Wednesday, May 8, 2024

बेतरतीब 178 (शिक्षा)

2 साल पहले फीस बढ़ोत्तरी और राज्य की शिक्षा की जिम्मेदारी के विमर्श में मैंने एक अनुभवजन्य कमेंट किया था कि हम आधुनिक शिक्षा की पहली पीढ़ी के लोग लगभग मुफ्त में पढ़ाई किए और यह कि मैं विश्वविद्यालय पढ़ने जाने वाला अपने गांव का पहला लड़का था। हमारे ही गांव के हमारी अगली पीढ़ी के मेरे प्रिय एक उत्साही युवक ने कमेंट किया कि विश्वविद्यालय जाने वाला पहला व्यक्ति होने के बावजूद मैं गांव में को विद्यालय नहीं ला सका। और यह कि मुझसे भी प्रतिभाशाली की लोग रहे होंगे जो प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण विश्वविद्यालय नहीं जा सके। एक फैसलाकुन वक्तव्य दिया कि मुझे नौकरी न मिलती तो मैं पागल हो जाता। उस पर मेरा कमेंट:

हर इंसान की प्रतिभा और क्षमता अलग अलग होती है। विश्वविद्यालय में पढ़ा हर व्यक्ति में विद्यालय या विश्वविद्यालय खोलने का न तो हुनर होता है, न ही उसके पास आवश्यक संसाधन होते हैं।

पूंजीवाद में आम आदमीआजाविका के लिए अपनी श्रमशक्ति के बिक्री के फेर में पड़े रहने को अभिशप्त होता है क्योंकि पूंजीवाद ने श्रम शक्ति के मालिक यानि श्रमिक को श्रम के साधन से मुक्त कर दिया। और मैं एक आम आदमी हूं। आरक्षित श्रम शक्ति (Reserve army of labour) यानि बोरोजगोारों की फौज का निर्माण पूंजीवाद का दोष नहीं उसकी अंतर्निहित प्रवृत्ति है। श्रम की बाजार में, इससे, श्रम शक्ति की मांग-आपूर्ति (Demand-Supply) का समीकरण असंतुलित हो जाता है। इससे श्रम के मालिक (श्रमिक या मजदूर) की मोल भाव की क्षमता कम हो जाती है। जिसे ग्राहक मिल भी जाता है, वह बिना हीलाहवाला या सवाल-जवाब किए, खुशी-खुशी बाजार द्वारा तय शर्तों पर श्रमशक्ति बेचता है। मजदूर दो अर्थों में आजाद होता है -- एक तो वह अपना श्रम बेचने को आजाद होता है, दूसरे इस 'आजादी' को छोड़कर हर वह किसी शामम किसी पेड़ की डाल से लटक कर जान देने को स्वतंत्र है। और हर वह व्यक्ति जो भौतिक या बौद्धिक श्रमशक्ति बेचकर आजीविका चलाता है, मजदूर है। प्रोफेसर भी मजदूर है और चपरासी भी; कलम की मजदूरी से रोजी कमाने वाला लेखक भी मजदूर है और कुर्सी-मेज बनाने वाला बढ़ई भी। वर्गचेतना के अभाव में तमाम मजदूर प्रकारांतर से, जाने-अनजाने, शासक वर्गों के हित पूरा करते हैं, उन्हें लंपट सर्वहारा कहा जाता है। खैर विषयांतर हो गया। कहने का मलतब हर आम आदमी काम की जगह के अपने स्थानीय संघर्षों से इतनी मोहलत नहीं पाता कि अपने गांव में पर्याप्त समय बिताकर विद्यालय खोलने के समर्थन में पर्याप्त स्थानीय जनमत तैयार कर सके। अपने गांव मेें एक विद्यालय और लाइब्रेरी खोलने की मेरी इच्छा तो थी, लेकिन समर्थ नहीं हुआ।

अपने या किसी अन्य गांव-कस्बे या शहर में विद्यालय खोलने और चलाने के लिए संसाधन तथा व्यापारिक हुनर चाहिए, विश्वविद्यालय की शिक्षा नहीं। वैसे आपकी पीढ़ी के तो ज्यादतर लोग विश्वविद्यालय की शिक्षा पाए हैं, उनमें से कितने गांव में विद्यालय लाए?

पहले कुछ समर्थ लोग परमार्थ भाव से स्कूल-कॉलेज खोलते थे लेकिन अब तो शिक्षा पूरी तरह व्यवसाय बन गया है और जो लोग विश्वविद्याय-कॉलेज-स्कूल चला रहे हैं, जरूरी नहीं है कि पढ़े-लिखे ही हों। बहुत से माफिया और कई नेता कई-कई स्कूल कॉलेज चला रहे हैं।

व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के छात्रों मे धैर्य का अभाव होता है. एक छोटे पैरा के पूरे कमेंट को न पढ़कर एक लाइन लेकर आग-बबूला होने लगते हैं। किताब का एक पन्ना फाड़कर नहीं पूरी किताब पढ़ें। यह कमेंट शिक्षा के व्यवसायीकरण की आलोचना का हिस्सा है। शिक्षा राज्य की जिम्मेदारी होती है। हर वाक्य यदि संदर्भ में पढ़ेंगे तभी उसका आशय समझ सकेंगे। 'मैं विश्वविद्यालय जाने वाला अपने गांव का पहला लड़का था' लिखने के पीछे आत्मप्रशंशा का भाव नहीं, गांव के शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन का जिक्र है। बिल्कुल सही कह रहे हैं कि बहुत से लोगों में मुझसे अधिक प्रतिभा रही होगी और प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते वे विश्वविद्यालय नहीं जा सके। हां प्रतिकूल परिस्थितियों से दो हाथ करके आगे बढ़ने के लिए साहस; लगन; निष्ठा और कर्मठता की जरूरत होती है, तब और भी जब आजीविका की आत्मनिर्भरता की भी वाध्यता हो।

अंत में निवेदन है कि पूरा पैरा पढ़-समझ कर प्रतिक्रिया दें। सस्नेह।

मुझे नौकरी न मिलती तो मं पागल न हो जाता क्योंकि बचपन से ही लोग मुझे समझदार और भला कहते-समझते थे। बहुत दिन तक जब तकमुझे नौकरी नहीं मिली थी तब भी मैं इसी बेफिक्री से जीता था। हां, यह जरूर है कि इस नतमस्तक समाज में सिर उठाकर जीने की जिद छोड़ देता तो नौकरी कुछ पहले मिल जाती। जिनमें बिना मांगे या झुके मानवीय गरिमा के साथ जीने का जज्बा और आत्मबल का एहसास होता है, वे न तो कभी भूखों मर सकते न ही पागल हो सकते हैं, न ही उन्हें किसी धर्म की बैशाखी की जरूरत होती है। वे यह नहीं कहते कि जिसका कोई नहीं, उसका खुदा है, यारों। वे कहते हैं, जिसका कोई नहीं वह खुद है यारों।

बचकानी समझ के लोग प्रचलन से उनकी भिन्नता को उनका पागलपन कह सकते हैं। बचपन में मुझे मेरे बाबा प्यार से पागल कहते थे जिसकी शुरुआत मेरे किसी अप्रचलित परमार्थ के काम से हुई थी। सस्नेह।

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