मैंने एक कमेंट में लिखा कि चार्वाक एक महान भौतिकवादी दार्शनिक था, 'ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत' की किंवदंती ब्राह्मणों ने फैलाई, जैसे वाल्मीकि डाकू और कालिदास की मूर्खता की। एक सज्जन ने कहा कि मैं अपने नाम से मिश्र हटा लूं तो वे मेरी बात गंभीरता से लेंगे। उस पर --
जिस को देखो मिश्र का पुछल्ला हटाने की सलाह देने लगता है तथा मुझे बिन मांगी सलाह से वितृष्णा होती है। जन्म के साथ पुछल्ला लग गया जिसे हटाने की कभी जरूरत नहीं पड़ी, जनेऊ तोड़ने की तरह। जो लिखता हूं उसकी आलोचना कीजिए। मैंने आप से तो नहीं कहा कि आप बाभन से इंसान क्यों नहीं बन जाते? यह कहता हूं कि यह मुश्किल लेकिन सुखद काम है। क्यों भाई मिश्राओं को वस्तुपरक, वैज्ञानिक सोच विकसित करने का हक नहीं होता? इस सवाल का जवाब मैं पिछले 40 सालों से दे रहा हूं। मिश्राओं की यह ज्यादा जिम्मेदारी बनती है कि वे समाज को, पूर्वाग्रह से मुक्त होकर, समग्रता में समझे और उसकी विद्रूपताओं को बताएं। हमारे पुरुखों ने वर्चस्व की लालसा मेंं इतिहास के बदले गल्प-पुराण लिखकर और उसे ज्ञान के रूप में रटाकर अपनी भविष्य की पीढ़ियों को अपूरणीय बौद्धिक क्षति पहुंचाई है।
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