल में भी ग्राम्सी सी खुरापात

बर्दाश्त कर लेगा मगर राष्ट्रवाद उतनी उत्पात

(ईमिः31.03.2016)

 

जनपक्षीय बुद्धीजीवी प्रोफेसर साईबाबा की मानवता की सेवा में शहादत को सलाम। इंकिलाब जिंदाबाद। 





 

Wednesday, October 23, 2024

बेतरतीब 187 (अदम)

 Dinesh Dubey शुक्रिया, दिनेश भाई। अदम की मौत के बाद साहित्य जगत के बहुत से लोग उनके व्यक्तित्व पर फतवेाजी कर रहे थे, भावुकता में लिखा गया था, इसके बाद प्रतिरोध के स्वर के लिए, एक और लेख लिखा था। जब भी दिल्ली आते मुलाकात और बैठकी होती थी। आखिरी कुछ सालों में हमारी मित्रता हुत सघन हो गयी थी, लगभग रोज ही फोन पर बात होती। उनके गांव जाने का कार्यक्रम टलता रहा। अप्रैल, 2011 में एक बार उनके सम्मान में हिंदू कॉलेज में, इतिहासकार प्रो. डीएन झा की अध्यक्षता में , प्रो, रतनलाल के सौजन्य से एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। तब 23 दिन वहीं रुके थे। उन्होंने पद्य में ऐतिहासिक भौतिकवाद पर पुस्तिका लिखने को कहा था। पहला खं तो तभी लिखा गया था। दूसरे खंड के लिए बैठ नहीं पाया।

Friday, October 18, 2024

मार्क्सवाद 304 (वर्ग)

 सामाजिक चेतना पर एक विमर्श में किसी ने पूछा वर्ग क्या होता है?


वर्ग पर बहुत लिख चुका हूं। आपको टैग करके शेयर करूंगा। संक्षेप में, सभ्यता का इतिहास परजीवा और श्रमजीवी वर्गों और वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है, वर्गों के स्वरूप और चरित्र बदलते रहे हैं। जिस वर्ग का आर्थिक संसाधनों पर वर्चस्व रहता है, वह परजीवी, शासक वर्ग होता है और उसकी परजीविता पोसने वाला वर्ग शासित-शोषित वर्ग होता है। पूंजीवाद ने सामाजिक विभाजन को सरल बना दिया। पूरा समाज मूल रूप से दौ परस्पर विरोधी हितों वाले वर्गों में बंटा हुआ है -- पूंजीपति और सर्वहारा यानि मजदूर। मजदूर कौन है? पूंजीवाद ने श्रमिक को श्रम के साथन से मुक्त कर दिया। आजीविका के लिए हम सब अपनी अर्जित श्रमशक्ति बेचने के लिए अभिशप्त हैं। जो भी भौतिक या बौद्धिक श्रमशक्ति बेचकर आजीविका कमाता है वह मजदूर है, चाहे वह प्रोफेसर हो या कार्पेंटर।जिस तरह हिंदू जाति व्यवस्था जातियों का ऐसा पिरामिडाकार सामाजिक ढांचा है कि सबसे नीचे वाले को छोड़कर हर किसी को अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल ही जाता है, उसी तरह पूंजीवादी आर्थिक ढांचे में सबसे नीचे वाले को छोड़कर सबको अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल ही जाता है। सुविधासंपन्न मजदूर अपने को शासक वर्ग का समझने की मिथ्याचेतना का शिकार होता है। उसे लंपट बुर्जुआ कहा जाता है, लंपट सर्वहारा की ही तरह लंपट बुर्जुआ में शासक वर्ग का हित साधता है। नीचे एक 6 साल पहले लिखे लेख का लिंक शेयरकर रहा हूँ।

Monday, October 14, 2024

यह एक कम पढ़े लिखे इंसान की कहानी है

 यह एक कम पढ़े लिखे इंसान की कहानी है

जो शरीर और मन से हुत कमजोर था
लेकिन लफ्फाजी और नौटंकी में उसका बहुत जोर था
वह झूठ बहुत इत्मिनान से बोलता था
रो रो कर देश की कसमें खाता और चिल्लाता था
नराधम के साथ बहुत बड़ा हरामखोर तथा चंदाचोर था
वह जर्मनी का बाशिंदा था, नाम था उसका हिटलर
विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार हुई थी जमकर
उसने सोचा उठाएगा वह फायदा वह इस विपदा का जमकर
हुआ वह उस पार्टी में शामिल नाम था जिसका राष्ट्रवादी समाजवादी
नेता थे जिसके सब बुजुर्ग और माली हालत थी जर्जर
धिवशुओं की दलाली से उसने जमा किया खूब चंदा
लफ्फाजी से बन गया वह पार्टी का नायाब नुमाइंदा
किया बुजुर्गनेताओं को शातिरपने से दरकिनार
डाल दिए जिन्होंने आसानी से हथियार
उठाकर फायदा विपक्ष के आपसी रंजिश का
बन गया वह जर्मनी का चांसलर
लगवाया उसने नारे हेल हिटलर
लगवाकर आग संसद में आरोप लगाया विपक्षियों पर
और ठूंस दिया उन्हें जेल के अंदर
फैलाया उसने नफरत अल्पसंख्यकों के धर्म के खिलाफ

धनपशुओं की मदद से उसने किया अपना खूब प्रचार
लगवाकर संसद में आग

मार्क्सवाद 303 (जेपी)

 Prof. Gopeshwar Singh की पोस्ट, उसपर 3 कमेंट के साथ।


1934-42 का दौर राजनैति-बौद्धिक क्रियाकलापों की दृष्टि से सबसे अच्छा दौर था राजनैतिक विभ्रम की स्थिति 1960 के दशक के अंत तक चरम पर पहुंच चुकी थी तथा बिहार छात्र आंदोलन के समय तक वे अपरिभाषित सर्वोदयी भ्रम जाल में पंसकर राजनैतिक रूप से लगभग अप्रासंगिक हो चुके थे । 1972 में जेएनयू सिटी सेंटर (35 फिरोजशाह रोड) में उनकी एक 35-40 लोग थे। छात्र आंदोलन को एक जेपी जैसे बड़े कद का नेता चाहिए था और बिहार छात्र आंदोलन जेपी आंदोलन बन गया और आरएसएस के सहयोग से जेपी ने अपरिभाषित संपूर्णक्रांति का नारा दिया । मैंने भी संपूर्ण क्रांति करते हुए कुछ दिन की जेलयात्रा की थी। संपूर्ण क्रांति का और जो भी परिणाम रहा, जनता पार्टी के हिस्से जनसंघ के जरिए आरएसएस को सामाजिक स्वीकार्यता मिली और उसके काफी कार्यकर्ता मीडिया और तमाम महकमों में घुसपैठ बना सके। 1980 में अपरिभाषित गांधीवादी समाजवाद को वैचारिक धुरी घोषित कर बनी भाजपा ने1984 से अयोध्या को मुद्दा बना आक्रामक सांप्रदायिक लामबंदी शुरू कर दी।

Gopeshwar Singh
Ish N. Mishra संघ ने अपना एजेंडा सेट किया लेकिन समाजवादी जमात ने आगे आकर कुछ क्यों नहीं किया? उस आंदोलन में सीपीएम भी समर्थन में था। उसका लाभ उसे बंगाल चुनाव में मिला
। लगभग तीन दशक उनकी सत्ता रही। वे क्यों असफल हुए?
हमें आत्मावलोकन की जरूरत है।

Gopeshwar Singh बिल्कुल सही कह रहे हैं, कल हम लोग यही बात कर रहे थे कि देश-समाज की आज की दुर्दशा का सर्वाधिक 'श्रेय' इस देश के कम्युनिस्ट-सोसलिस्टों के अकर्म-कुकर्मों को जाता है। 1967 में पहली बार आरएसएस की संसदीय शाखा, जनसंघ को लोहिया-दीनदयाल समझौते के तहत संविद सरकारों में हिस्सेदारी से पांव पसारने का मौका मिला लेकिन संविद सरकारों में सोसलिस्ट ही नहीं कम्युनिस्ट (सीपीआई) भी थी। 1964 में संशोधनवाद के मुद्दे पर सीपाआई से टूटकर बनी सीपीएम तीन ही साल में उससे बड़ी संशोधनवादी पार्टी बन गयी। जेपी आंदोलन एक जनांदोलन था और मार्क्स की माने तो जनता के मुद्दे से अलग कम्युनिस्ट का कोई अपना मुद्दा नहीं होता। सीपीआई कांग्रेस का पुछल्ला बनी थी और सीपीएम एक कदम आगे-दो कदम पीछे की वैचारिक कसरत में लगी थी, अतिक्रांतिकारी सत्तर के दशक को मुक्ति का दशक घोषित करने में। मैंने 1985 में एक पेपर लिखा था, COnstitutionalism in Communist Movent of India जिसमें यह बात रेखांकिित की थी कि क्रांतिकारी विचारों के प्रसार या सामाजिक चेतना के जनवादी करण के साधन रूप में अपनाई गयी चुनावी नीति साध्य बन गयी। मार्क्स ने हेगेल की प्रस्थापना को उलट कर सर से पांव के बल खड़ा कर दिया था। भारतीय कम्युनिस्टों ने मार्क्स को उलट कर सिर के ल खड़ा कर दिया। कम्युनिस्ट पार्टी, ग्राम्सी के शब्दों मे Moden Prince राजनैतिक शिक्षा के अपने दायित्व में पूर्णतः असफल रही। यह अपने संख्याबल को जनबल में तब्दील करने में बिल्कुल नाकाम रही और पार्टी लाइन से हांका जाने वाला इनका संख्याबल भाजपा या टीएमसी का संख्याबल बन गया। आत्मालोचना मार्क्सवाद की प्रमुख अवधारणा है, जिसे कम्युनिस्ट पार्टियों ने फ्रेम कराकर अपने दफ्तरों में फूल-माला चढ़ाने के लिए टांग दिया है। वैसे दुनिया भर में पूंजीवाद ही नहीं सिद्धांत के संकट से गुजर रहा है, उसका विकल्प समाजवाद भी सिद्धांत के संकट से गुजर रहा है। जाने-माने मार्क्सवादी इतिहासकार, एरिक हॉब्सबाम ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में दुनिया के तम्युनिस्ट नेताओं को फिर से मार्क्स पढ़ने की सलाह दी थी, शायद कभी वे उनकी सलाह मान अपना पुनरुत्थान कर सकें। रोजा लक्जरबर्ग ने 1918 में 1917 की रूसी क्रांति पर लिखे अपने विश्लेषण में लिखा था कि रूस की तत्कालीन विशिष्ट परिस्थितियों में अपनाई गयी नीतियों को अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति की नीति नहीं बनाया जा सकता, लेकिन कॉमिन्टर्न निर्दिष्ट कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद को method के रूप में न अपनाकर model के रूप में अपना लिया। और उसके चलते अगली क्रांति की बजाय प्रतिक्रांति हो गयी। अगली क्रांति का इंतजार करना है।

Wednesday, October 9, 2024

सीताराम येचूरी

 स्मृति शेष

एक जनवादी बुद्धिजीवी की राजनैतिक यात्रा

ईश मिश्र


12 सितंबर 2024 को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के महासचिव सीताराम येचुरी ने धरती को अलविदा कर दिया। उनके निधन से भारत की  संसदीय  वामपंथी राजनीति में एक तत्कालिक निर्वात पैदा हो गया है। वे सांप्रदायिक एकाधिकारवादी राजनीति के विरुद्ध राजनैतिक लामबंदी के एक अहम किरदार थे।  उनकी याद में दिल्ली और देश भर में सभाओं का सिलसिला जारी है। दिल्ली में,  प्रेस क्लब की लॉन में,  कल (21 सितंबर, 2024) जेएनयू के पहले दशक के छात्रों के एक समूह द्वारा आयोजित विशाल सभा में, उन्हें  जेएनयू छासंघ के निवर्तमान अध्यक्षों ने उनसे जुड़ी यादें  शेयर कर श्रद्धांजलि दी। 28 सितंबर को उनकी याद में तालकटोरा सेटेडियम में होने वाली सभा में हजारों की मौजूदगी का अंदाजा लगाया जा रहा है। कल की सभा में जेएनयू छात्रसंघ उनके एक पूर्ववर्ती अध्यक्ष और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के उनके पूर्ववर्ती महासचिव प्रकाश करात ने जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता तथा देश के संघीय ढांचे की सुरक्षा की लड़ाई के अथक योद्धा के रूप में उन्हे याद करते हुए कहा कि सीताराम ने जेएनयू में जो सीखा, राष्ट्रीय नेता के रूप में उस पर अमल किया।  एक विचार के रूप में जेएनयू की रक्षा और सुरक्षा में योगदान ही सीता के प्रति सही श्रद्धांजलि होगी। जेएनयू के अपने समकालीनों में सीताराम यचूरी सीता नाम से ही जाने जाते थे। 2016 में राष्ट्रद्रोह का अड्डा बताकर जेएनयू पर पुलिसिया हमला और उसके विरुद्ध  जेएनयू आंदोलन के समय से ही विचार-विमर्श आधारित जेएनयू की जनतांत्रिक शैक्षणिक संस्कृति सरकार और संघ परिवार के निशाने पर है। मरणोपरांत उनका पार्थिव शरीर, 13 सितंबर को जेएनयू ले जाया गया जहां भारी संख्या में छात्र-शिक्षक-कर्मचारियों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी। सीता जेएनयू के पहले दशक में छात्रसंघ अध्यक्ष थे और उस समय संघर्षों में नारा लगता था, ‘छात्र-शिक्षक कर्मचारी एकता ‘जिंदाबाद’। सीता सांप्रदायिक अधिनायकवाद के विरुद्ध जनतांत्रिक ताकतों की एकजुटता की राजनीति के एक प्रमुख रणनीतिकार के रूप में जाने जाते थे। 1996 में संयुक्त मोर्चा की सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम का मसौदा तैयार करने में उनकी अहम भूमिका थी। वे भाजपा के नेतत्व में सांप्रदायिक एकाधिकारवादी शासन के विरुद्ध भारतीय राष्ट्रीय विकासोंमुख समावेशी गठबंधन (इंडिआ) की लामबंदी के भी प्रमुख किरदार थे। सीता राम येचूरी जेएनयू के एकमात्र ऐसे छात्र नेता थे, जो, विशिष्ट परिस्थितियों में ही सही, तीन बार छासंघ के अध्यक्ष चुने गए। सीपीएम के महासचिव के रूप में यह उनका तीसरा कार्यकाल था, जो उनकी असामयिक मृत्यु से अधूरा ही रह गया। पहली बार 2015 में वे सीपीएम की 21 वीं पार्टी कांग्रेस में महासचिव चुने गए थे तथा दूसरी और तीसरी बार, क्रमशः 22वीं (2018) और 23वीं (2022) पार्टी कांग्रेसों में। प्रकाश करात के बाद वे ही जेएनयू के एक ऐसे छात्र नेता थे जो किसी राष्ट्रीय पार्टी के सर्वोच्च पदाधिकारी बने, वह भी लगातार तीन बार। यह अलग बात है कि उन्होंने जब पार्टी की बागडोर संभाला तो पार्टी की स्थिति डांवाडोल हो चुकी थी। पश्चिम बंगाल का किला ढह चुका था तथा त्रिपुरा का ढहने वाला था।  अपने अकर्मों के चलते भारत में कम्युनिस्ट संसदीय प्रभाव के क्षीण होने पर विमर्श की यहां न तो गुंजाइश है, न ही जरूरत। सीताराम के नेतृत्व ने वस्तुस्थिति को स्वीकार कर गैर-सांप्रदायिक संसदीय पार्टियों के गठबंधन की राजनीति को तरजीह दी। 1996 में वे संयुक्त मोर्चा सरकार में ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने के पक्षधर थे लेकिन पार्टी की केंद्रीय समिति ने इसे नकार दिया।    


सीता 2005 से 2017 तक पश्चिम बंगाल से राज्य सभा सदस्य रहे। 2012 में जब उनसे पहले जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे, डीपी त्रिपाठी महाराष्ट्र से एनसीपी के राज्य सभा के सदस्य चुने गए तो संयोग से फिरोजशाह रोड पर दोनों के सांसद आवास अगल-बगल थे। हम लोगों के समकालीन जेएनयू वाला कोई उनमें से किसी के यहां जब कोई उत्सव आयोजित करता तो दोनों के लॉन एक हो जाते थे। 1983 में त्रिपाठी जी सीपीएम से कांग्रेस में चले गए थे और वहां से एनसीपी में। वे एनसीपी के सांसद थे। अलगअलग पार्टियों में होने के बावजूद उनके निजी संबंध मित्रवत बने रहे। त्रिपाठी जी का 4 साल पहले कैंसर से देहांत हो गया। आपातकाल के बाद, 1977 में जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव में एसएफआई के अध्यक्षीय उम्मीदवार के रूप में सीताराम के चयन में त्रिपाठी जी की निर्णायक भूमिका थी। त्रिपाठी जी जेएनयू छात्रसंघ के उनके पूर्ववर्ती अध्यक्ष थे जिनके कार्यकाल का काफी समय आपातकाल में भूमिगत सक्रियता और  तिहाड़ जेल में बीता। जेएनयू एसएफआई में त्रिपाठी गॉडफादर समझे जातेथे। आपातकाल में भूमिगत रहने की  संभावनाओं की तलाश में, मैं अगस्त, 1976 इलाहाबाद से दिल्ली आया और इलाहाबाद  के परिचय के आधार पर त्रिपाठी जी को खोजते जेएनयू पहुंच  गया,   इलाहाबाद में वे वियोगी नाम से जाने जाते थे।वे तो तिहाड़ जेल में होने के नाते नहीं मिले लेकिन उनके प्रिय कॉमरेड सीताराम येचूरी का पड़ोसी होने का मौका मिल गया। त्रिपाठी जी के बारे में पूछताछ के दौरान इलाहाबाद के एक अन्य सीनियर, रमाशंकर सिंह से परिचय हुआ, जिन्होने अपने कमरे में आश्रय की पेशकश की। वे गंगा हॉस्टल के कमरा नंबर 323 में रहते थे और सीता 325 में। तब पता नहीं था कि सीता जेएनयू छात्रसंघ भावी अध्येक्ष था लेकिन उसका सादगीपूर्ण,  विनम्र, समानता का वर्ताव जेएनयू संस्कृति का द्योतक था और एक साल की वरिष्ठता से सर की उपाधि वाली इलाबाद विश्वविद्यालय   के सामंती संस्कृति से आने वाले छात्र के लिए सुखद सांस्कृतिक शॉक। चारमीनार सिगरेट पीने वाले सीताराम उस समय अर्थशास्त्र में पीएचडी के छात्र थे और मुझे छात्र बनने के लिए आपातकाल की समाप्ति का इंतजार। बीए प्रथम वर्ष वाला छात्र पीएचडी के छात्र से तुम के संबोधन से बात कर सकता था। सीता और जेएनयू ने कभी भी मुझे बाहरी या अवांछित होने का एहसास नहीं होने दिया। जेएनयू पहुंचने के पहले ही मार्क्सवाद की बारीकियां जाने बिना ही मैं अपने को मार्क्सवादी समझने लगा था, सीता से बातचीत से मुझमें मार्क्सवादी राजनैतिक अर्थशास्त्र की थोड़ी समझ आना शुरू हुई। सीता को श्रद्धांजलि देने वालों में कुछ लोगों ने गलत लिखा है कि वे आपातकाल में गिरफ्तारी के चलते पीएचडी नहीं कर पाए। आपातकाल में सीताराम गिरफ्तार जरूर हुए थे, लेकिन जल्दी ही छूट गए थे। तीन बार जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहने के बाद सीपीएम की राष्ट्रीय राजनीति में उनका दखल बढ़ता गया और पार्टी की राष्ट्रीय राजनैतिक में व्यस्तताओं के चलते वे पीएचडी पूरी न कर सके। उनकी प्राथमिकता पीएचडी पूरी करना न होकर पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति बन गयी।  

 

1977 में आपातकाल खत्म होने के बाद डीपी त्रिपाठी जेल से छूटकर आए तो सभी विचारों के छात्रों ने छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में उनका भव्य स्वागत किया। जेएनयू में अक्टूबर में चुनाव होते थे, त्रिपाठी जी और एसएफआई आपातकालीन छात्रसंघ की निरंतरता के पक्षधर थे। फ्रीथिंकर्स चुनाव के पक्षधर थे। चुनाव को लेकर जनमत संग्रह हुआ और चुनाव चाहने वालों की जीत हुई। एसएफआई में अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी के एक और दावेदार थे दिलीप उपाध्याय (दिवंगत), त्रिपाठी जी के नेतृत्व में संगठन ने सीताराम की उम्मीदवारी पर मुहर लगा दी। फ्रीथिंकर उम्मीदवार एन राजाराम थे। पूरा परिसर सीताराम-राजाराम के हस्तलिखित पोस्टरों से भर गया। बिना सरकार या विश्वविद्यालय प्रशासन की दखल के छात्रों द्वारा निर्वाचित चुनाव आयोग द्वारा चुनाव संचालन एक अनूठी बात लगी। जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव के अनूठेपन की चर्चा की यहां गुंजाइश नहीं है, सीताराम भारी मतों से चुनाव जीत गए। अध्यक्ष का चुनाव सीधे होता था बाकी पदाधिकारियों का चुनाव हर स्कूल से निर्वाचित पार्षद (कौंसिलर) करते थे। अप्रैल 1977 में संपन्न इस  छात्रसंघ का कार्यकाल अधूरा था, इसलिए अक्टूबर, 1977 के चुनाव में दुबारा सीता ही एसएफआई के अध्यक्षीय उम्मीदवार बने और जीते। इसी छात्रसंघ के कार्यकाल में कैंपस में मार-पीट की एक घटना हुई, जिसे लेकर शाम से शुरू अगले दिन सुबह तक  चली आमसभा (जीबीएम) के बाद हुए मतदान में छात्रसंघ का प्रस्ताव बहुमत से खारिज हो गया और नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्रिपाठी जी ने सीताराम की अध्यक्षता के छात्रसंघ के इस्तीफे की घोषणा कर दी। उसके बाद के चुनाव में सीताराम फिर उम्मीदवार बने  ओऔर जीते।  इसी छात्रसंघ के कार्यकाल में छात्रसंघ के संविधान में संशोधन किया गया और सभी पदाधिकारियों का प्रत्यक्ष चुनाव होने लगा। 


1980 में संगठन की कार्यप्रणाली को लेकर एसएफआई में टूट हो गयी, हम कुछ लोगों ने टूटकर अलग संगठन बनाया आरएसएफआई (रिबेल एसएफआई) और एसएफआई के बहुत लोग हमलोगों के प्रति कटुता पाल लिए, लेकिन सीता का बर्ताव मित्रतापूर्ण बना रहा। राष्ट्रीय राजनीति में बड़े कद के बावजूद सीता जहां भी मिलते थे उसी तरह सहज मित्रता भाव से।      


19 अगस्त को पहले दशक कजेएनयूआइट्स के व्हाट्सअप ग्रुप से पता चला कि, सीताराम येचूरी निमोनिया के इलाज के लिए आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) में भर्ती हुए। तब से  ग्रुप में उनके स्वास्थ्य का सरोकार संवाद का मुख्य विषय बना रहा। हम सब को उसके ठीक होने की उम्मीदें थीं, डॉक्टर भी उम्मीद दिला रहे थे। लेकिन 12 सितंबर को उनके दहांत की खबर ने हमारे होश उड़ा दिया। किसी करीबी, समकालिक की श्रद्धांजलि लिखना बहुत मुश्किल लगता है। उसके न होने की अनुभूति हृदय- विदारक होती है। ऐसी ही मनोस्थिति 35 साल पहले जेएनयू के ही साथी, जनकवि गोरख पांडेय की श्रद्धांजलि लिखने में हुई थी, दुनिया को जागते रहने की गुहार लगाते-लगाते वे एक शाम पंखे से लटककर हमेशा के लिए सो गए और पीछे छोड़ गए, आने वाली पीढ़ियों के लिए क्रांतिकारी गीतो और कविताओं की समृृद्ध विरासत। गोरख आमजन के जैविक जनकवि थे तथा सीताराम आमजन के जनतांत्रिक बुद्धिजीवी। वे अपनी पार्टी के सर्वोच्च नेता (महासचिव)और प्रमुख विचारक तथा सांप्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा की रणनीति के प्रमुख सिद्धांतकार थे। उनके न रहने से फासीवाद विरोधी राजनीति में एक बौद्धिक रिक्तता तो पैदा ही हो गयी है। आजीवन जनहित की राजनीति करने के बाद अंत्येष्ट के कर्मकांड को धता बताते हुए कॉमरेड सीताराम येचूरी ने मरणोपरांत अपना पार्थिव शरीर छात्रों को सोध के लिए एम्स को दान कर दिया।

इन्हीं शब्दों के साथ कॉमरेड सीताराम येचूरी को श्रद्धांजलि और अंतिम लाल सलाम अर्पित करता हूं।   



Tuesday, October 8, 2024

शिक्षा और ज्ञान 357 (पूंजीवाद का उदय और विकास)

 मित्र, Kumar Narendra Singh की जलेबी उद्योग की एक पोस्ट पर कमेंट:


कारीगरों के छोटे-छोटे काखानों को हड़प कर; उन्हें मजदूर बनाकर ; उन्ही की कारीगरी से छोटे कारखानों को उद्योग नाकर सरकार के कृपापात्र धनपशु एकाधिकार (मोनोपोली) उद्योगपति बन गए। पूंजीवाद के उदय-विकास की प्रक्रिया जारी है। लेकिन जब मजदूर इनकी चाल समझ जाएंगे और वर्ग-चेतना से लैश अपनी संगठित शक्ति से अपनी संपत्ति यानि इन उद्योगों पर अपना वापस अपना अधिकार कायम करेंगे तो इन धनपशुओं को भी आजीविका के लिए श्रम करना पड़ेगा। इसका कोई अग्रिम टाइमटेबुल नहीं तैयार किया जा सकता कि वह दिन कब आएगा, लेकिन आएगा ही और वह दिन मानव-मुक्ति की प्रक्रिया की शुरुआत का दिन होगा क्योंकि मजदूर की मुत्ति में ही मानव मुक्ति निहित है। शासक वर्ग के भोंपू इसे यूटोपिया कहेंगे क्योंकि कोई आदर्श जबतक मूर्तिरूप नहीं ले लेता तब तक यूटोपिया लगता है और मूर्तिरूप लेते ही इनभोपुओं को कल्चरल शॉक देता है। 42 साल पहले मुझे स्कूल से आगे अपनी बहन के पढ़ने के अधिकार के लिए संघर्ष करना पड़ा था क्योंकि उस सांस्कतिक परिवेश में लड़कियों का बाहर पढ़ने जाना एक यूटोपिया था। आज किसी बाप की औकात नहीं है कि कह दे कि वह बेटी-बेटा में फर्क करता है, यह अलग बात है कि एक बेटे के लिए 4 बेटियां भले पैदा कर ले।

Friday, September 27, 2024

जन्मदिन मुबारक हो साथी भगत सिंह

 जन्मदिन मुबारक हो साथी भगत सिंह

वैसे तो निरापद नहीं है
तुम्हें याद करना आज के भारत में
क्योंकि इंकिलाब जिंदाबाद
का नारा लगाए बिना तुम्हें याद नहीं किया जा सकता
तुमने जब यह नारा लगाते हुए
फांसी का फंदा चूमा था मौत को हराने के लिए
तब इसे राजद्रोह माना गया था
आज यह देशद्रोह बन गया है
जिसके लिए जेलों में बंद कर दिए गए हैं
न जाने कितने उमर खालिद
फिर भी लगाना ही पड़ेगा यह नारा
तुम्हें लाल सलाम कहने के लिए
इंकिलाब जिंदाबाद

Wednesday, September 25, 2024

आतिशी

 मैंने अन्ना हजारे के प्रायोजित आंदोलन के समय एक आलोचनात्मक लेख लिखा था, माले समेत तमाम लोगों ने उसकी आलोचना की थी। जब आप बनी तो मैंने लिखा था कि यदि इसके राजनैतिक तत्व, आनंद कुमार, प्रशांत भूषण, बल्ली, कमल चेनॉय जैसे लोग प्रभावशाली हुए तो यह आप में एक जनतांत्रिक संसदीय पार्टी की संभावनाएं थीं वरना यह अन्ना. किरन बेदी, केजरीवाल टाइप लोगों के नेतृत्व में एनजीओ टाइप पार्टी बनकर रह जाएगी। केजरीवाल ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत आरक्षण विरोधी वाईएफई शगूफेबाजी से की थी। मोदी की राजनीति जयश्रीराम की है और केजरीवाल की जय हनुमान की। आतिशी से इतना गिरने की उम्मीद नहीं थी । उसे मैं बचपन में जानता था, उसके मां-बाप (डॉय त्रिप्ता वाही-विजय सिंह) सीपीएम विरोधी कम्युनिस्ट थे/ हैं। पहले तो वह मार्क्स-लेनिन से व्युत्पन्न सरनेम मारलेना को पिता के सरनेम सिंह से बदला और अब राम (केजरीवाल) की भरत बन गयी। चुनावी राजनीति के दांव-पेंच जो न करवाए। राम के भरत के रूप में अवतरण की यह घोषणा उसने उस जगह बैठकर की जिसके पीछे केंद्र में सत्यमेव जयते के राष्ट्रीय चिन्ह (अशोक के शेर) लगा है और दोनों तरफ क्रमशः अंबेडकर और भगत सिंह की तस्वीरें। भगत सिंह नास्तिक थे और अंबेडकर बौद्ध।

Friday, September 20, 2024

ईश्वर

ईश्वर को केवल झूठ और झूठे लोग ही पसंद हैं


क्योंकि झूठे लोगों ने अपने झूठ को सच साबित करने के लिए ही


ईश्वर को गढ़ा
और लगा दिए अपने सारे संसाधन

यह झूठ फैलाने में कि ईश्वर मनुष्य को गढ़ता है

किसी को मष्तिष्क से, किसी को भुजाओं से,


किसी को उदर से तो किसी को पांव से।

Wednesday, September 18, 2024

बेतरतीब 186(गौहाटी)

अभी उत्तरपूर्व भारत के परिप्रेक्ष्य में 2024 के चुनाव की रुझानों पर गौहाटी यूनिवर्सिटी के दक्षिणपूर्व एसिया अध्ययन केंद्र द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में भागीदारी का मौका मिला। दो दिन (12-13 सितंबर) के सम्मेलन में प्रकाकांतर से विमर्श में अस्मिता की राजनीति छाई रही। अस्मिता की कई पर्तें हैं, कौन पर्त किस समूह या संगठन में निर्धारक या निर्णायक होती है, वही किसी विशिष्ट अस्मिता- राजनीति के गतिविज्ञान के नियम व सिद्धांत तय करती है। सभी तरह की अस्मि-तारानीति के आधार संकीर्ण होते हैं और विवेकशील मनुष्य के रूप में मनुष्यता की बुनियादी अस्मिता पर आघात करते हैं। हमारे आदिम पूर्वजों ने विवेक के इस्तेमाल से श्रम-शक्ति हासिल कर अपनी आजीविका के उत्पादन-पुनरुत्पादन से खुद को पशुकुल से अलग किया था। अतःः बुनियादी अस्मिता का आधार विवेक और तार्किकता है। इसके उलट, हर प्रकार अस्मिता-राजनीति का आधार आस्था तथा पूर्वाग्रह हैं। यदि विवेक और तार्किकता को मानवीय अस्मिता का आधार मान लिया जाए तो अस्मिताओं के टकराव के विद्वेष तथा नफरत या मणिपुर जैसा खूनखराबा अनावश्यक हो जाए। मेघालय में एक नई पार्टी बनी है, वीपीपी (वायस ऑफ पिपुल पार्टी) सम्मेलन में भाग ले रहे उसके एक विधायक ने अपनी पार्टी के समावेशी बहुसंख्यवाद (inclusive majoritarianism) के सिद्धांत की हिमायत की। ये युवा विधायक शिलांग के एक कॉलेज में शिक्षक हैं। इनकी अस्मिता राजनीति खासी-जयंतिया अस्मिता है। इनका कहना है कि इनका बहुसंख्यकवाद अल्पसंख्यक जनजाति गारो तथा प्रवासी मेघालयी लोगों के हितों का भी ध्यान रखती है। समावेशी बहुसंख्यकवाद कब विशिष्ट बहुसंख्यकवाद बन जाए कुछ कहा नहीं जा सकता,हिंदुत्व सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद भी तो सबका साथ-सबका विकास की बात करता है। मणिपुर यूनिवर्सिटी के एक युवा प्रोफेसर की दो संताने हैं. एक बेटा. एक बेटी। वे पशोपश में हैं कि तीसरी संतान पैदा करें कि नहीं? इस पशोपश की बुनियाद में है मणिपुर में मैती जनजाति की आबादी का विस्तार। ये प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू से पढ़कर गए हैं। जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से ऊपर उठकर मनुष्यता की अस्मिता की जरूरत है।