Sunday, March 12, 2023

शिक्षा और ज्ञान 398 (संविधानेतर गिरफ्तारियां)

 पिछले साल की पोस्ट


अगर आपको 35 साल तक किसी अंधेरी अंधी सुरंग में रहना पड़े... और दफ्तअन, एक दिन कहा जाए कि जाओ अपनी रोशनी वाली ज़िन्दगी में लौट जाओ, और आप 12775 दिन का यह तवील फासला तय कर अपने शहर के अपने मोहल्ले में अपने घर लौटें तो क्या पाएंगे? और क्या महसूस करेंगे? आपको अपना ही शहर किस कदर अनजाना लगेगा? आपको अपना मोहल्ला पहचानने में कितना वक्त लगेगा? आपको अपने ही घर का चौखट कितना क़रीब और कितना अजनबी लगेगा?

सत्ता और सियासत की अपनी रणनीति होती है... क्या पता कब कौन उसका मोहरा बन जाए! कब रात के अंधेरे में आपका या मेरा दरवाज़ा खटखटाए...और जब आप इस दरवाज़े से बाहर जाएं तो दरवाज़ा 20-20, 30-30 साल तक आपके आने का इंतज़ार करने के लिए शापित हो जाए!

ऐसे मकान सैकड़ों हैं जो साल दर साल अपने मकीन का इंतज़ार कर रहे हैं।

ऐसे ही ये सिख भाई हैं जो 35 बरस लंबा अंधेरा काट कर लौटे हैं। उन्हें बेकसूर ठहराया गया है। अगर एक नहीं, दो नहीं, 30-30 लोग 35-35 साल खोते हैं तो इसके लिए किसी को - पुलिस को, सियासत को, इस सिस्टम को, इस निज़ाम को, किसी तो कसूरवार ठहराया जाना चाहिए...किसी को तो इंसाफ के कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए? किसी को तो सज़ा मिलनी चाहिए? या फिर सिर्फ़ बेकसूर सीधे सादे लोग ही सज़ा पाते रहें?

सोचें, चर्चा करें, कोई कदम उठाएं। इसलिए भी कि सत्ता अब यह खेल खूब खेल रही है।

यह राज्य के हाथों अन्याय के अनगिनत मामलों में एक है। कितने ही ऐसे मामले हैं जिसमें आतंकवाद के आरोप में 10-12, 15-20 साल जेल में बिताकर निर्दोष छूटते हैं। लाजपत नगर मामले या जयपुर मामले में ठोस सबूत के आधार पर पकड़े गए लड़के सालों जेल की जिल्लत के बाद निर्दोष पाए गए। बटाला हाउस के फर्जी एंकाउंटर में मारे गए या पकड़े गए आजमगढ़ के लड़कों का पता नहीं क्या होगा, कब निर्दोष पाए जाएंगे.....। ऐसे मामलों में न तो कोई क्षतिपूर्ति मिलती है न कोई दोषी पाया जाता है। यह सभी पूंजीवादी जनतंत्रों में ऐसा ही होता है। अमेरिका में मेकार्थिज्म के तहत कस्युुनिस्ट एजंट होने के आरेप में 1950 के दशक में किकतने मार डाले गए, कितने जेल की यातना सहे और कितने रोजगार से निकाल दिए गए, किसी अधिकारी या जज को कुछ नहीं हुआ। 1974 में इंगलैंड में एक बम धमाके के मामले में गिल्डफोर्ड फोर नामक मामले में प्रताड़ना से सबसे इकबालिया बयान लेकर आजीवन कारावास दे दिया गया जिस पर 'डेथ ऑफ फादर' फिल्म बनी, तमाम हो हल्लाके बाद मृतक फादर समेत सभी 1993 (या 1999) में निर्दोष पाए गए, किसी पुलिस वाले का भी कोई दोष नहीं पाया गया। पूंजीवादी राज्य में इसका निदान असंभव लगता है, क्रांति का अभी कोई ठिकाना नहीं है।

12.03.2020

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