बिल्कुल सही कह रहे हैं, हमारे क्षेत्र में (शायद पूरे देश में), खेती कामशीनीकरण हो चुका है, हल से जुताई नहीं होती और बैलगैड़ी का प्रचलन बंद हो चुका है। गायें बछड़ा भी ब्याती हैं।लेकिन विकस के इस चरण में बैल का कोई उपयोग नहीं रहा। जब तक गाय उस पारी का दूध देती है, तभी तक उसकी देखभाल होती है। उसके बाद उसे किसानों पर कहर बरपाने के लिए छोड़ दिया जाता है। पहले पशुओं की बिक्री किसानों के पास नगदी की आमदनी का एक महत्वपूर्ण श्रोत होता था। लोग अनुपयोगी पशुओं को धर्म की सियासत के भय से बेच नहीं सकते: गोरक्षक भीड़ के डर से कोई उन्हें खरीद नहीं सकता। उनकी मजबूरी को उनका अपराध समझकर उन्हें आवारा कहकर लोग परसंतापी सुख का आनंद लेते हैं। जब कोई किसी दुष्ट व्यक्ति को कुत्ता कहता है तो मैं पूछता हूं उन्हें कैसे मालुम कि कुत्ते दुष्ट होते हैं?हमारा तो आवारा घोषित कुत्तों के साथ बहुत अच्छे अनुभव रहे हैं। पूरे जीवन में मां से एक ही बार मार खाया हूं, वह भी एक कुत्ती के चक्कर में। याद नहीं है कि कितनी उम्र रही होगी, लेकिन 5 साल से अधिक रही होगी क्योंकि पांचवे साल में मेरी मुंडन हो चुकी थी और मैं शायद कक्षा 1 या 2 में पढ़ता था। पता नहीं क्यों कुत्ते मुझे पसंद नहीं थे, हो सकता है, उनके बारे में प्रचलित सामजिक अवधारणा के चलते या फिर इस कारण कि उनकी तुलमना बुरे इंसानों से की जाती है! मेरे ताऊ जी दिल्ली से एक पिल्ली ले गए थे। काले रंग की सुंदर सी थी। बहुत स्मार्ट थी, हम लोग नदी में कंकड़ फेंकते तुरंत पानीमें कूद जाती और वहकंकड़ निकाल कर ले आती। मैं जितना ही उसका सटना नापसंद करता था उतना ही वह मुझसे दुलार दिखाती। एक दिन धूप में बैठे थे कि आकर पैर सहलाने चाटने लगी। खीझकर मैं उसे एक थप्पड़ दिया, मेरी मां पता नहीं कहां से अवतरित हुई और किसी बच्चे पर कभी हाथ न उठाने की छवि वाली मेरी मां ने वास मुझे एक थप्पड़ यह कहते हुए दिया कि निरीह जानवर तुम्हारा क्या बिगाड़ रहा है। तब से कुत्तों से मेरी चिढ़ खतम हो गयी। इस कहानी से यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि मां के थप्पड़ से सोच बदल गयी, थप्पड़ तो आवेश में चल गया, मरेी सोच बदली थप्पड़ के साथ के साथ के तर्क से। उसने तो मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं था।उसे मालुम नहीं रहा होगा कि कुत्ते मुझे नापसंद थे, (वैसे भी नापसंदगी का मेरे पास कोई स्पष्ट कारण नहीं था)और वह प्यार डताने की कोशिश कर रही हो। हो सकता है उसे मालुम भी रहा हो और उसने नापसंदगी का जवाब पसंदगी से देने की सोची हो। कुछ भी हो लेकिन उसे थप्पड़ मारने का कोी औचित्य नहीं था। मैं डंडा मास्टरों/अभिभावकों को नापसंद करता हूं। आप मार-पीट कर किसी बच्चे को विद्वान नहीं बना सकते, लतखोर जरूर बना देते हैंं। कमेंट में विषयांतर हो गया, क्षमा कुछ और भी अनुभव हैं, फिर कभी।
Friday, December 29, 2023
Wednesday, December 27, 2023
कैलीगुला
प्राचीन रोम में एक सम्राट था कैलीगुला
प्राचीन रोम में एक सम्राट था कैलीगुलाबशर्ते लोग उससे डरते रहें
लेकिन नफरत की इंतहां होने पर
लोग डर पार कर जाते हैं
लेकिन लगता है
इस सम्राट को लगता है
उसका डर नफरत नहीं
श्रद्धा को जन्म देता है।
श्रद्धा पैदा करता है।
कैलीगुलाअपने को शाश्वत खुदा कहता था
जब नफरत इंतहां पार कर गयी
उसके अंगरक्षकों ने ही उसे चौराहे पर कत्ल कर
उसकी खुदाई को धूल में मिला दिया।
Friday, December 22, 2023
कुश्ती छोड़ा है, मैदान नहीं
Tuesday, December 19, 2023
शिक्षा और ज्ञान 335 (आरक्षण)
कई दिन पहले, मंडल कमीसन और फलस्वरूप लागू आरक्षण को देश की अवनति का कारण बताने वाली एक मित्र की एक पोस्ट पर तब लिखाया एक कमेंट:
1990 के पहले भारत बहुत उन्नति कर रहा था, एकबैग पाताल में चला गया! आरक्षण, जातिवाद और जवाबी जातिवाद पर एक समावेशी विकल्प होना चाहिए। चुनावी जनतंत्र, संख्यातंत्र है। हर राजनैतिक दल अपने पक्ष में संख्याबल की लामबंदी के लिए तुष्टीकरण की राजनीति करता है। हर समाज में ऐतिहासिक रूप से कामगर (भारत के संदर्भ में शूद्र) ही बहुसंख्यक रहे हैं और हैं। शूद्र (पिछड़ी जातियां और दलित) श्रेणीबद्ध जातियों में बंटे है। पूंजीवाद की ही तरह जाति व्यवस्था में भी सबसे नीचे के पायदान वाले को छोड़कर हर किसी को अपने से नीचे देखने के लिए कोई-न-कोई मिल जाता है। पूंजीवाद में आधार आर्थिक है, जाति व्यवस्था में सामाजिक। इसीलिए जातीय भेदभाव कोकम करने के मकसद से बनाए गए आरक्षण के प्रावधान सामाजिक न्याय के प्रावधान कहलाते हैं।
शिक्षा पर एकाधिकार खत्म होने से 'ज्ञान' के आधार पर खत्म होते द्विज वर्चस्व को पुर्स्थापित करने के लिए मुसलमान के रूप में एक साझा खलनायक ढूंढ़कर, जातीय अंतर्विरोधों को ढकने के लिए संघ गिरोह धर्म के नाम पर लामबंदी करने के साथ जातीय तुष्टीकरण के लिए भी मोहन यादव और साय ढूंढ़ लाता है। जब तक सामाजिक चेतना के जनवादीकरण से संख्याबल जनबल में नहीं बदलता, किसी भी दल की सरकार आरक्षण को खत्म करने का खतरा नहीं उठा सकती, निजीकरण और उदारीकरण तथा नौकरियों में ठेकेदारी प्रथा को व्यापक बनाकर आरक्षण को अप्रांसंगिक भले बना दे। प्रतिभा को समुचित सम्मान देने के लिए जातिवाद के दानव और आरक्षण पर एक समावेशी विमर्श होनी चाहिए। प्रतिभा जन्मजात नहीं होती, आरक्षण का मकसद आरक्षण की जरूरत को खत्म करना होना चाहिए। ओबीसी आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर की आर्थिक सीमा शायद आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों की आर्थिक सीमा के ही बराबर है। हमारा मानना है कि जाति के विनाश के बिना क्रांति नहीं हो सकती और क्रांति के विना जाति का विनाश नहीं हो सकता। हम सब को स्व के स्वार्थबोध पर स्व के परमार्थबोध को तरजीह देकर आरक्षण और आरक्षण-विरोध की राजनीति से ऊपर उठकर जातिवाद के विनाश की दिशा में योगदान देकर सुखद जीवन जीना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से आरक्षण का मकसद जवाबी जातिवाद नहीं, जाति क विनाश है।
Monday, December 18, 2023
शिक्षा और ज्ञान 334 (मर्दवाद)
सामाजिक विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्तर और स्वरूप विकसित होता है। मर्दवादी समाज की सामाजिक चेतना पूरे समाज को प्रभावित करती है।मर्दवाद एक विचारधारा (मिथ्या चेतना) है और विचारधारा वर्चस्वशाली और अधीनस्थ (शोषक तथा शोषित) दोनों को प्रभावित करती है किसी लड़की को बेटा कहने वाला ही नहीं ऐसा साबाशी देने के लिए करता है, बल्कि वह लड़की भी उसे साबाशी ही समझती है। बाबू जी ही नहीं समझते थे कि माई को उनकी हर बात माननी चाहिए बल्कि माई भी उनकी आवाज सुनते ही अपना कर्तव्य समझ खाना छोड़कर भी दौड़ पड़ती थीं। मेरी बेटियों को कोई बेटा कह देता है तो अकड़कर जवाब देती हैं, "Excuse me, I don't take it as a complement". मैं कभी किसी बेटी को बेटा कहकर complement नहीं देता। किसी लड़के को बेटी कह दो तो सब हंसने लगते हैं। मैं तो 5 साल से कम था बड़े बाल के चलते अनजान लोग बेटी कह देते थे, एक पबार इतना गुस्सा आया कि मैंने प्रमाण के साथ प्रतिवाद किया कि मैं बेटी नहीं बेटा हूं। मेरी मुंडन 5वें साल में हुई थी। अब इतने छोटे के दिमाग में कहां से आता है कि बेटे की बजाय बेटी कहलाना बुरी बात होती है। सामाजिक चेतना का प्रभाव। लड़कियां शादी के बाद पति का सरनेम ले लेती हैं। स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के अग्रगामी अभियान के साथ स्थितियां बदल रही हैं। बहुत सी लड़कियां अपना सरनेम नहीं बदलतीं। कुछ स्त्री दावेदारी का आधा रास्ता तय करती हैं, अपना पुराना सरनेम छोड़े बिना पति का सरनेम भी लगा लेती हैं। कुछ स्त्री प्रधानन खुद प्रधानी करने लगी हैं धीरे धीरे प्रधानपति की प्रणाली समाप्त हो जाएगी। क्रमिक-मात्रात्मक विकास परिपक्व होकर क्रांतिकारी गुणात्मक विकास में तब्दील होता है। स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान के चलते आज कोई भी बाप सार्वजनिक रूप से नहीं कहता कि वह बेटी-बेटा में फर्क करता है, एक बेटा पैदा करने के लिए 4-5 बेटियां भले ही पैदा कर ले। यह स्त्रीवाद की सैद्धांतिक विजय है। विचारधाराके रूप में मर्दवाद के उन्मूलन के साथ यह विजय संपूर्ण होगी। जिसका भी अस्तित्व है, उसका अंत निश्चित है, मर्दवाद अपवाद नहीं है। जो भी लड़का मां-बाप कीतीसरी-चौथी-पांचवी संतान हो तो 99.99 फीसदी मामलों में उससे बड़ी सब बहनें होंगी। बाकी बाद में।
19.12.2021
Friday, December 15, 2023
हम तो बचपन से ही यूं ही कहते-सुनते रहे
Tuesday, December 12, 2023
शिक्षा और ज्ञान 333 (मैक्यावली)
मैक्यावली सझदार राजा (prudent prince) को सलाह देता है कि अपने पूर्व सहोगी रसूखदार लोगों को औकात में रखे और ऐसे वफादार लोगों को आगे बढ़ाए जिनके पास उसकी कृपा के अलावा कोई और संबल न हो।
शिक्षा और ज्ञान 332 (मैक्यावली)
मैक्यावली कुशल (समझदार) राजाओं (प्रिंसों) को सलाह के रूप में लिखी गयी 'प्रिंस' में लिखते हैं कि विजय से राज्य स्थापित करने के साथ प्रिंस को यह नहीं समझना चाहिए कि उसका काम खत्म हुआ है, बल्कि शुरू हुआ है। राज्य प्राप्त करना तो पहला पड़ाव ही है, यह रानीति का एक उद्देश्य है। अन्य दो उद्देश्य हैं सत्ता को बरकरार रखना और बढ़ाना। पहले उद्देश्य की प्राप्ति के बाद पहला काम है, सत्ता प्राप्त करने में जो सहायक रहे हैं उनके साथ क्या करना है। 2017 में एक पत्रिका के लिए, 'नव उदारवदी प्रिंस' शीर्षक से एक लंबा लेख लिखा था, जिस अंक के लिए लिखना था, वह डेड लाइन छूट गयी (समय पर पूरा नहीं कर सका। उसके बाद सोचाअगले अंक के लिए अपडेट कर दूंगा। तब से उस पर बैठ ही नहीं पाया ।
मास्टरों की बुरी आदत होती है (जनरलाइजेसन नहीं) क टेक्स्ट के बीच में फुटनोट चेंप देते हैं। तो नए प्रिंस को सबसे सबसे ज्यादा खतरा अपने करीबियों से होता है। सबसे पहले उनको दरकिनार कर देना चाहिए। उस जमाने में (मैक्यवली के अनुसार) दरकिनार करने के लिए धोखे से हत्या भी जायज तरीका था। जनतंत्र में समझदार प्रिंस इतने क्रूर नहीं होतेष उन्हें दरकिानर करने के बहुत से हाईटेक जनतांत्रिक तरीके हैं। क्रांति (विजय) मे ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बड़ा हिस्सा मांगते हैं। दरबार में फर्सी लगाते समय उन्हे लग सकता है कि यह भी तो मेरे जैसा ही है थोड़ा चीजें अलगहोतीं तो मेरी जगह वह होता और वह उसे फर्सी लगा रहा होता। सहायकों में दूसरी कैटेगरी है पांचवे कॉलम की यानि दुश्मन खेमे के सहायकों की। वे अपने को किंगमेकर समझ रहे होते हैं और उन्हें लगता है कि उन्हें सबसे बड़ा हिस्सा मिलना चाहिए। ऐसे लोगों को पूरी तरह नजरअंदाज करने की सलाह देता है, इन्हें कुछ दानदक्षिणा देकर 'खुश' कर देना चाहिए। दरबार में जहां भी जो भी जगह मिल जाए या नभी मिले, उन्हें उससे ही खुश होना पड़ेगा। प्रिंस की कृपा स्वीकार करने के अलावा के अलावा उनके पास कोई रास्ता ही नहीं होता। अपने पुराने राज्य के लोग उन्हें गद्दार समझते हैं और नए राज्य के लिए वे नए होते हैं।बाकी, बाद में। 2017 का लेख जल्दी ही अपडेट करने की कोशिश करूंगा।
Monday, December 11, 2023
शिक्षा और ज्ञान 331 (दो बांके)
स्कूल में किसी क्लास के कोर्स में भगवती चरण वर्माकी कहानी ' दो बांके' पढ़ा था और बांको का चरित्र आज भी दिमाग में सजीव है। लाइब्रेरी में कुछ विलंबित काम पूरा करने की कोशिश कर गहा हूं। मेज पर भगवती चरण वर्मा की कहानियों का एक संकलन दिख गया पलटनें के लिए उठाया और पहली पलट में दो बांके का पेज खुल गया और शुरू से अंत तक पूरी कहानी पढ़ गया, लगा पहली बार पढ़ रहा हूं। सभी रचनाएं समकालिक होती हैं, महान रचनाएं सर्वकालिक हो जाती हैं, जितनी बार पढ़िे पहली बार लगता है। अच्छी कहानी शब्दों से परिघटनाओं के विजुअल्स बनाती है।
Saturday, December 2, 2023
किसान आंदोलन
ठंड बढ़ने के साथ किसानों का जमावड़ा बढ़ता जा रहा है दिल्ली की सिंधुसीमा पर हरयाणा में लाखों किसान जमे हैं उनकी तादात बढ़ती जा रही है। गाजीपुर सीमा पर उप्र में भी हजारों किसान कमर कसकर जुटते जा रहे हैं। किसान जीतेगा तो देश जीतेगा और जीतेगा ही क्योंकि हारने पर मुल्क पर विश्वबैंक की वफादारी में मुल्क पर नवउदारवादी पूंजी की गुलामी का शिकंजा कस जाएगा और आजादी की भीषण लड़ाई छिड़ जाएगी और तब जोआजादी आएगी उसमें अगली किसी गुलामी की गुंजाइश नहीं रहेगी। लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि किसान जीतेगा क्योंकि इतिहास को इसकी जरूरत है। नवउदारवादी भूमंडलीय साम्राज्यवाद उदारवादी औपनिवेशिक साम्राज्यवाद से इस मायने में अलग है कि अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सारे सिराजुद्दौला भी मीर जाफर बन चुके हैं।
जय किसान, इंकलाब जिंदाबाद।