6 साल पहले एक पोस्ट पर अपने एक स्टूडेंट के एक कमेंट का जवाब (कॉपी-पेस्ट)
गलत सही का कोई साश्वत नियम नहीं है. सत्य प्रमाण मांगता है. खास परिस्थिति में विवेक के इस्तेमाल से, तथ्य-तर्कों के आधार पर, सही गलत का निर्णय लिया जाता है, आस्था या सामाजिक आदत के आधार पर नहीं. कोई भी बात प्रमाणित होने तक असत्य है.मैं, तुम जानते हो, किसी चीज को अकारण गलत सही नहीं कहता. मैं यह नहीं कहता क्लास में मत खड़े हो. कोई भी कर्म तभी सार्थक कर्म होता है जब वह सुवाचारित, सकारण हो. यदि तुम्हारे पास पुरुखों से रटा-रटाया नहीं अपना विवेक सम्मत औचित्य हो तो खड़े हो. मैं चरणस्पर्श को अभिवादन के आदान प्रदान का प्रतिक्रियावादी, सामंती तरीका मानता हूं. यह बड़े-छोटे; ऊंच-नीच के बीच अभिवादन मानता हूं और समानता के औचित्य ही नहीं उसके सुख पर भी जोर देता हूं. विधवा आश्रम की ही तरह, पैरों पर गिर कर या जमीन पर लंबलेट होकर, अभिवादन की पद्धति महज ब्रह्मण परंपरा में है क्योंकि इस परंपरा में लोग पैदा ही छोटे-बड़े होते हैं. चरणस्पर्श की नैतिकता विरासत में मिली नैतिकता है, विवेक से अर्जित नैतिकता नहीं है. और जानते ही हो विवेक ही मनुष्य को पशुकुल से अलग करता है. पारंपरिक नैतिकता सर पर पुरखों की लाशों के बोझ की तरह होती है जिससे बहुत लोग इतना दब जाते हैं कि सीधे खड़े होने में असमर्थ हो जाते हैं. यह दार्शनिक नहीं एक वैज्ञानिक वक्तव्य है.
22.03.2017
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