अर्थ ही मूल है। आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण के चलते ही शासक जातियां ही शासक वर्ग भी रही हैं। इसे धर्म- संस्कृति-सामाजिक वर्चस्व से जोड़कर जटिल बना दिया गया। अल्पसंख्यक हितों की रक्षा अपेक्षाकृत बहुसंख्यक की शक्ति से की जाने लगी। यही बात, हिंदुत्व-मार्का सांप्रदायिकता पर भी लागू होती है। औपनिवेशिक शिक्षानीति के उपपरिणामस्वरूप ज्ञान पर एकाधिकार के अंत से ब्राह्मणवादी वर्चस्व पर खतरा मड़राने लगा तो उस वर्चस्व को बरकरार करने के लिए हिंदुत्व की अवधारणा गढ़ी गयी, जिससे चंद लोगों के हितों की रक्षा में बहुजन की ताकत झोंकी जा सके। हिंदुत्व ब्राह्मणवाद की ही राजनैतिक अभिव्यक्ति है।
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