ऐसा नहीं है कि नाज़ी जर्मनी में हिटलर के उभार के दौरान सबकी बुद्धि को लकवा मार गया था. वहां साहित्यकार भी थे, मीडिया भी था, साइंटिस्ट थे, प्रोफेसर थे लेकिन बावजूद इसके एक औसत आदमी सिर्फ प्रोपेगेंडा करते हुए उनका नेता बन गया. इसमें हिटलर का बोलने का हुनर जितना काम आया उतना ही निर्णायक शक्ति लिए बैठे वर्ग की चुप्पी काम आई. हिटलर को वॉक ओवर दिया गया.. सिर्फ इसलिए क्योंकि हर इंसान उसके उभार में अपना फायदा देख रहा था. जिन्हें फायदा ना था वो इसलिए ही मूक रहे क्योंकि विकल्प के नाम पर वही बूढ़े ओर करप्ट नेता चुने नहीं जा सकते थे. उस वक्त संविधान या इंसानियत पीछे छूट गए थे. अपने घरों में काम करनेवाले यहूदियों को सबने मौन होकर यातना शिविरों में जाते देखा. जो खिलाफ बोला वो गद्दार कहलाकर सड़कों पर पीटा गया क्योंकि हिटलर अब जर्मनी का पर्यायवाची बन गया था. हिटलर ने सपने दिखाकर अभियान छेड़े. लोगों ने भरोसा किया. हिटलर ने जर्मन सेना की विजय की झूठी कहानियां गढ़ीं लोग भरोसा करते रहे.. हिटलर ने खिलाफ बोलनेवालों को ईश्वरीय भय दिखाया और लोग मान गए. आखिर में बिन परिवार का हिटलर जर्मनी को ज़ख्मी छोड़ झोला उठाकर चल दिया, जनता के नहीं सोवियत सेना के डर से बंकर में छिपकर खुदकुशी करने.
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