3 साल पुरानी एक पोस्ट तथा उस पर विमर्श का एक कमेंट
जातिवाद(ब्राह्मणवाद) के विरुद्ध जब भी बोलता हूं लोग नाम के पीछे से मिश्र हटाने की सलाह देते हैं. वैसे तो जातिसूचक सरनेम न हो तो बेहतर है लेकिन सर्टीफिकेट में हेड मास्टर ने लिख दिया तो चलता आया. वैसे भी मैं पैदा होते ही नास्तिक तो हो नहीं गया 13 साल में जनेऊ तोड़ने के साथ बाभन से इंसान बनना शुरू कर दिया था. एक मित्र ने आज भी यही सलाह दिया उनको मेरा जवाबः
मित्र, बंगलोर को बंगालूरू कर देने से कोई फर्क पड़ा है क्या? डॉ. जगन्नाथ मिश्र डॉ. जगन्नाथ बनने से ब्राह्मणवादी होना नहीं छोड़ दिये? किसी के जन्म के संयोग में उसका कोई हाथ नहीं है. आप कहां पैदा हो गये उसमें आपका हाथ नहीं है. महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप कहां पैदा हो गये, महत्वपूर्ण यह है कि कहीं भी पैदा होकर आप इतिहास को कैसे समझते हैं. जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूल मंत्र है, जो भी ऐसा करता है वह जाने-अनजाने ब्राह्मणवाद को पोषित करता है. जन्मना ब्राह्मण भी, यदि जड़बुद्धि न हुआ, तो ब्राह्मणवाद की विसंगतियों तथा विद्रूपताओं को स्पष्ट देख सकता है. वैसे सही कह रहे हैं बाभन से इंसान बनने में लंबा आत्मसंघर्ष करना पड़ता है. यह सवाल ब्राह्मणवादी भी पूछता है, नवब्राह्मणवादी भी. थोड़ा मजाक में कहूं तो इसलिए भी नहीं हटाता कि यहसास होता रहे कि समाज को हजारों साल जड़ता के जाल में फंसाने वालों में मेरे पूर्वज भी हैं.
12.05.2016
Dinesh Pratap Rao Dixit & DS Mani Tripathi मित्र, ऊपर पोस्ट में यही स्पष्ट किया गया है कि जिस तरह जनेऊ तोड़ना 13 साल के देहाती बालक की सामाजिक चेतना के स्तर पर सोचा-समझा चुनाव था, उसी तरह नाम के पुछल्ले के तौर पर मिश्र को ढोते रहना। जिस तरह जनेऊ की न जरूरत थी न औचित्य, उसी तरह मिश्र हटाने की न जरूरत है न औचित्य। एक बार चुंगी पर किसी सवाल के जवाब में कहा था कि प्रकृति द्वंद्वात्मक है। वर्गसमाजों में हर व्यक्ति के स्व के दो भाग होते हैं -- स्व का स्वार्थबोध और स्व का न्यायबोध। स्वार्थबोध पर परमार्थ(न्याय)बोध को तरजीह देने वाला स्वार्थी से ज्यादा सुखी रहता है। शिक्षक को प्रवचन से नहीं मिशाल से पढ़ाना होता है, बाप को भी।जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से ऊपर उठने के लिए 'बाभन से इंसान बनने' के मुहावरे का ईजाद करने वाले को सबसे पहले खुद बाभन से इंसान बनकर दिखाना होगा।अपने सिद्धांत को व्यवहार में जीना पड़ता है। प्रैक्सिस ( सिद्धांत-व्यवहार की एकता) का सिद्धांत तथा आत्मालोचना का सिद्धांत मार्क्सवाद की प्रमुख अवधारणाएं हैं। ब्राह्मणवाद (वर्णाश्रमवाद या जातिवाद) की क्रूर विसंगतियों की समझ तथा उन्हें उजागर करना, जन्मना एक ब्राह्मण ईश मिश्र की आत्मालोचना है। जहां तक ब्राह्मणवादियों या नवब्राह्मणवादियों की गालियों का सवाल है, उन्हें मैं कॉम्लीमेंट की तरह लेता हूं, बस कभी-कभी भूल जाता हूं कि 42 साल पहले 20 साल का था, और ट्रोलों को तैश में उन्हीं की भाषा में जवाब देकर पछताता हूं। यह भी जीवन का हिस्सा है। वैसे तो इतिहास की वैज्ञानिक समझ और वैज्ञानिक सामाजिक चेतना के निर्माण का नैतिक दायित्व मिश्रों, दीक्षितों, त्रिपाठियों...... का ज्यादा है, क्योंकि उन्हें बौद्धिक संशाधनों की पारंपरिक सुलभता रही है। वंचित तपकों को जैसे ही बौद्धिक संसाधनों की सुलभता हुई, उन्होंने वैकल्पिक वेद लिखना शुरू कर दिया, शंबूकों ने तीरंदाजी भी सीख ली और एकलव्यों ने अंगूठे के बिना तीर चलाने के साथ, कलम भी उठा लिया है। एक मिश्र की ब्रह्मणवाद की आलोचना, आत्म-अपराधबोध की भी अभिव्यक्ति है। जिन लोगों ने ज्ञान का पौराणीकरण करके उसपर अएकाधिकार के जरिए समाज की बहुसंख्यक प्रतिभा की व्यर्थता के जरिए समाज में जड़ता संचार के दोषियों में हमारे पूर्वज भी हैं।
13.05.2016
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