कार्ल मार्क्स
(1818-83) की दूसरी जन्मशताब्दी के अवसर पर
मार्क्स और मार्क्सवाद
ईश मिश्र
2018 दुनिया के
मजदूरों की एकता के नारे के साथ एक वर्गविहीन-राज्यविहीन समाज में मानव-मुक्ति का
सपना देखने वाले युगद्रष्टा; क्रांतिकारी विचारक; कालजयी शिक्षक कार्ल मार्क्स का
का दूसरा जन्म-शताब्दी वर्ष है। 5 मई 1818 के जर्मनी के एक कस्बे में जन्मे कार्ल
मार्क्स, प्राचीन भारत के सर्वकालिक, क्रांतिकारी चिंतक; शिक्षक; संगठनकर्ता तथा
एक समतामूलक, सामूहिकतावादी समाज का सपना देखने वाले, गौतम बुद्ध के बाद, अभी तक
के मानव इतिहास के महानतम चिंतक/शिक्षक हैं। बुद्ध ही की तरह उनकी शिक्षा मानव-मुक्ति
तक प्रासंगिक बनी रहेगी। यहां बुद्ध द्वारा उद्घाटित वाद-विवाद-संवाद की
वैज्ञानिक, जनतांत्रिक शिक्षा प्रणाली या बौद्ध वैचारिक-सामाजिक क्रांति और
ब्रह्मणवादी प्रति-क्रांति[1]
की चर्चा से विषयांतर की गुंजाइश नहीं है। बुद्ध का ध्यान इस लिए आया कि दोनों में
देश-काल से परे, अपने-अपने ऐतिहासिक संदर्भों में समाज की विवेकसम्मत (वैज्ञानिक)
समझ; अनूठी विश्वदृष्टि एवं अंतर्दृष्टि; मानवमुक्ति के प्रति अडिग प्रतिबद्धता और
दुख-दर्द (शोषण) से मुक्त समाज की स्थापना के संकल्प तथा समर्पण एक से थे। दोनों
ही दुनिया की व्याख्या ही नहीं करना चाहते थे, बदलना भी। आमजन (श्रमजीवी) आम तौर
पर को दार्शनिकों की दृष्टि-सीमा के परे होता था या अवमानना का पात्र रहा है।
दर्शन के इतिहास में पहली बार 18वीं सदी के रुमानी-क्रांतिकारी दार्शनिक, रूसो[2]
के राजनैतिक सिद्धांत में पात्रता हासिल, उसे 19 वीं सदी में, सर्वहारा के रूप में
परिभाषित कर कार्ल मार्क्स के रूप में एक प्रामाणिक, प्रखर प्रवक्ता मिल गया। बर्लिन विश्व विद्यालय में पीयचडी की पढ़ाई के
दौरान ही उन्होंने इतिहास के नए नायक के रूप में सर्वहारा का अन्वेषण कर लिया था।[3]
19वीं शदी का यूरोपीय इतिहास क्रातियों और
क्रांतिकारी विचारों का इतिहास है। ज्ञान के विविध आयामों के अन्वेषण के इस युग
में, लुई अल्थ्युजर के अनुसार, कार्ल मार्क्स ने ‘ज्ञान के एक नए महाद्वीप’ की खोज
किया[4]।
लेकिन महाद्वीप शब्द से साम्राज्यवादी उपनिवेशीकरण का बोध जुड़ा है, इसलिए यह कहना
ज्यादा समुचित हा कि मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद के रूप में ज्ञान के एक नए
सौरमंडल की खोज की। यूरोपीय नवजागरण (15वीं-16वीं शताब्दी) का एक जनतांत्रिक पहलू
यह था कि इसने योग्यता का जन्म आधारित मानदंड समाप्त कर दिया लेकिन नए मानदंड
निर्मित कर दिए। इस दौर का इतिहास एक नए नायक के उदय का भी गवाह है, पैसे का नायक।
यह नया नायक नवजागरण काल में वृत्त की परिधि से चलकर, अगले 150 सालों में केंद्र
पर काबिज होगया। नवोदित पूंजीवाद एक प्रमुख जैविक बुद्धिजीवी, जॉन लॉक बिना
लाग-लपेट के घोषित करते हैं कि शासन एक गंभीर मसला है, इसे उसे ही सौंपा जा सकता
है जो पर्याप्त धन अर्जित करके अपनी योग्यता साबित कर चुका हो[5]।
पूंजीवाद के उदय और विकास का यह दौर, प्रबोधनकाल (येरा ऑफ इनलाइटेनमेंट) का सहगामी
था। प्रबोधन क्रांति एक बौद्धिक क्रांति थी, जिसमें आस्था और परंपरा पर विवेक और
उपयोगिता को तरजीह दी गयी। प्रबोधन काल की तार्किकता में असमानता का तर्क भी शामिल
है। सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक परिघटनाओं की धर्मशास्त्रीय व्याख्या अमान्य हो गई
थीं। शासन की धर्मशास्त्रीय व्याख्या के अनुसार सत्ता की वैधता के श्रोत तथा
विचारधारा के रूप में, क्रमशः, ईश्वर तथा धर्म की अवधारणा अमान्य हो चुकी थी। प्रबोधन
कालीन चिंतकों ने धर्मशास्त्रीय व्याख्या और वैधता की जगह विवेक तथा तर्क पर
आधारित व्याख्या तथा वैधता की नई धारा का उद्घाटन किया। उदारवाद नाम से जानी जाने
वाली इस धारा के इतिहासकार; राजनैतिक विचारक तथा अर्थशास्त्रियों की रचनाएं न केवल
नवोदित पूंजीवाद की व्याख्या करती है बल्कि उसकी अपरिहार्यता एवं वैधता तथा औचित्य
भी साबित करते हैं। उदारवाद की प्रमुख संकल्पनाएं हैं व्यक्तिवाद तथा संपत्ति के
अधिकार समेत प्राकृतिक अधिकार। उदारवाद की विस्तृत चर्चा से विषयांतर की गुंजाइश
नहीं है। रूसो के विरोधी स्वर के अपवाद के साथ प्रबोधनकाल के चिंतक उदारवादी या
एंटोनियो ग्राम्सी की शब्दावली में पूंजीवाद के जैविक बुद्धिजीवी हैं[6]।
संपत्ति तथा श्रमशक्ति के ‘प्राकृतिक अधिकारों’ की उदारवादी तर्कशीलता में,
प्रकारांतर से श्रम के
शोषण के अधिकार का तर्क भी शामिल हैं। मार्क्स इसे वैतनिक गुलामी का तर्क बताते
हैं।[7]
मार्क्सवाद उदारवाद की वैकल्पिक चिंतनधारा है जो इतिहास की उत्पादक प्रणाली पर
आधारित व्य़ाख्या कर, वर्ग संघर्षों के जरिए, श्रम के शोषण को समाप्त कर, वर्गविहीन
समाज के निर्माण की धारा है; इतिहास की व्याख्या करने की ही नहीं उसकी धार बदलने
की धारा है। ग्राम्सी की शब्दावली में मार्क्स मजदूरवर्ग के जैविक बुद्धिजीवी थे
तथा मार्क्सवाद सर्वहारा की जैविक बौद्धिक धारा। संपत्ति के उदारवादी अधिकार की
वैधता को पहली किंतु अस्पष्ट चुनौती मिली, रूसो से, जिन्होन के इसे लूट की वैधता
कह कर खारिज किया था[8]। 100
साल बाद कार्ल मार्क्स ने मानव मुक्ति के लिए निजी संपत्ति के उन्मूलन का सिद्धांत
देकर, चिंतन की एक नई धारा शुरू किया जो शीघ्र ही मार्क्सवाद नाम से विश्वविदित हो
गयी।
1989 में बर्लिन वाल के टूटते ही, पूंजीवादी
खेमों में हर्षोंमाद छागया। एक पूंजीपरस्त बुद्धिजीवी, फ्रांसिस फुकुयामा ने
आनन-फानन में ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा’ करते हुए एक लेख लिख मारा, जिसे सोवियत
संघ के पतन के बाद पुस्तक में विस्तारित किया[9]।
इस पुस्तक में उनका तर्क है कि सभी अन्य शासन-पद्धतियां अपनी खामियों (उनका इशारा
समाजवाद की तरफ है) के चलते समाप्त हो गयीं लेकिन उदारवादी जनतंत्र हर जगह सफल रहा
है, अतः यह “मनुष्य के वैचारिक विकास का अंतिम विंदु” तथा “इस तरह यह इतिहास का
अंत है”[10]।
कथनी-करनी के पूंजीवादी दुहरेपन को परिलक्षित करते हुए वे यह नहीं बताते कि जिस
तथाकथित, चिरस्थायी जनतंत्र की वे बात कर रहे हैं वह उदारवादी नहीं, अब नव
उदारवादी है। उदारवादी राज्य अहस्तक्षेपीय था, वह लूट का पर्वेक्षण भर करता था।
नवउदारवादी राज्य विकास में भागीदार है। टाटा भाड़े के गुंडों से कलिंगनगर के
आदिवासियों की जमीन नहीं हथिया सकता था, उनके बहादुराना आंदोलन को कुचलने के लिए
उड़ीसा तथा भारत सरकार की पुलिस चाहिए। गौरतलब है कि 2जनवरी 2006 को कलिंगनगर के
आदिवासियों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर उड़ीसा पुलिस की गोलीबारी में 16 आदिवासी
किसानों की मौत हो गयी थी तथा कई घायल हो गए थे।[11]
न इतिहास का कभी अंत
होता है; न मनुष्य
के वैचारिक विकास का, न ही मार्क्सवाद जैसे कालजयी विचारों का, जो अपनी तार्किक
परिणति तक पहुंच कर इतिहास बन जाते हैं। मार्क्सवाद तब तक प्रासंगिक रहेगा जब तक
वर्ग समाज रहेगा और फलतः वर्ग संघर्ष चलता रहेगा। “वर्ग संघर्ष एक निरंतर
प्रक्रिया है, कभी खुलकर, कभी छिपकर”[12]।
अन्याय के विरुद्ध हर संघर्ष प्रकारांतर से वर्ग संघर्ष है। मार्क्सवाद को वैचारिक
आधार मानने वाले संगठनों की मुल्क में मौजूदगी नगण्य है, फिर भी सोसल मीडिया पर,
हर तरह के दक्षिणपंथी बात-बात पर मार्क्सवाद के भूत से पीड़ित हो जाते हैं। सत्ता
का भय होता है, विचारों का आतंक।
पीयचडी के बाद अपनी
‘चाल-ढाल’ तथा प्रुसियन (जर्मन) राज्य के चरित्र को देखते हुए, मार्क्स भी समझ गए
थे कि शिक्षाजगत के दरवाजे उनके लिए बंद थे। रोजी-रोटी तथा “सत्य को व्यवहार में
प्रमाणित करने[13]” के
लिए उन्होंने, कोलोग्न में एक जनतांत्रिक
अखबार में पत्रकारिता शुरू किया और शीघ्र ही संपादक बन गए। जर्मनी में जारी
सेंसरशिप को मार्क्स, लोगों के दिमाग और दिल की जासूसी की नैतिक बुराई मानते थे।
अपने लेखन से भ्रष्टाचार उजागर करने के चक्कर में राज्य के अधिकारियों और अमीरों
के कोप पात्र बन गए। सरकार ने अखबार बंद करवा दिया। मार्क्स के जीवन के बारे में बहुत लिखा जा
चुका है, उस पर विस्तृत चर्चा की यहां न तो गुंजाइश है न जरूरत। एकाध बातों का
जिक्र यह रेखांकित करने के लिए जरूरी है कि शासक वर्ग और उनके भोंपू, सदा से ही
वैज्ञानिक विचारों से आक्रांत होते रहे हैं और विचारों से भयभीत हो विचारक को
कत्ल; दर-ब-दर और कैद करते रहे हैं। सुकरात से शुरू होकर बरास्ते ब्रूनो;
गैलीलियो; दिदरो, रूसो; ब्लांकी; मार्क्स; भगत सिंह; ग्राम्सी; चे; ... की मिशालों
की ऐतिहासिक निरंतरता है। मार्क्स 1841 में दो प्राचीन यूनानी प्रकृतिवादी दर्शनों
– डेमोक्रेटस तथा इपिक्यूरिअस – के तुलनात्मक अध्ययन पर पीयचडी जमा करने करने के
पहले ही सर्वहारा के रूप में इतिहास के नए नायक का अन्वेषण कर चुके थे[14]। छात्र जीवन में यंग हेगेलियन के सदस्य के
रूप में छात्र-राजनीति में भी सक्रिय थे। यंग हेगेलियन समूह हेगेल की क्रांतिकारी
व्याख्या से नास्तिकता की तरफ बढ़ रहे थे। 1841 में प्रकाशित लुडविग फॉटरबाक की
पुस्तक, ईसाइयत का सार (एसेंस ऑफ क्रिस्चियनटी[15]) से
मार्क्स तथा यंग हेगेलियन काफी प्रभावित थे। उन्हें इसमें हेगेल के आदर्शवाद की
सटीक आलोचना लगी। मार्क्स ने बाद में इसे मशीनी या आलंकारिक भौतिकवाद कह कर खारिज
किया तथा हेगेल के द्वंद्वाद को आदर्शवादी कह कर और दोनों की द्वंद्वात्मक एकता
स्थापित कर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत दिया, जिसकी संक्षिप्त चर्चा आगे की
जाएगी।
1942
से मार्क्स ने पेरिस से छपने वाले ड्वायच-फ्रांसोइश यार बुकर (जर्मन-फ्रांसीसी
वार्षिक पत्रिका) का उदारवादी हेगेलियन अर्नोल्ड रुज के साथ सह संपादन शुरू किया।
1843 में में अपनी प्रेमिका जेनी से विवाह कर, जर्मनी के दमनतंत्र से बचने के लिए
पत्नी के साथ पेरिस चले गए। वहां उनकी मुलाकात फ्रांसीसी समाजवादियों तथा अपने
देशवासी फ्रेडरिक एंगेल्स से हुई, जिनके साथ उनकी निजी तथा बौद्धिक मित्रता आजीवन
कायम रही।1843-44 में जर्मन-फ्रांसीसी वार्षिक पत्रिका में हेगेल के अधिकार के
दर्शन की समीक्षा में एक योगदान[16] से मार्क्स की दार्शनिक यात्रा शुरू हुई।
“धर्म हृदयविहीन परिस्थितियों का हृदय है; आत्माविहीन दुनिया का आत्मा तथा पीड़ित
की राहत है, धर्म लोगों की अफीम है”[17]। इसमें दर्शन की अवधारणाओं को आत्मसात करने
के लिए मार्क्स ने सर्वहारा विद्रोह का आह्वान किया। इस निबंध तथा 1844 में लिखी
तथा लगभग 100 साल बाद छपी आर्थिक और दार्शनिक मैनुस्क्रिप्ट[18] (पेरिस मैनुस्क्रिप्ट) को मार्क्सवादी दर्शन
की बुनियाद माना जाता है। यहां भी मार्क्स के रहने से जर्मन सरकार को खतरा महसूस
हुआ और वे ब्रुसेल्स जाकर जर्मन नागरिकता त्याग कर अंतर्राष्ट्रीय नागरिक बन गए।
यहां वे इतिहास और अर्थशास्त्र का अध्ययन शुरू किया। यहीं रहते हुए 1848 के
क्रांतिकारी माहौल के मद्देनजर, एंगेल्स के साथ मिलकर कम्युनिस्ट घोषणापत्र[19] की रचना की। 1848 की क्रांति में भागीदारी
के लिए मार्क्स और एंगेल्स जर्मनी (कोलोग्न) आ गए। क्रांति-प्रतिक्रांति के बाद
धर-पकड़ से बचने के लिए मार्क्स लंदन चले गए जहां वे 1883 में मृत्यु तक तंगी में
जीते और लिखते रहे।
1845
में जर्मन विचार धारा में मार्क्स ने लिखा
कि शासकवर्ग के विचार ही शासक विचार भी होते हैं, जिसे उन्होने युगचेतना कहा तथा
उसके विरुद्ध वर्गचेतना की जरूरत पर जोर दिया। युगचेतना की धारा के विपरीत विचार,
जल्दी पचते नहीं। समकालीन शासक वर्गों तथा उदारवादी और अराजकतावादी बुद्धिजीवियों
के कोप-पात्र बन गए। तरह-तरह के कुप्रचार तथा विचारों पर सवाल होने लगे। जिसका
वाजिब समझते थे जवाब देते थे, बाकी नजर-अंदाज कर देते थे। अराजकतावादी दार्शनिक,
जोसेफ पियरे प्रूधों ने सर्वहारा के नायकत्व की मारक्स की अवधारणा का मजाक उड़ाते
हुए, एक किताब लिख मारा, गरीबी का दर्शन[20] जो नवीनता के अभाव में, कोई खास प्रभाव
छोड़ने में नाकाम रही। मार्क्स ने जवाब में दर्शन की गरीबी[21] लिखा जो एक कालजयी कृति बन गयी। सब रचनाएं
अपनी परिस्थितियों को ही संबोधित करती हैं, अतः समकालिक होती हैं, महान रचनाएं,
सर्वकालिक, कालजयी बन जाती हैं। इसमें ऐतिहासिक भौतिकवादी उपादान की पहली स्पष्ट
झलक मिलती है। “आर्थिक परिस्थितियों ने आम ग्रामीण जनता को मजदूर बना दिया। पूंजी
के प्रभुत्व ने सबकी परिस्थितियां और हित एकसमान कर दिया है। अतः पूंजी की विरुद्ध
अधीनता की समान स्थिति को अर्थ में अपने आप में वर्ग है, लेकिन अपने लिए
नहीं। संघर्षों के दौरान यह जनसमूह एकता बद्ध रूप से संगठित होता है तथा अपने
लिए वर्ग बन जाता है। जिन हितों की यह रक्षा करता है, वर्ग हित बन जाता है”[22]। ‘अपने आप में वर्ग’ से ‘अपने लिए वर्ग’ की
यात्रा का वाहन है, वर्गचेतना। इतिहास के विरले चरित्रों के जीवन बहुत रोचक होते
हैं। लालच समेटते हुए मार्क्स की जीवनी उनके लेखन के शैशवकाल में ही छोड़ कर,
मार्क्सवाद की प्रमुख अवधारणाओं की संक्षिप्त चर्चा प्रासंगिक होगी। मार्क्स
बुद्धिजीवी-क्रांतिकारी नहीं थे, क्रांतिकारी-बुद्धिजीवी थे। पूंजी लिखना पूरा
करने के लिए फर्स्ट इंटरनेसनल की गतिविधियों से समय चुराते थे[23]।
मार्क्सवाद
व्यवस्था
बदलने के लिए उसके गतिविज्ञान के नियमों की वैज्ञानिक समझ जरूरी थी। इसकेलिए
उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दार्शनिक आधार पर ऐतिहासिक भौतिकवादी विज्ञान
का अन्वेषण किया। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्सवाद का दर्शन है तथा ऐतिहासिक
भौतिकवाद इसका विज्ञान। इन पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है। लेकिन संक्षिप्त
चर्चा अप्रासंगिक न होगी। जैसा कि ऊपर कहा गया है कार्ल मार्क्स और बुद्ध जैसे
विरले, क्रांतिकारी बुद्धिजीवी, एक ऐसी युगकारी चिंतन धारा का उद्घाटन करते हैं कि
उनके नाम से नया वाद चल पड़ता है। मार्क्सवाद वैज्ञानिक सिद्धांतो
के आधार दुनिया को सनमझने और बदलने की एक गतिमान चिंतनधारा है। मार्क्स निजी
स्वामित्व तथा वैतनिक गुलामी पर आधारित पूंजीवाद के राजनैतिक अर्थशास्त्र की
व्याख्या ही नहीं करना चाहते थे बल्कि वर्ग-एकता पर आधारित सर्वहारा क्रांति के
जरिए उसे बदलना भी। उन्होंने बौद्धिक जीवन की शुरुआत में अपने विचारों की
क्रांतिकारिता घोषित कर दी थी। “दार्शनिकों ने अन्यान्य तरीकों दुनिया की व्याख्या
की है, लेकिन जरूरत इसे बदलने की है”[24]।
मार्क्सवाद
दुनिया को समझने का गतिमान विज्ञान है और सर्वहारा क्रांति की विचारधारा। मार्क्सवाद
में सिर्फ मार्क्स और एंगेल्स के विचार नहीं आते, बल्कि बाद के, लेनिन, माओ,
ग्राम्सी, चे आदि प्रमुख मार्क्सवादियों के भी। लेनिन ने राज्य की मार्क्सवादी
व्याख्या ही नहीं की बल्कि सर्वहारा की तानाशाही के राष्ट्रव्यापी प्रयोग में
जनतांत्रिक केंद्रीयता का सिद्धांत दिया; माओ ने अविकसित पूंजीवादी देश में किसान
क्रांति के सिद्धांत तथा औद्योगिक तथा कृषि कम्यूनों के निर्माण का। ग्राम्सी ने
सांस्कृतिक वर्चस्व समेत कई नए आयाम जोड़े। यहां विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं
है, इनके जिक्र का मक्सद यह रेखांकित करना है कि मार्क्सवाद देश-काल के अनुकूल एक
गतिशील विज्ञान है। एंगेल्स ने 1891 में लिखा था कि मार्क्सवादी वह नहीं है जो
मार्क्स या उनकी रचनाओं के उद्धरण पेलता रहे बल्कि वह जो खास परिस्थितियों में
वैसी ही प्रतिक्रिया दे जैसा मार्क्स देते। भारतीय कम्युनस्ट पार्टी ने मार्क्सवाद
को विज्ञान के रूप अपनी परिस्थितियों को समझने की बजाय मार्क्सवाद को मॉडल के रूप
में अपना लिया, जिसकी अतिसंक्षिप्त चर्चा उपसंहार में की जाएगी। 1917 में सारी
दुनिया दो खेमों में बंट गई मार्क्सवादी और मार्क्सवाद विरोधी। मार्क्स के निधन के
बाद 1889 में गठित दूसरे इंटरनेसनल के लगभग सभी घटक मार्क्सवाद को ही अपना वैचारिक
श्रोत मानते थे, जैसे भारत की दर्जन से अधिक कम्युनिस्ट पार्टियां मानती हैं।
एंगेल्स ने मार्क्स की अंत्येष्टि भाषण में कहा था कि जिस तरह डार्विन ने जीवन के विकास
के नियमों की व्याख्या की उसी तरह मार्क्स ने इतिहास के नियमों की[25]। अतः मार्क्सवाद एक विज्ञान है तथा मार्क्स
विज्ञान को गतिशील मानते थे, इसीलिए यह कोई स्थिर आस्था नहीं गतिशील विचार है,
जिसके बौद्धिक संसाधन मार्क्स तथा एंगेल्स की ही रचनाओं के भंडार तक सीमित नहीं
है। ज्ञान की ही तरह विज्ञान भी एक निरंतर प्रक्रिया है, जैसा ऊपर कहा गया है, मार्क्सवादी
परिप्रक्ष्य से अपनी परिस्थिति को समझने और बदलने के प्रयास करने वाले, लेनिन,
माओ, भगत सिंह, ग्राम्सी, चे ग्वेयरा आदि की रचनाओं से यह भंडार लगातार संवृद्ध
होता रहा है।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद
जैसा कि शुरुआत में ही कहा गया है की
मार्क्सवाद का दार्शनिक आधार द्व्वात्मक भौतिकवाद है। किसी भी नई चिंतन धारा का
उदय और विकास उस समय के ऐतिहासिक संदर्भ में प्रचलित चिंतन धाराओं के सापेक्ष होता
है। उस समय यूरोपीय दार्शनिक गगन में दो प्रमुख चिंचनधाराएं प्रचलित थीं, हेगेल का
द्वंद्ववाद और फॉयरवाक का भौतिकवाद। मार्क्स उन्हें चुनौती देते हैं; खारिज करते
हैं; उनका कायाकल्प कर, उनकी द्वंद्वात्मक
एकता स्थापित कर, एक नया सिद्धांत देते हैं, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद। हेगेल का
मानना था कि यथार्थ पूर्णतः या काफी हद तक विचारों से निर्मित है और दृष्टिगोचर
जगत विचारों के अदृश्य जगत की छाया मात्र है। मार्क्स ने द्वंद्वात्मक उपादान के
लिए हेगेल का आभार व्यक्त कर, इसे आदर्शवाद कह कर खारिज किया। उन्होंने कहा कि
हेगल ने वास्तविकता को सर के बल खड़ा किया है उसे पैर पर खड़ा करना है। विचार से
वस्तु की उत्पत्ति नहीं, वस्तु से विचार की उत्पत्ति होती है। ऐतिहासिक रूप से
वस्तु विचार से पहले से विद्यमान होती है तथा ऐतिहासिक रूप से विचार वस्तुओं से ही
निकले हैं, निर्वात से नहीं। न्यूटन के गुरुतवाकर्षण के सिद्धांत से सेबों का
गिरना शुरू नहीं हुआ बल्कि सेबों का गिरना देख कर उनके दिमाग में उसका कारण जानने
का विचार आया। सेबों को गिरते देखकर ‘क्या’ सवाल का उत्तर दिया जा सकता है,
‘क्यों’ का नहीं। क्यों, कैसे, कब और कितना का जवाब न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के
सिद्धांत से मिलता है। यथार्थ की संपूर्णता का निर्माण सेब गिरने की घटना (वस्तु)
और न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम (विचार) की गतिशील द्वंद्वात्मक सम्मिलन से
होता है।
फॉयरबॉक का वैज्ञानिक युग का भौतिकवाद विचारों को सिरे से खारिज करके
कहता है कि भौतिकता ही सब कुछ है, जिसे मार्क्स मशीनी भौतिकवाद या प्रतीकात्मक
(मेटाफरिकल) भौतिकवाद कह कर खारिज करते हैं। मार्क्स थेसेस ऑन फॉयरबाक में फॉयरबॉक
से सहमति जताते हुए लिखते हैं कि मनष्य की चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का
परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुई परिस्थितियों की। लेकिन न्यूटन के गति के
नियम के अनुसार बिना वाह्य बल के कोई वस्तु हिलती भी नहीं। भौतिक परिस्थितियां
आपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के चैतन्य प्रयास से बदलती हैं[26]।
अतः इतिहास की गति का निर्धारण भौतिक परिस्थितियों और सामाजिक चेतना की
द्वंद्वात्मक एकता से होता है, किसी ईश्वर, पैगंबर, अवतार की इच्छा या कृपा-दुष्कृपा से नहीं।
इस तरह हम देखते हैं मार्क्स ने सत्य की व्याख्या की अपने समय की
प्रचलित दो प्रमुख परस्पर-विरोधी चिंतनधाराओं: हेगेले का द्वंद्वाद तथा फॉयरबाक के
भौतिकवाद को संदर्भविंदु बनाया; ललकारा तथा खारिज किया; उनकी द्वंद्वात्मक एकता से
सत्य की एक नई व्याख्या की चिंतनधारा, नए दर्शन का उद्घाटन किया – द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद। हेगेल के द्वंद्वाद को उन्होंने आदर्शवादी करार दिया क्योंकि वस्तु पर
विचार की प्राथमिकता के साथ यथार्थ को सिर के बल खड़ा किया था। विचार से वस्तु
नहीं बनती बल्कि वस्तु से विचार निकलते हैं। ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि
मनुष्य ने ईश्वर की अवधारणा गढ़ी। उन्होंने वस्तु को ही संपूर्ण सत्य मानने वाले
फॉयरबाक के भौतिकवाद को प्रतीकात्मक कह कर खारिज किया कि विचारों के बिना वस्तु प्रकृति
की गतिशीलता के प्रकृति के विरुद्ध जड़ता में जकड़ी रहेगी। वस्तु अर्ध सत्य है,
उसके विचारों से द्वंद्वात्मक मिलन से समग्र सत्य बनता है।
एंगेल्स ने लुडविग फॉयरवाक और जर्मन दर्शन का अंत में
लिखा है, “किसी भी अन्य दार्शनिक कथन की संकीर्ण सरकारों ने इतनी प्रशंसा नहीं की
और न उतने ही संकीर्ण उदारवादियों ने इतनी निंदा. जितनी की हेगेल के निम्न कथन की:
‘जो भी वास्तविक है, वह विवेकसम्मत है; और जो भी
विवेकसम्मत है वह वास्तविक है’।
प्रकारांतर से यह निरंकुश शासन, पुलिसिया सरकार, ... और सेंसरशिप को
समर्पित दार्शनिक मंगलकामना है। … लेकिन वे हर वजूददार चीज को
वास्तविक नहीं मानते थे। हेगेल के लिए वास्तविकता उसी का गुण है जो वास्तविक है।
‘अपने विकास क्रम में वास्तविकता आवश्यकता बन जाती है’
एंगेल्स ‘मियां की जूती मियां के सिर’ कहावत चरितार्थ करते हुए हेगेल
के ही द्वंद्ववाद विपरीत, क्रांतिकारी निष्कर्ष निकालते हैं। “रोम गणतंत्र
वास्तविक था और उसकी जगह आया रोम साम्राज्य भी वास्तविक था। 1789 में फ्रांस की
राजशाही इतनी अवास्तविक यानि अनावश्यक हो गयी कि महान क्रांति को उसे ध्वस्त करना
पड़ा। राजशाही अवास्तविक हो गई थी और क्रांति वास्तविक, अतः विवेकसम्मत”[27]।
कहने का मतलब जिसका भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है। ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद
का भी।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है। उपरोक्त
चर्चा के निष्कर्ष स्वरूप हम पाते हैं कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के निम्न नियम
हैं:
1. यथार्थ (सत्य) वस्तु और विचार का
द्वंद्वात्मक युग्म है, जिसमें प्राथमिकता वस्तु की है। इस नियम को ऊपर, वस्तुओं
के ऊर्ध्वाधर पतन (वस्तु) और न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम की द्वंद्वात्मक
एकता से सत्य की संपूर्णता के निर्माण के उदाहरण से दर्शाने की कोशिस की गई है।
वस्तु और विचार की द्वंद्वात्मक एकता की प्रक्रिया, या दूसरे शब्दों में दोनों की
एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया की निरंतरता ही पाषाणयुग से साइबरयुग तक मानव
इतिहास की यात्रा की संचालक शक्ति रही है। मार्क्स पूंजीवाद के राजनैतिक
अर्थशास्त्र, वर्गीय अंतर्विरोध तथा वर्ग संघर्ष के विश्लेषण में इसी द्वंद्ववाद
का इस्तेमाल करते हैं। “अभी तक के समाजों का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा
है”[28]
2. प्रकृति की द्वंद्वात्मकता की प्रकृति
परिवर्तन की निरंतरता है, जिसके गतिविज्ञान के अपने नियम हैं[29]। सतत
क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन समयांतर में परिपक्व हो, गुणात्मक क्रांतिकारी
परिवर्तन बन जाता। पिछले 40 सालों में भारत में क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तनों के
साफ-साफ दिखने वाले उदाहरण हैं: दलित- सशक्तीकरण तथा स्त्री-सशक्तीकरण। स्त्री
प्रज्ञा तथा दावेदारी और दलित प्रज्ञा तथा दावेदारी के रथ, मंद गति से शुरू हो
त्वरित गति से आगे बढ़ रहे हैं। आज किसी का नैतिक साहस नहीं है कि कहे कि वह
बेटा-बेटी में फर्क करता है, एक बेटे के लिए 4-5 बेटियां भले पैदा कर ले। उसी तरह
बड़े-से-बड़ा जातिवादी भी सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकता कि वह जाति-पांत में
विश्वास करता है, बल्कि तमाम मनुवादी किसी दलित के घर टीवी पर प्रचार के साथ भोजन
करना प्रायोजित करते हैं। वैसे तो कोई परिवर्तन विशुद्ध मात्रात्मक नहीं होता। यह
क्रमशः स्त्रीवाद तथा जातिवाद-विरोध की सैद्धांतिक विजय है, इसीलिए अभी तक यह
मात्रात्मक परिवर्तन है। क्रांतिकारी, गुणात्मक परिवर्तन विचारधारा के रूप में
क्रमशः मर्दवाद तथा जातिवाद (ब्राह्मणवाद) के विनाश के खंडहरों पर उगेंगे।
3. द्वंद्वात्मक समग्रता के दोनों परस्पर-विपरीत
के पारस्परिक निषेध से तीसरे उच्चतर की तत्व की उत्पत्ति होती है जो दोनों से
गुणात्मक तौर पर भिन्न होता है लेकिन दोनों के तत्वों को समाहित किए हुए। इस नियम
को वाद-प्रतिवाद-संवाद (Thesis,
anti-thesis, synthesis) का नियम भी कहते हैं। इसे दो परस्पर विपरीत
रासायनिक गुणों वाले, हाइड्रोक्लोरिक एसिड तथा सोडियम हाइड्रॉक्साइड की रासायनिक
क्रिया (द्वंद्वात्मक योग) के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है।
HCl + NaOH=NaCl+H2O
दो विपरीत रासायनिक गुणों वाले
तत्व पारस्परिक निषेध की क्रिया से तीसरा बिल्कुल भिन्न तत्व पैदा होता है। शरीर
को हानिकरक दो विपरीत तत्वों की द्वंद्वात्क एकता से तीसरा तत्व बना जो जीवन के
लिए अनिवार्य है। 1917 की क्रांतिकाकी परिस्थियों ने क्रांतिकारी चेतना पैदा किया
क्रांतिकारी परिस्थितियों और क्रांतिकारी चेतना से लैस मनुष्य की द्वंद्वात्मक
एकता के परिणामस्वरूप नवंबर क्रांति हुई।
4.जिसका
भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है, पूंजीवाद अपवाद नहीं हो सकता इसे नियम की
बजाय प्रकृति की ऐतिहासिक प्रवृत्ति कहना ज्यादा उचित है।
ऐतिहासिक
भौतिकवाद
द्द्वात्मक
भौतिकवाद पर चर्चा से लंबा विषयांतर हो गया लेकिन मार्क्सवाद के दर्शन के साथ
मार्क्सवाद के विज्ञान की एक अतिसंक्षिप्त चर्चा वांछनीय है। ऐतिहासिक भौतिकवाद का
मूलमंत्र है: अर्थ ही मूल है। यह एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण है जो समाज के आर्थिक विकास को इतिहास
के गतिविज्ञान की कुंजी मानता है। इतिहास के सभी कारण-कारक की उत्पत्ति, “उत्पादन
पद्धति में परिवर्तनों और विनिमय तथा परिणामस्वरूप विभिन्न वर्गों में समाज का
विभाजन और वर्ग संघर्ष में निरूपित करता है”[30]। सत्य
वही जो तथ्य-तर्कों के आधार पर प्रमाणित किया जा सके। मार्क्स, राजनैतिक
अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान[31]
की प्रस्तावना के निम्न लंबे उद्धरण में ऐतिहासिक भौतिकवाद का सार है।
“अपने सामाजिक उत्पादन के दौरान, भौतिक
उत्पादन के विकास के विशिष्ट चरण के अनुरूप मनुष्य विशिष्ट संबंधो में बंध जाते
हैं, उत्पादन के सामाजिक संबंध, जो अपरिहार्य और अपनी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं।
इन्ही संबंधों के योग से समाज का आर्थिक ढांचा तैयार होता है, जो वास्तविक बुनियाद
है बुनियाद है जो पर कानूनी और राजनैतिक ढांचों का निर्धारण करता है, और जिसके
अनरूप सामाजिक चेतना का विशिष्ट स्वरूप होता है। भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली,
सामाजिक, राजनैतिक और बौद्धिक गतिविधियों के सामान्य स्वरूप का निर्धारण करती है। मनुष्य
की चेतना उसके अस्तित्व का निर्धारण नहीं करती बल्कि उसका सामाजिक अस्तित्व उसकी
चेतना का निर्धारण करता है। विकास के एक खास चरण में समाज की भौतिक उत्पादन की
शक्तियों और मौजूद उत्पादन संबंधों, कानूनी भाषा में संपत्ति के संबंधों में टकराव
की स्थिति पैदा होती है। मौजूदा उत्पादन संबंध उत्पादक शक्तियों के आगे विकास में
बाधक बन जाते हैं। तब शुरू होता है सामाजिक क्रांति का युग। आर्थिक बुनियाद में
परिवर्तन से देर-सबेर सभी अधिरचनाओं में तदनुरूप आमूल परिवर्तन हो जाता है। इन
परिवर्तनों के अध्ययन में प्राकृतिक विज्ञान की तरह सही सही ज्ञात किए जा सकने
वाली भौतिक उत्पादन आर्थिक परिस्थियों और वैझानिक, राजनैतिक, धार्मिक, कला संबंधी,
य दार्शनिक – कुल मिलाकर विचारधारात्मक स्वरूप में परिवर्न में, फर्क करना जरूरी
है। विचारधारात्मक स्वरूप में परिवर्तन से मनुष्य इन अंतरविरोधों के प्रति जागरूक
हो संघर्ष करता है।”
ऐतिहासिक
भौतितवाद एक व्यवहारिक विज्ञान है। उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के आधार पर यह
मानव इतिहास का युग निरूपण करता है: आदिम उत्पादन प्रणाली पर आधारित आदिम साम्यवाद
का युग; दास उत्पादन प्रणाली का दास युग तथा सामंती प्रमाणी का सामंतवादी युग तथा
अंतिम वर्ग समाज, पूंजीवादी उतपादन प्रणाली पर आधारित पूंजीवादी युग जिसके अंत के
बाद वर्ग विहीन, राज्य विहीन साम्यवादी युग, जो निरंतर सर्वहारा क्रांतियों से
आएगा मगर जिसकी समय-सीमा नहीं तय की जा सकती[32]।
मार्क्स-एंगेल्स
कम्यनिस्ट घोषणा पत्र के शुरू में ही लिखते हैं कि समाज का इतिहास
वर्ग संघर्षों का इतिहास है और कम्युनिस्ट पार्टियों का इतिहास 200 साल से कम।
कहने का मतलब यह कि वर्ग समाज में शोषण-उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध सभी आंदोलन
वर्ग संघर्ष के ही हिस्से हैं. जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है कि मार्क्स का आकलन था
कि क्रांति विकसित पूंजीवादी देश में होगा जहां प्रचुरता का बंटवारा मुद्दा होगा।
लेकिन मार्क्स ज्योतिषी नहीं थे। मार्क्स के विकास के चरण के सिद्धांत से इतर
मार्क्सवाद की विचारधारा की पहली क्रांति रूस में हुई जहां पूंजीवाद लगभग अविकसित
था और सामंती उत्पादन संबंध सजीव थे। क्रांति की दो शर्तें हैं, क्रांतिकारी
परिस्थितियां और सजग-संगठित क्रांतिकारी पार्टी रूस में दोनों का समागम हुआ, और
जैसा ऊपर कहा गया है 1917 में ताबड़-तोड़ दो क्रांतियां हुईं, मार्च की अल्पजीवी
बुर्जुआ जनतांत्रिक क्रांति और नवंबर में सर्वहारा क्रांति। आबादी में किसानों और कारीगरों की संख्या अधिक
थी। किसानों की लामबंदी के लिए ‘जो जमीन को जोते बोए वह जमीन का मालिक होए’ का
नारा दिया गया था।
वैसे तो
राज्य और स्वतंत्रता की उदारवादी (बुर्जुआ) अवधारणाओं की संक्षिप्त मार्क्सवादी
समीक्षा; वर्ग और वर्ग चेतना; एलीनेसन; विचारधारा तथा साम्यवाद पर संक्षिप्त
चर्चाएं वांछनीय हैं, लेकिन गुंजाइश नहीं है। उदारवादी स्वतंत्रता इस मिथ्या चेतना
पर आधारित है कि आत्मकेंद्रित, विवेकशील व्यक्ति स्वहित साधने वाली एक स्वायत्त
इकाई है। व्यक्ति का वजूद स्वायत्त न होकर विशिष्ट सामाजिक संबंधों के तहत सामाजिक
है। यह स्वतंत्रता लोगों लोगों के सम्मिलन की नहीं अलगाव है। कोई मालिक या गुलाम
एक व्यक्ति के रूप में नहीं होता बल्कि एक सामाजिक समग्रता – वर्ग के अभिन्न
हिस्से के रूप में, खास सामाजिक संबंधों के तहत जिसके निर्धारण में उसका कोई
योगदान नहीं होता। कम्युनस्ट घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स लिखते हैं कि
बुर्जुआ राज्य पूंजीपति वर्ग के हितों के प्रबंधन की कमेटी है। इसके प्रमाण के लिए
हम अपने या किसी राज्य के चरित्र में साफ देख सकते हैं। अदारवाद के प्रवर्तक थॉमस
हॉब्स कहते हैं, कि व्यक्ति के स्वार्थी तथा आत्मकेंद्रित स्वतंत्र इकाई के रूप में
चित्रित करने के सिद्धांत के लिए अपने अंदर झांके, मैं कहता हूं कि मार्क्सवाद के
सिद्धांतों से सहमति के लिए अपने समाज की समीक्षा करें।
उपसंहार: भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद
एंगेल्स ने अपने समकालीन कुछ मार्क्सवादी
समूहों पर कटाक्ष किया था कि मार्क्स और उनकी रचनाओं के उद्धरण से मार्क्सवादी
नहीं हो जाता बल्कि मार्क्सवादी वह है जो खास परिस्थिति में वैसी ही प्रतिक्रिया
दे जैसा मार्क्स देते। मार्क्स ने फ्रांस में क्रांति-प्रतिक्रांति (1848-51) के
उपरांत एटींथ ब्रुमेयर ऑफ लुई बोनापार्ट में लिखा, “मनुष्य अपना इतिहास खुद
बनाता हैं, लेकिन जैसा चाहें वैसा नहीं; न ही खुद से चुनी स्थियों में, बल्कि अतीत
की विरासत के रूप में मौजूद परिस्थियों में। जीवित पीढ़ियों के दिमाग पर मृत
पीढ़ियों की परंपराओं का बोझ दिवास्वप्न की तरह सवार रहता है”[33]। मार्क्स और एंगेल्स ने उत्पादन प्रणाली
के आधार पर ऐतिहासक युगों निरूपण में बार बार जोर देकर विकास के चरणों और तथा
विकास के तरीकों और उत्पादन के संबंधों की विषमता को रेखांकित किया है। उपनिवेशवाद
के पहले भारत में उत्पादन संबंधों की यूरोप में जमीन की मिल्कियत पर आधारित में
सामंतवाद से भिन्नता को रेखांकित करने के लिए एसियाटिक उत्पादन प्रणाली तथा
एसियाटिक उत्पादन संबंध की अवधारणा का सिद्धांत प्रतिपादित किया। जिसके बारे में
विसतृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है जिसका सार यह है कि भारत मूलतः गांवों का देश है
जहां जमीन पर मिल्कियत राज्य की थी तथा सूबेदार, ताल्लुकदार आदि महज लगान इकट्ठा
करने के अधिकार प्राप्त थे तथा सिंचाई, परिवहन आदि की जिम्मेदारी
व्यक्तियों/परिवारों की नहीं बल्कि राज्य या समुदाय की थी। जिसके चलते भारत, चीन
समेत तमाम पारंपरिक समाजों में पारस्परिक सहायता संस्थाएं थीं। हमारे बचपन में
हमारे गांवों में गन्ने से गुड़-उतपादन, जलपरिवहन, कुँआ निर्माण और प्रयोग आदि काम
सामुदायिक स्तर पर होते थे। मार्क्स ने 1853 में न्यू यॉर्क डेली ट्रब्यून में
धर्म की विशिष्टता पर जोर देते हुए इसके आत्म-उत्पीड़न पहलू पर जोर दिया जिसके
चलते विद्रोह की भावना कुंद होती है[34]। 1958
में मार्क्स भारत का पहला स्तंत्रता संग्राम[35]
में भी मार्क्स अपनी अवधारणा नहीं बदलते। सामग्री के अभाव में मार्क्स के भारत पर
लेखन में वर्णाश्रम व्यवस्था तथा जातिवादी जटिलताओं की समुचित व्याख्या का अभाव
है। लेनिन ने 1905-07 की रूसी क्रांति तथा प्रतिक्रांति के बाद लिखा कि क्रांति के
लिए क्रांतिकारी परिस्थितियां अनिवार्य हैं लेकिन क्रांति की गारंटी नहीं[36]। क्रांति
के लिए आंतरिक कारण, व्यवस्था के संकट का गहराना (क्रांतिकारी परिस्थियों की
उपस्थिति) तथा वाह्य कारण क्रांतिकारी शक्तियों की तैयारी दोनों आवश्यक हैं। रोजा
लक्जंबर्ग ने रूसी क्रांति पर अपने लेख में सचेत किया है कि रूस की खास
परिस्थितियों में क्रांति की रणनीतियों और सिद्धांतो को अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा
क्रांति के सार्वभौमिक सिद्धांत तथा रणनीति के तौर पर नहीं अपनाना चाहिए[37]। यानि
सर्वहारा क्रांति के सिद्धांत तथा रणनीतितियां, देश-काल की विशिष्ट परिस्थितियों
की मार्क्सवादी सिद्धांतों की विवेचना तथा मौजूद शक्तियों की समाजिक चेतना के आधार
पर तैयार करना। लेकिन कॉमिंटर्न के तत्वाधान में बनी सभी कम्युनिस्ट पार्टियों ने
रोजा लक्जंबर्ग की सलाह को दरकिनार कर मार्क्सवाद को विज्ञान की बजाय आस्था का
विषय बना दिया तथा रूसी क्रांति को मिशाल मान लिया।
भारत में मार्क्सवाद को, यहां की परिस्थितियों
की विशिष्टता के विचारों को दरकिनार कर इसे न तो विशिष्ट परिस्थितियों के अनकूल
व्याख्या की कोशिस की न अमल की। यह प्रक्रिया ताशकंत में यमयन रॉय द्वारा भाकत की
कम्युनिस्ट पार्टी के गठन से शुरू हो गयी थी। आचार्य नरेंद्रदेव इकलौते समाजवादी
थे जिन्होंने बौद्ध क्रांति के परिप्रक्ष्य में मार्क्सवाद को भारतीय परिस्थितियों
के अनुसार व्याख्या की। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी/पार्टियों के इतिहास की चर्चा
की गुंजाइश नहीं है। जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है, मार्क्स जब लिख रहे थे, तब
यूरोप में नवजागरण तथा प्रबोधन क्रांतियों के चलते जन्मजात सामाजिक विभाजन समाप्त
हो गया था। इसीलिए वे लिखते हैं कि पूंजीवाद ने सामाजिक वर्गविभाजन को आसान बना
दिया है, समाज पूंजीवादी और सर्वहारा के परस्पर खेमों में बांट दिया है[38]। भारत
में कबार के साथ शुरू हुआ नवजागरण ऐतिहासिक कारणों से अपनी तार्किक परिणति तक नहीं
पहुंच सका, जो एक अलग चर्चा का विषय है। यहां जन्मजात सामाजिक विभाजन अभी तक जारी
ही नहीं है, बल्कि जन्म आधारित जातिवाद आज भी सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के
रास्ते का विशाल स्पीड ब्रेकर बना हुआ है। सामाजिक क्रांति का यानि जातिवाद के समापन
का मुद्दा अंबेडकर ने उठाया। 1938 में इंडिपेंड लेबर पार्टी के सम्मेलन में कहा कि
उनके विचारों तथा कम्युनिस्ट पार्टी के विचारों में काफी नजदीकी है। भारत में
कम्युनस्ट आंदोलन के समक्ष 3 मुद्दे थे: सामाजिक क्रांति, उपनिवेशविरोधी आंदोलन
तथा समाजवादी आंदोलन की सामाजिक चेतना के जनवादीकरण यानि वर्गचेतना के प्रसार के
जरिए क्रांतिकारी परिस्थितियों का निर्माण। यमयन रॉय कॉमिंटर्न की कांग्रेस में
औपनिवेशिक सवाल पर पेश की गयी अपनी थेसिस में कांग्रेस के नेतृत्व में
उपनिवेशविरोधी आंदोलन को समझौतावादी करार कर, उससे अलग रहते हुए कम्युनिस्ट पार्टी
के नेतृत्व में अपने दम पर उपनिवेशवादविरोधी तथा सर्वहारा आंदोलन की हिमायत की।
लेनिन उनकी राय से सहमत नहीं थे तथा अपनी अस्मिता बरकरार रखते हुए आंदोलन में
भागीदारी की थेसिस पेश की। 1928 तक कम्यनिस्ट वर्कर्स एंड पीजेंट पार्टी के
रूप में स्वतंत्रता आंदोलन में शिरकत करते हुए विश्वसनीयता हासिल कर रहे थे कि
1928 में कॉमिंटर्न की छठी कांग्रेस में यमयन रॉय की आंदोलन से अलग रहने की लाइन
अपनाया, यद्यपि उन्हें कॉमिंटर्न से निष्कासित करके[39]। इस
पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है।
सामाजिक क्रांति यानि जातिवाद के समापन के
आंदोलन का मुद्दा अंबेडकर ने उठाया। आज अंबेडकरवाद तथा मार्क्सवाद के कृतिम
अंर्विरोध ने नवब्राह्मणवाद के रूप में ब्राह्मणवाद के पूरक के रूप में सामाजिक
चेतना के जनवादीकरण के रास्ते का रोड़ा बना हुआ। सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के
अलग अलग संघर्षों का अब वक्त नहीं है। जेयनयू आंदोलन से उपजा ‘जय भीम-लाल सलाम’ का
नारा दोनों क्रांतियों की प्रतीकात्मक एकता का नारा है। पंजाब के दलितों का जमीन
आंदोलन और सामूहिक खेती इस प्रतीकात्मक एकता का एक प्रयास है[40]।
मार्क्सवादी सिद्धांतों पर क्रांति के बिना जातिवाद का उन्मूलन नहीं हो सकता तथा
जातिवाद के उनमूलन के बिना सर्वहारा एकता के आधार पर मार्क्सवादी सिद्धांतों पर
सर्वहारा क्रांति नहीं हो सकती। आज भारत में सर्वहारा क्रांति के लिए अनिवार्य
क्रांतिकारी परिस्थितियों के निर्माण यानि सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के लिए
जातिवाद उन्मूलन के आंदोलन तथा किसान-मजदूर के आर्थिक आंदोलन की द्वंद्वात्मक एकता
के सिद्धांतऔर व्यवहार की आवश्यकता है; जयभीम-लाल सलाम के प्रतीकात्मक नारे के
सिद्धांतीकरण की आवश्कता है। भगत सिंह के शब्दों में जातिवाद वर्गचेतना से ही
समाप्त किया जा सकता है।
[1]
डॉ बीआर अंबेडकर, प्रतिक्रांति की
दार्शनिक पुष्टि: कृष्ण और उनकी गीता, हिंदी समय, महात्मा गांधी हिंदी
विवि, वर्धा, www.hindisamay.com/.../भीमराव-आंबेडकर-विमर्श-प्रति..
[2]
ईश मिश्र, समाजवाद का इतिहास, भाग-1,
वैचारिक बीजारोपण, समयांतर, मार्च 2017।
[3] कार्ल मार्क्स, पिता को पत्र, https://www.marxists.org/archive/marx/works/1837-pre/letters/letter-to-father.pdf
[4]Louis Althusser, Lenin and
Philosophy, https://www.marxists.org/reference/archive/althusser/1968/lenin-philosophy.htm
[5]
Sudipta Kaviraj, Concept of Man in political Theory, Social
Scientist, January. 1980.
[6]
Antonio Gramsci, Selections from Prison Notes, Lawrence and Wishart,
London, 1978, pp 5-25
[7]
Karl Marx, Wage Labor and Capital, K Marx & F. Engels, Selected
Work (in one Volume), SW henceforth.
[8] JJ
Rousseau, Discourses on Inequality A Discourse Upon the Origin and the Foundation of the
Inequality ...
faculty.wiu.edu/M-Cole/Rousseau.pdf
[9] Francis Fukuyama, The End of the History
and the Last Man (1992), https://www.marxists.org/reference/subject/philosophy/works/us/fukuyama.htm
[10]
उपरोक्त
[14] Letter
from Marx To his Father 1837, https://www.marxists.org/archive/marx/works/1837-pre/letters/letter-to-father.pdf
[15] Ludwig Feuerbach Essence
of Christianity, https://www.britannica.com/topic/The-Essence-of-Christianity
[17]
उपरोक्त
[19]
Marx, Manifesto of Communist Party, Progress, Moscow, 1974
[21]
उपरोक्त
[22]
उपरोक्त पृ.265
[23] Preface
to Address to 1st International, Inaugural
Address of the International Working Men's Association
https://www.marxists.org/archive/marx/works/1864/10/27.htm
[26]
Theses on Feuerbach op.cit.
[27]
Engels, Ludwig Feuerbach and the End of Classical German Philosophy, in
Karl Marx & Frederic Engels, Selected Woks (in one Vol.), Progress,
Publishers, Moscow, 1978, pp. 586-87
[28]
Communist Manifesto op.cit.
[31]
Karl Marx, Preface to A Contribution to the Critique of Political Economy
, Progress pblishers, Moascow, 1984,
pp.19-23
[34] Marx, The British Rule in India, New-York daily
Tribune, 25 June, 1853, https://www.marxists.org/archive/marx/works/1853/06/25.htm
[35]
K Marx, F Engels, The First Indian War of Independence (1957-58), Progrss,
Moscow, 1974
[36]
ईश मिश्र,सर्वहारा की तानाशाही के सपने
का सच होना, समयांतर, नई दिल्ली, नवंबर 2017
[37]
उपरोक्त
[39]
ईश मिश्र, सर्वहारा की तानाशाही के
सपने का सच होना, समयांतर, नई दिल्ली, नवंबर 2017
[40]
ईश मिश्र, पंजाब में जमीन प्राप्ति का दलित
आंदोलन, समयांतर, जून 2016
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