Wednesday, February 29, 2012

28 फरवरी.

क्या-क्या भूलते रहेंगे? `भूल जाओ शाह आलमों-रामनारायनों-मेरे जाफराओं को जिनकी दुर्वुद्धि और निहित स्वार्थों के चलते व्यापारिक कम्पनी सैकड़ों साल देश लूटती रही. इतिहास-बोध से मुक्त एवं दलाली-अर्थशास्त्र-बोध से युक्त हमारे “बेचारे, ईमानदार” प्रधानमंत्री को भले ही अग्रेजी हुकूमत भारत की भाग्य-विधाता लगती हो, जैसा कि उन्होंने ऑक्सफोर्ड की मानद डिग्री लेते हुए आभार के अपने उदगार में उन्होंने घोषित किया था, लेकिन हकीकत यह है कि जब भग्य-विधाता ने व्यापार के बहाने भारत-भूमि पाँव रखा था उस समय पूरी दुनिया के गैर-खेतिहर औद्योगिक उत्पादन की एक तिहाई का उत्पादक भारत था. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का मतलब था, भारत और पूर्व एशिया, खासकर चीन के साथ व्यापार. जब वे गए तो देश की अर्थव्यवस्था में, भारतीय रेल के साथ सेवा क्षेत्र समेत औद्योकिक योगदान ६ फीसदी से थोड़ा ज्यादा था. भूल जाएँ उन मेरे जाफरों-रामनारायनों को जिससे भूमंडलीय कारपोरेटों के हाथ देश नीलाम करने वाले आज के मीर जाफरों-रामनारायानों और शिराजुद्दौला के भेष में मीरजाफरों से भी ध्यान हटा रहे. भूल जाओ हिटलर को आदर्श मानने वाले मौदूदियों और गोल्वल्कारों को जो आंदोलन के रूम में उभरती सामासिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को कमजोर करने और राष्ट्रीय आंदोलन की धार को कुंद करने के मकसद से साम्प्रदायिकता का जहर फैलाते रहे, जिसकी परिणति भयावह रक्तपात और अनैतिहासिक पलायन के साथ देश के बंटवारे में हुई, जिसके घाव कश्मीर-समस्या के रूप में आज तक रिस रही है. कैसे भूल सकते हैं ६ दिसंबर और २८ फरवरी की तारीखें, ये तारीखें एक बार फिर मानवता के विवेकसम्मत तर्क पर धार्मिक उन्माद और आस्था के कुतर्क के विजय की काली तारीखें हैं. कब तक धार्मिक भावनाओं को आहात होने से बचाने के लिए धर्म पर बहस से बचाते रहेंगे. इन तारीखों को याद रखने की आवश्यकता है जिससे करोंणों के खर्च से आयोजित से मोदी के “सद्भाव” के झांसे न चल सकें.

Sunday, February 26, 2012

. मार्क्सवाद 1

. मार्क्सवाद व्यक्तिगत आज़ादी का विरोधी नहीं, सभी की वास्तविक व्यक्तिगत आज़ादी का घोर हिमायती होने के ही चलते उदारवादी आज़ादी के भ्रम को तोड़ता है क्योंकि व्यक्ति के स्वायत्त अस्तित्व की अवधारणा एक भ्रम है, कोई भी व्यक्ति गुलाम या मालिक व्यक्ति के रूप मे नहीं बल्कि समाज में, समाज के द्वारा, समाज के स्थापित संबंधों के तहत, समाज के अभिन्न रूप के रूप में वह गुलाम या आज़ाद होता है. व्यक्ति सदा स्वार्थपरक होकर निजी इछ्कओं की पूर्ती को ही जीवन का उद्देश्य मनाता है, यह भी एक पूंजीवादी विचारधारात्मक दुष्प्रचार है. यह आज़ादी औरों से सहयोग की नहीं अलगाव की, दूसरों की आज़ादी की बेपरवाही की, बेरोक-टोक लूट और संचय की अज्ज़दी है. सवाल उठाता है क्या किसी परतंत्र समाज में कोई निजी स्वंत्र हो सकता है? निजी स्वंत्रता समाज की स्वतंत्रता से जुड़ी है. आज़ाद होना चाहते हैं तो समाज को आज़ाद करें. मेरे विचार से मार्क्सवाद का मूल मंत्र है कि आज़ाद होना चाहते हो तो आज़ाद समाज का निर्माण करो, व्यक्तिगत आज़ादी,
“किसी भी समाज में श्रमशक्ति और रचनाशीलता को लूटना और खसोटना कह के” मैंने कभी नहीं संबोधित किया. बल्कि सारी समस्ययायें और एलीनेसन श्रमशक्ति और रचनाशीलता पर स्वाधिकार के क्षरण से होता है. श्रमशक्ति के फल पर और अंततः श्रमशक्ति पर खरीददार –पूंजीपति का अधिकार होता है. कोई भी श्रमिक कितना भी अधिक वेतन पाता हो संचय नहीं कर सकता, संचय के भ्रम में रहता है, संचय तो सिर्फ पूंजीपति ही कर सकता है. श्रम-शक्ति को उपभोक्ता सामग्री के दर्जे से मुक्ति दिलाना और उसे रचनाशीलता के रूप मे सम्मानित करना मार्क्सवाद का मकसद है. जी हाँ स्वायत्त अस्तित्व की धारणा विशुद्ध भ्रम है. ऐतिहासिक विकास के दौरान मनुष्य अन्य मनुष्यों के साथ अपनी इच्छा से स्वतन्त्र सम्बन्ध स्थापित करता है. मार्क्सवाद मनुष्य के behavioral aspect को नकारता नहीं बल्कि चेतना के रूप में उसकी वैज्ञानिक व्याख्या करता है. ऐतिहासिक भौतिकवाद, जिसे मार्क्सवाद का विज्ञान कहा जाता है, निरंतर शोध और अन्वेषण के जरये तथ्यों-तर्कों पर आधारित प्रमाणित और सत्यापित लिए जाने वाले प्रमेयों का समुच्चय है, किसी पूर्वाग्रह/पोंगापंथ/ईश्वर की इच्छा या मार्क्स के वक्तव्य पर नहीं. सत्य वही जो प्रमाणित किया जा सके. विकास के हर चरण की भौतिक परिस्थियां और तदनुसार समाजीकरण के अनुसार मानव चेतना का निर्माण होता है और बदली चेतना बदली भौतिक परिस्थियों का परिणाम है. लेकिन परिस्थियां स्वयं नहीं बल्कि सचेत मानव प्रयास से बदलती हैं. अतः सत्य भौतिक स्थितियों एवं चेतना का द्वंदात्मक संश्लेषण है.

Saturday, February 25, 2012

मर्दवाद १

मर्दवाद जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है और न ही कोई साश्वत विचार. मर्दवाद विचार नहीं बल्कि विचारधारा है जिसे हम रोजमर्रा के व्यवहार में निर्मित-पुनर्निर्मित करते हैं. किसी लड़की को शाबासी देने लिए हम उसे बेटा कह देते हैं और वह भी इसे प्रशंसा समझ स्वीकार कर लेती है. किसी लड़के को बेटी कह दीजिए तो वह नाराज हो जाएगा. विभिन्नता को असमानता के रूप में परिभाषित करने और उसी परिभाषा को असमानता के प्रमाण के रूप में इस्तेमाल करने वाली अन्य विचारधाराओं की ही तरह मर्दवाद भी रोटी-पानी के लिए स्वयंसिद्ध मिथकों और मान्यताओं पर निर्भर है. जब ये मिथक-मान्यताये और उनसे जुड़ी वर्जनाएं टूटती हैं तो यथास्थिति के ठेकेदारों को कल्चरल शाक (सांस्कृतिक संत्रास) लगता है, कुछ विभूति राय की तरह बौखला जाते हैं और मानसिक संतुलन खोकर उल-जलूल बोलने लगते हैं. "बाप रे! लड़की होकर.....". आप करें तो पुरुषार्थ हम करें तो पाप.

Sunday, February 19, 2012

देश की नीलामी

पुस्तक समीक्षा/ईश मिश्र

टी. नागीरेड्डी, भारत: एक बंधक राष्ट्र: एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी मूल्यांकन. (अनुवाद: रणजीत सिंह) पृष्ठ: ६१२. मूल्य: ३०० रुपये.
तरिमेला नागीरेड्डी मेमोरियल ट्रस्ट, विजयवाडा, २०११.

देश की नीलामी

सौभाग्य से, सरकार और सरकारी भोंपुओं द्वारा भारत की जनता के फायदे और विकास के लिए ब्रह्मास्त्र रूप में प्रचारित और अपरिहार्य करार देकर फुटकर क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने की सरकार की जिद्द, संसदीय अस्वीकृति के चलते फिलहाल टल गयी है. लेकिन खतरा टला नहीं है. हाल में दवोस मे संपन्न विश्व आर्थिक फोरम की मीटिंग से निवृत्त होकर, भारत के व्यापार मंत्री, आनंद शर्मा सीधे जर्जर हो रहे कार्पोरेटी दानव, वालमार्ट- दरबार में झेंपते हुए, सफाई और आश्वासन देने पहुँच गए, इस अंदाज़ में, “हुज़ूर, चिंता न करें, थोड़ा विराम लग गया है, सब ठीक हो जायेगा.” इतिहास की उपेक्षा करते हुए कार्पोरेटी, भूमंडलीय पूंजी के मुनाफे के लिए हजारों व्यापारिओं और मजदूरों की आजीविका को नष्ट करने वाले और किसानों एवं उपभोक्ताओं को एकाधिकार पूंजी के रहमो-करम पर ढकेलने वाले इस अधिनियम को पारित कराने के लिए, इतिहास-विमुख “अर्थशास्त्री” के नेतृत्व की सरकार कईं हर तरह के हथकंडे अपना रही है? साम्राज्यवाद के भूमंडलीकरण दौर में पूंजी का चरित्र अंतर्राष्ट्रीय से बदल कर इस अर्थ में भूमंडलीय हो गया है कि अब यह राष्ट्र-केंद्रित नहीं रहा. कई अर्थशास्त्री, ऐतिहासिक तथ्यों और तर्कों के आधार पर इसके भयंकर दुष्परिणामों से आगाह करते रहे हैं. किसानों, आदिवासियों, मछुआरों को उजाड़ कर देश में, कर-नियमों से मुक्त असंख्य विदेशी उपनिवेश से क्षेत्र निर्मित करने वाला विशेष आर्थिकार्थिक क्षेत्र (सेज़) अधिनियम संसद के सदनों मे लगभग आम-सहमति से चंद घंटों में, लगभग बिना बहस के पारित हो गया. विदेशी निवेश के नाम पर देश की गर्दन पर साम्राज्यवादी, भूमंडलीय पूंजी का फंदा कसता जा रहे हो और प्रधानमंत्री समेत तमाम मंत्री और इनके कारापोरेटी भोंपू इसे भारत की आबादी के सभी तपकों की समस्यायों का रामबाण बताने के अथक कुतर्क कर रहे हैं. भारतीय शासक वर्गों की हर तरह के झंडों की पार्टियां और सरकारें देश के “विकास” के लिए लोगों की लजाल-जमीन-प्राकृतिक सम्पदा के साथ बाजारें और अर्थतंत्र के सारे संसाधन देशी-विदेशी (भूमंडलीय), कार्पोरेटी पूंजीवाद को नीलाम करने की हडबडी में है. ऐसे में कामरेड टी. नागीरेड्डी के गहन शोध एवं चिंतन-मनन से तैयार, अकाट्य तर्कों-तथ्यों के साथ अपने और एक साथी के ऊपर चालए गए मुकदमें के दौरान सेसंस मजिस्ट्रेट की अदालत में दिए उनके बयान पर आधारित, पहली बार इंडिया मोर्टगेज्ड शीर्षक से मरणोपरांत १९७८ में छपी पुस्तक आज और भी प्रासंगिक है. ४० वर्ष पहले विदेशी निवेश के जरिए साम्राज्यवादी लूट के की समीक्षा के साथ जिन भावी दुष्परिणामो की बात इस शोधपूर्ण ग्रन्थ में की गयी है, वे हमारे सामने हैं. आज, संभवतः साम्राज्यवाद के इस अंतिम दौर में, विदेशी के खतरे अपने चरम पर हैं. अब किसी लार्ड क्लाइव की भी आवश्यकता नहीं है, सारे सिराज्जुद्दौला मेरे ज़ाफर बन गए हैं. कई भाषाओं में पहले ही प्रकाशित हो चुकी, हाल में तरिमेला नागीरेड्डी मेमोरिअल ट्रस्ट, विजयवाडा द्वारा इसके हिंदी अनुवाद. ‘भारत: एक बंधक राष्ट्र: एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी मूल्यांकन’ का प्रकाशन अत्यंत प्रासंगिक एवं प्रशंसनीय है.

कुपोषण; गरीबी-भुखमरी; अशिक्षा; बेरोजगारी; विस्थापन; भ्रष्टाचार ....... की अन्यान्य गंभीर समस्यायों से जूझते इस मुल्क के शासक सेंसेक्स-जीडीपी जैसे व्यापारिक अर्थशास्त्रीय जार्गनों की मदद से इसके विश्व-शक्ति होने के शगूफे छोड़ रहे है. विदेशी निवेश के शब्दाडंबर में लिपटी भूमंडलीय पूंजी किस तरह काम कर रही है और कैसे हमारे अर्थतंत्र की गर्दन पर साम्राज्यवादी सिकंजे को कस रही है, आम आदमी के लिए समझ पाना मुश्किल है. तमाम श्रोतों से एकत्रित सामग्री के गहन अन्वेषण के आधार पर कामरेड टी. नागीरेड्डी द्वारा मार्क्सवादी-लेनिनवादी परिप्रेक्ष्य से उनका विश्लेषण और सटीक निष्कर्ष, यह समझने में काफी मददगार है.

टी. नागीरेड्डी एंटोनियो ग्राम्सी और भगत सिंह की परंपरा के क्रांतिकारी-विद्वान थे जिन्होंने जेल को अध्ययनशाळा बना लिया था और अदालतों का उपयोग हालात के जनपक्षीय विश्लेषण और उन्हें बदलने के क्रांतिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार के मंच के रूप में किया. १९१७ में जन्में टी.नागीरेड्डी १९४० मे एम्.ए. के बाद क़ानून की पढ़ाई शुरू करते ही सरकार की निगाह में तभी आ गए जब उन्होंने युद्ध की विभीषिकाओं का विश्लेषण एक पुस्तक, ‘युद्ध के आर्थिक परिणाम’ में किया. इस “जुर्म” में उन्हें एक साल की सजा मिली, लेकिन एक साल बाद जेल से बाहर आने के पहले, १८६० में बने डिफेन्स ऑफ इंडिया रुल (डी.आई. आर) के तहत गिरफ्तार हो गये. तबसे १९७६ में अकाल मृत्यु तक, जीवन का ज्यादा हिस्सा “आज़ादी” के पहले और बाद जेल में या भूमिगत बिताने वाले, इस औपनिवेशिक क़ानून के तहत कई बार गिरफ्तार हुए. एक विचारक, प्रखर वक्ता और सक्षम संगठनकर्ता के रूप में, क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाले कामरेड टी. नागीरेड्डी आजीवन भारतीय क्रान्ति के लिए सक्रिय रहे. उनके विचार स्वाध्याय और संघर्षों में शिरकत से उपजे, इस लिए वे सही मायने में, किसान-मजदूर वर्ग के जैविक बुद्धिजीवी थे. हर संभव श्रोत से एकत्रित आंकड़ों के विश्लेषण से, भारत में बड़े व्यापार के विकास के रफ्तार की तेजी और विदेशी पूंजी मे वृद्धि के अंतरंग अन्तःसंबंधों और भारतीय पूंजीपतियों के दलाली के चरित्र संबंधी उनके निष्कर्ष, आज, वित्तीय पूंजी के भूमंडलीय दौर में तब से ज्यादा ही प्रासंगिक हैं. १९४७-५१ तक्क भूमिगत रहने के बाद १९५२ से १९६९ तक वे विधान सभा के सदस्य के रूप में इसके दिवालिया का भंडाफोड़ करते रहे और अंततः इसकी न्रार्थाकता महसूस कर १९६९ में इस्तीफा दे दिया. पुस्तक में परिशिष्ट के रूप में शामिल इस्तीफे का उनका बयान एक ऐतिहासिक दस्तावेज तो है ही, अपराधियों और कार्पोरेटी दलालों से परिपूर्ण संसद और विधानसभा की कार्यवाहियों को देखते हुए समकालीन और सार्वकालिक लगता है. “मैं एक ऐसे समय में इस्तीफा दे रहा हूँ जब हो गया है कि विधानसभाएं गप्पबाजी का अड्डा और जनता के हितों के नाम पर उपहास करने का अखाड़ा बन चुकी हैं. ........ तब हमारा कर्तव्य क्या है? मुल्क की रक्षा करने का लोगों के पास एक ही उपाय है कि वे साम्राज्यवाद और सामंतवाद के दलाल शासकवर्गों के खिलाफ संघर्ष के लिए जन-समुदायों को लामबंद करके एक दीर्घकालीन जन-क्रान्ति के लिए प्रेरित करें. मैं भी अपने इसी कर्तव्य को पूरा करने के लिए असेम्बली को त्याग कर मेहनतकश जन-समुदायों के बीच जा रहा हूँ.”

अपने राजनैतिक अनुभव और प्रामाणिक आँकड़ों के आधार पर लेखक ने तर्क-संगत ढंग से दर्शाया है कि भारत साम्राज्यवादी आर्थिक नीतियों के जाल में फंस कर उसी तरह से एक बंधक राष्ट्र बन चुका है जैसे कर्ज के भार में डूबा गरीब व्यक्ति बंधुआ मजदूर बन जाता है. विदेशी पूँजी; भारतीय दलाल पूंजीपति; और सामंतवाद की भूमिकाओं एवं उनकी सांठ-गाँठ के ठोस धरातल पर आंकलन के आधार पर दर्शाये गए घातक परिणाम आज विध्वंशक रूप अख्तियार कर चुके हैं. १९४७ में सत्ता हस्तांतरण के बाद भी मुल्क में ब्रिटिश पूँजी का एकाधिकार कायम रहा और दिन-ब-दिन इसमें बढोत्तरी होती रही, बाद में अन्य यूरोपीय देशो एवं अमेरिका की कंपनियों की पूँजी भी इसके साथ शामिल हो गयीं. भूमंडलीकरण के बाद से जहां एक तरफ साम्राज्यवादी पूँजी का चरित्र भूमंडलीय हो गया वहीं दूसरी ओर देश में अमेरिकी नेतृत्व वाली विदेशी पूँजी का वर्चस्व त्वरित गति से बढ़ता जा रहा है. पुराने उपनिवेशों में वर्चस्व कायम रखने के लिए, साम्राज्यवाद कई तरह के आर्थिक और राजनैतिक हथकंडे अपनाता है और कई लबादों में सामने आता है. उनमें से एक है, सह्योग – कोलोबरेसन. दूसरी है अनुदान, जिसका स्वरुप लगातार बदलता रहा है. शुरुआत में यह अनुदान था, फिर १९६० से रियायती दरों पर क़र्ज़ और १९ओ८० से बिना र्यायत कर्ज जो अब तक कायम है. जिसका सार है, पुस्तक लिखे जाने के समय सोविएत संघ समेत विदेशी ( अब भूमन्डलीय) पूंजी पर पूर्ण निर्भरता. साम्राज्यवाद के सह-उत्पादक,भारत के पूंजीपतियों की भूमिका दलाल पूंजीपति की बन गयी. ठोस तथ्यों और सत्यापित आँकड़ों के विश्लेषण के आधार पर लेखक का निष्कर्ष कि भारत में में दलाल पूंजीपतियों की काफी बड़ी हिस्सेदारी साम्राज्यवाद की देन है, भविष्यवाणी साबित हो रही है. १९७२ के मार्च-अप्रैल में अदालत में पढ़े गए अपने इस बयान, यानि इस पुस्तक में, लेखक ने तथ्यों और तर्कसम्मत तर्कों के आधार पर शासक वर्गों और उनके प्रतिनिधियों द्वारा मुल्क को अमेरिकी साम्राज्यवाद एवं तत्कालीन सोविएत सामजिक साम्राज्यवाद के हाथों गिरवी रखने की साज़िश का पर्दाफास किया है.

भूमि-सुधार के पाखण्ड को खंडित करते हुए साबित किया है कि इससे सामंती भू-स्वामित्व का ढांचा आधुनिककृत हो कर और मजबूत हुआ है. भारत को अर्ध-सामंती, अर्ध-औपनिवेशिक देश साबित करने के साथ कृषि-क्रान्ति को इनके विरुद्ध जनता की जनवादी क्रांति की धुरी के रूप में स्थापित किया गया है. यह पुस्तक इस विषय की व्यापक जांच करती है और सरकार के विभिन्न भूमि-सुधार अधिनियमों वास्तविक चरित्र का खुलासा करने के साथ मुद्दे की अहमियत स्थापित करती है. असंदिग्ध जनपक्षीय प्रतिबद्धता के साथ, क्रान्ति की व्यापक समस्यायों के संदर्भ में और सरोकार से, अर्थवयवस्था की जटिलताओं की सीधे-सरल ढंग से व्याख्या सराहनीय है. इस अध्ययन का एक निष्कर्ष यह है कि यदि समाज के सभी शोसित तपके खास शोषण के विरुद्ध विद्रोह करते हैं तो वर्ग संघर्ष की धार पैनी होती जायेगी और जनतांत्रिक क्रान्ति का रास्ता आसान होगा.
मुख्यधारा मीडिया की नज़रों से ओझल,आज कार्पोरेटी हितों की सेवा में किसानों की जमीने हडपना और विस्थापन के विरुद्ध आन्दोलनों को कुचलने के लिए राज्यों की क्रूरताएं और इससे निदान आज देश के जनपक्षीय शक्तियों के मुख्य सरोकार हैं. कलिंगनगर, नियामगिरी, जगतसिंह पुर, नोएडा ........ के विस्थापन विरोधी आन्दोलनों के क्रूर दमन, आलनकारियों के खिलाफ फर्जी मुक़दमें आम बात हो गए है. ऐसे में कामरेड टी. नागीरेड्डी के कृषि-क्रान्ति के जनवादी जन-क्रांतियों की धुरी होने की बात अनायास याद आ जाती है. “एक सफल क्रान्ति के लिए आवश्यक मनोगत परिस्थियां स्वतः निर्मित नहीं होतीं”, समाजवादी चेतना मजदूरों के संघर्षों से स्वतः नहीं पैदा होतीं. “इसे मजदूर वर्ग की पार्टी द्वारा बहार से उत्पन्न किया जाता है”, और वे स्वयं आजीवन अपने भाषणों; लेखन और संगठन से इस दिशा में योगदान देते रहे.

दर-असल, यह कामरेड टी. नागीरेड्डी के दो बयानों का दस्तावेज है, यद्यपि उनका असेम्बली से इस्तीफी वाला बयान आकार में छोटा है और परिशिष्ट के रूप में शामिल है. दोनों ही भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलनों के संधर्भ में ऐतिहासिक दस्तावेज हैं. यह पुस्तक भारतीय शासक वर्गों और भारतीय राज्य के चरित्र और विदेशी पूँजी-निवेश के दुष्परिणामों मार्ग-दर्शक और सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह है.

Saturday, February 11, 2012

सफाई

मित्रों, जे.पी. नरेला ने मेरे सरनेम को मेरे विचारों और संघर्षों पर वरीयता देते हुए, मुझे लगभग ब्राह्मणवादी घोषित कर दिया, उनके आरोपों के जवाब में मैं अपना कमेन्ट यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ.

अब मैं वापस दलित जाती में तो पैदा नहीं हो सकता. मार्क्सवाद का एक प्रमुख सिद्धांत है, प्रैक्सिस का सिद्धांत जो कथनी-करनी की एका का हिमायती है. अब आप मुझे जानते नहीं तो कैसे विश्वास दिलाऊँ कि वर्नाश्रम्वाद की विसंगातिओं पर लगातार प्रहार करता रहा हूँ और मंडल विरोधी आंदोलन उन्माद के दौरान स्पष्ट स्टैंड लेने के लिए नौकरी से हाथ धोना पड़ा था. आपकी बातों से एक मंडल विरोधी "विद्वान" की याद आती है. आपकी और उनकी समझ में विलोमता सक्मझ की एकता दर्शाता है. सभी धर्म, स्वभावतः प्रतिगामी होते हैं, हिन्दू धर्म, सर्वाधिक. अन्य धर्मों में समानता की कम-से-कम सैद्धांतिक गुंजाइश होती है, हिन्दू धर्म में वाह भी नहीं. आप पैदा ही असक्मान होते हैं, और उन सज्जन और आप जैसे लोग, biological accident से मिली अस्मिता से निकलने की संभावनाओं को सिरे वसे नकार देते हैं. अगर मेरे नाम के साथ मिश्र न लगा होता तो आपकी प्रतिक्रिया कुछ और होती. दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक्संघ की सभा में मंडल-विरोधी उन्माद के विरुद्ध मैं मक्नुवाद-विरोधी नारे लगा रहा था. सभा के बाद चाय पीते हुए सोने की सीकड़ स्वे सुसज्जित उन प्रोफ़ेसर महोदय ने पूछा, "What is your name, by the way"? मैंने कहा, "Not by the way, my name is Ish Mishra" . उन्होंने फिर पूछा, "Mishras are brahmins, I believe, but you were shouting slogans against anti-Mandal?". i told "You are right, I would continue doing that but that is beyond your "anti-caste" casteism". ब्राह्मण मुझे अन्त्यज मानते हैं अब अगर आप मुझे ब्राह्मण मानें तो इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता. बल्कि बाहट से पढ़े लिखे दलित नव-ब्राह्मणों जैसा व्यवहार करते हैं, वे आपको स्व्वेकरी हैं, मायावाती ब्रक़ह्मन और विषय सभ्हएं करती है, उससे आपको कोई परेशानी नहीं होगी. आपसे आग्रह किया था, नीचे की पोस्ट पर आप मेरा खंड-काव्य पढ़ें, लेकिन आप तो जिद पे अड़े हैं कि नाम पढ़ कर ही राय बनायेंगे. दलित महिलाओं के ऊपर सर्वाधिक अत्याचार मायावती के राज में हुआ और बहुत से मामलों मे बसपा के नेता/मंत्री/विधायक/पोषित-अधिकारी, पुलिस-कर्मी दोषी रहे हैं, उससे भी शायद आपको परेशानी नहीं होगी? मायावती के लिए लूट का इंतज़ाम शशांक शेखर और सतीश मिश्र करते हैं, इससे भी आपको परेशानी नहीं होगी?? जौनपुर में दलित उम्मीदवार की हत्या मायावती के मुंहबोले बाहुबली धनञ्जय सिंह ने करवाई और बहुजन समाज ने उस अपराधी को कवच प्रदकान किया, उससे भी आपको परेशानी नहीं होगी?? उसके तमाम मंत्री अराध-लूट के मक़मले में दोषी पाए गए कुछ को उसने कार्य-काल समाप्ति के आस-पास चुनाव के पहले निकालने का ढोंग किया और जरूरत पडी तप चुनाव के बाद फिर उन्हें अपना लेगी इससे भी आपको शायद ही पेशानी नहीं होगी??? मित्र नव-मनुवाक़दी माइंड-सेट से निकालें और चीजों को समग्रता में समझने की कोशिस करें. एक इंसान जिसने जीवनभर ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष किया हो उसे ब्राह्मण की गाली कितनी खलेगी उसे आप नहीं समझ सकते उसी तरह जैसे चतुर्वेदी जी दलित होने पीड़ा नहीं समझ सकते. प्रणाम. मैं अब इस बहस से विदा लेता हूँ.

Wednesday, February 8, 2012

किसान-मजदूर

किसान से बने मजदूर

ईश मिश्र

रहते थे गाँव में करते थे खेती
रहने खाने की कोइ कमी न थी
चावल-दाल-सब्जी अंचार के साथ खाते थे
नदी तीरे जंगल में गाय-भैंस चराते थे
दूध-घी की कमी न थी
लुटी अपनी ज़मीं न थी
खेत-बाग़ अपने थे
आते-सुहाने सपने थे
तभी हुआ राष्ट्र निर्माण का ऐलान
खेतों में उगेंगे अब सीमेंट के बगान
जिसके लिए चाहिए जेपी सेठ को हमारी जमीन
आ गया राष्ट्र तान बारूद की मशीन
हमको भी दिखाया भविष्य के सपने हसीन
टूट गए जो जन्मते ही बेचारे दीं-हीन
उजाड़ दिए घर लूट ली जमीन
II
निकल पडा रोजी-रोटी की तलाश मे
बुलाया जेपी सेठ ने कहा काम तो है पास में
मरता-क्या न करता मान लिया सेठ की बात
देख खेत के हाल रो पड़े जज़्बात
बनने लगी गगनचुम्बी अट्टालिका जब मेरे खेत में
उगा लिया हम मजदूरों ने झुग्गी बस्ती नदी की रेत में
शहर बन गया ग्राम
जेपी नगर पड़ गया नाम
शहर की शहनाइयों में झुग्गी के ढोलक का क्या काम?
हो गयीं जब अट्टालिका पूरी तरह आबाद
कर दिया हमारी बस्ती को आगजनी से बर्बाद
ख़ाक हो गए विस्तर-वर्तन आग की चिंगारी से
जोड़ा था जिसे खून-पसीने की मजदूरी से

[तीन जुलाई दो हजार ग्यारह]

Sunday, February 5, 2012

लोकतंत्र

यह लोकतंत्र थैलीशाहों की चेरी है
वर्दियों से वह चहुँ ओर से घिरी है
वर्दियां बनती तो हमारी खून पसीने की कमाई से
करती हैं ज़ुल्म हम पर पूरी बेहयाई से
अदालतें भी ऐसे जैसे उन्ही की लुगाई हों
सोनी सोरी पर ज़ुल्म जैसे उनकी ही दुहाई हो
अंकित गर्ग की दरिन्दगी को बहादुरी का इनाम
इस लोकतंत्र का है यही असली अंजाम
जितने भी हरामखोर हैं दुनिया जवार में
पद्म-विभूषित होते अगली कतार में

Wednesday, February 1, 2012

अदम गोंडवी

सामाजिक बदलाव के शायर, अदम गोंडवी का न रहना

ईश मिश्र
गोंडा जिले के आटा-परसपुर में १९४७ में “आज़ादी” के कुछ महीनों बाद, २२ अक्टूबर को पैदा हुए, “अमीरों से फैसलाकुन जंग” के हिमायती, असन्दिग्ध जनपक्षीय प्रतिबद्धता के साथ. “वर्गे-गुल की शक्ल में शमशीर” की तरह “मशरिकी फन में नयी तामीर” की अपनी गज़लों से “होशोहवास में” जनता से “बगावत” की गुहार लगाने वाले जनकवि, रामनाथ सिंह – अदम गोंडवी – १८ दिसंबर २०१२ को दिवंगत हो गए. अदम जी को अगली पीढ़ियों की क्षमताओं पर अडिग विश्वास था, इस लिए यह तो नहीं कहूँगा कि अदम जी के न रहने से जनपक्षीय राजनैतिक कविता के क्षेत्र में निर्वात पैदा हो गया है, लेकिन बहुत दिनों तक खालीपन महसूस होता रहेगा. अदम जी कबीर परम्परा के कवि थे. कबीर ने कलम को हाथ नहीं लगाया था, अदम जी ने गांव की प्राइमरी पाठशाला से पांचवीं जमात तक पढ़ाई की थी, जनसत्ता के पहले आधुनिक पैरोकार, अठारहवीं शताब्दी के दार्शनिक, रूसो जितनी, जिनका ज़िक्र अदम जी ने अपनी एक कविता में किया है. ठाकुर रामनाथ सिंह से अदम गोंडवी बनने की यात्रा स्वाध्याय और कठिन आत्म-संघर्षों की यात्रा रही है. आज़ादी के चंद महीनों बाद जन्मे, अद्भुत समझ अवं संवेदनशीलता और सम्प्रेषण की पैनी धार एवं दलित-शोषित के प्रति असंदिग्ध प्रतिबद्धता वाले अदम गोंडवी को आज़ादी की हकीकत जल्दी ही समझ में आ गयी. “सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है/दिल पे रख कर हाथ कहिये मुल्क कया आजाद है/कोठिओं से मुल्क के मेआर को मत आंकिये/असली हिन्दुस्तान तो फूटपाथ पर आबाद है/.....ये नई पीढ़ी पे निर्भर है वही जजमेंट दे/फल्फा गांधी का मौजूं हैकि नक्सालवाद है......”. और यह कि “जो डलहौज़ी न कर पाया ये हुक्मरान कर देंगे/कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे/.......सदन को घूस देकर बच गयी कुर्सी बच गयी तो देखोगे/अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे.

"मेरी खुद्दारी ने अपना सर झुकाया दो जगह/वो कोइ मज़लूम हो या साहिबे किरदार हो." साहित्यिक प्रतिष्ठानों और प्रतिष्ठित साहित्यिकों की उपेक्षा और अवमानना एवं आर्थिक अभावों को धता बताते हुए, सिर्फ मजलूम और साहिबे किरदार के सामने सर झुकाने वाले, गंवईं किसान, जनपक्षीय चिंतक-कवि, अदम गोंडवी, अपनी अदम्य जनपक्षीय प्रतिबद्धता और साहस के साथ, मजलूमों और मुफलिसों की पीड़ा और आक्रोश को शब्दों में पिरोकर जन-द्रोहिओं को बेनकाब करके जन-विद्रोह के आह्वान की कवितायें लिखते हुए खुद्दारी से जिए.अंतिम समय में मित्र-प्रशंसकों का उनके इलाज़ के लिए चंदे की अपील जारी करना उन्हें नागवार लगा और खुद्दारी के साथ उन्होंने किसी के प्रति बिना किसी कृतज्ञता-भाव और बिना किसी के शिकायत के जिन्दगी से विदा ले ली. अदम कला-के-लिए कला के विरोधी थे और उनकी गज़लें किसी अमूर्त ग्राम्य की कल्पित छठा का बयान नहीं करतीं बल्कि हकीकत का बेबाक बयान करती है. “घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है/बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है”. फनकारों का आह्वान करते हैं, "ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में/मुसलसल फन का दम घुँटता है इन अदबी इदारों में”. उल्लेखनीय है कि अदम की कविताएं अपनी धार और प्रहार के पैनेपन के चलते प्रतिष्ठानी समर्थन-अनुमोदन-प्रोत्साहन के बगैर लोकप्रिय हुईं.

अपनी ग़ज़लों के बारे में अदम का आत्मकथन है, “एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी गज़ल/मशरिकी फन में नई तामीर है मेरी गज़ल/....../दूर तक फैले हुए सरयू के साहिल पे आम/शोख लहरों की लिखी तहरीर है मेरी गज़ल.” अदम की कविताओं का उनके उचित सन्दर्भ में मूल्यांकन, साबित करेगा कि उनकी गणना पिछली और इस सदी के महान जनकवियों में होनी चाहिए. राजनैतिक ग़जलों की जो परम्परा दुष्यंत ने शुरू किया, अदम उसे एक नए मुकाम तक ले गए. आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे वर्तमान में अदम की कवितायें और भी प्रासंगिक हैं. "पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें/संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में/....जनता के पास एक ही चारा है बगावत/यह बात कह रहा हूँ होशो हवाश में".

वे अदीबों की नयी पीढी से" धूमिल की विरासत को करीने से" "संजो कर" रखने की गुजारिश" तो करते ही थे, समानधर्मी पूर्ववर्ती और समकालीन कवियों के प्रति अतिशय सम्मान भी दिखाते थे. और उनकी विरासत को आगे बढाने की अदम की धुन उल्लेखानीय है. पिछले कई सालों से बातची वे अक्सर अपने को “सड़कछाप” कहा करते थे. अदम जी सड़कछाप नहीं थे. वे आमजन के कवि थे और उन्ही के साथ सड़क के आदमी थे, साहित्य के वातानुकूलित संग्रहालयों के नहीं. अदम सच मायने में एक प्रतिबद्ध जनकवि थे. “भूख के अहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो/या अदब को मुफ्लिशों की अंजुमन तक ले चलो/...... मुझको नज्मों जब्त की तालीम देना बाद में/पहले अपनी रहबरी को आचरण तक ले चलो/खुद को ज़ख़्मी वकार रहे हैं वगैर के धोखे में लोग/इस शहर वको रोशनी के बांकपन तक ले चलो. ‘

ग्राम्सी ने लिखा है कि किसानों के पास अपना जैविक बुद्धिजीवी नहीं होता. वह अन्य वर्गों को जैविक बिद्धिजीवी प्रदान करता है लेकिन खुद के लिए नहीं. अदम गोंडवी इसके अपवाद हैं. अदम अन्य दलित-दबले-कुचले वर्गों के साथ कृषक वर्ग के भी बुद्धिजीवी हैं. साम्रदायिकता और जातिवाद के मुद्दों को भी वे वर्ग हित से जोड़कर देखते हैं और वर्ग-शत्रु की इन विचारधाराओं पर प्रखर प्रहार करते हैं: “ये अमीरों से हमारी फैसलाकुन जंग थी/फिर कहाँ से बीच में मस्जिद व मंदिर आ गए/जिनके चेहरे पर लिखी है जेल की ऊंची फसील/रामनामी ओढ़ कर संसद के अंदर आ गए.” १९८० के दशक में जब शिलापूजन और मलियाना जैसी निहित स्वार्थ समाज में फिरकापरस्ती का जहर फैला रहे थे, तो अदम उन्हें आगाह करते हैं, “हिंदू या मुस्लिम के एहसास को मत छेडिए/अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेडिए/छेडिए इक जंग मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ/दोस्त मेरे मजहबी नग्मात को मत छेडिए.”

अदम गोंडवी एक असाधारण रूप से साधारण इंसान थे. उनकी साधारणता उनका बड़प्पन था. रूसो के विचार में, सभ्यता मनुष्यों के अन्दर दोगलेपन का संचार करती है. सम्मान पाने के चक्कर में वह वैसा दिखना चाहता है जैसा होता नहीं अदम जी सभ्यता के उपरोक्त गुण से मुक्त थे. वे मौजूदा वर्णाश्रमी-सामंती, पूंजीवादी यथार्थ की क्रूर विसंगतियों को आत्मसात कर 'दुस्साहसी' "अभिव्यक्ति के खतरे" उठाते हैं. “अन्त्यज कोरी पाशी हैं हम/क्योंकर भारतवासी हैं हम/.....धर्म के ठेकेदार बताएं/किस गृह के अधिवासी हैं हमहरामखो”. और “जितने हरामखोर थे कुर्बो जबार में/परधान बन के आ गए अगली कतार में/...” “आँख पर पट्टी रहे और अक्ल पर ताला रहे/अपने शाहे वक्त कायूं मर्तबा आला रहे/...तालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे/आये दिन अखबार मे प्रतिभूति घोटाला रहे/एक जनसेवक की दुनिया में अदम क्या चाहिए/चार-छः चमचे रहें माइक रहे माला रहे.

अदम १९७३ में चर्चा में आये अमृत प्रभात में छपी लंबी कविता, चमारों की गली से. जो काम क़ानून नहीं कर पाया वह एक कविता ने कर दिखाया. एक दलित लड़की, “सरयूपार की मोनालिसा” के एक दबंग ठाकुर द्वारा बलात्कार के मामले की कानूनी कार्रवाई की परिणति पीड़ित के समुदाय के पुलिस उत्पीडन के साथ समाप्त हो चुकी थी. यह वह समय था जब आज की दलित-चेतना की सुगबुगाहट भी नहीं थी. एक कविता ने मामला फिर से खोल दिया. यह कविता १९७५ में बी.बी.सी. से प्रसारित हुई. अदम दबंग ठाकुरों और स्थानीय प्रशासन की आँखों के किरकिरी बन गए. लेकिन अदम "चमारों की गली में" "ज़िंदगी के ताप" को महसूसते-महासूसाते अदम्य साहस के साथ आगे बढ़ते रहे,"ताला लगा के आप हमारी जबान को/कैदी न रख सकेंगे जेहन के उड़ान को."

होशो हवाश में बगावत का रास्ता दिखाने वाले अदम क्रान्ति की निरंतरता में यकीन करते थे और नई पीढ़ियों के प्रति काफी आशावादी थे."एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हे/झोपडी से राजपथ का रास्ता हमवार हो."

अदम के लिए जीवन का कोई "जीवनेतर उद्देश्य" नहीं था. वे मानते थे एक "सार्थक" जीवन जीना अपने आप में बहुत बड़ा उद्देश्य है. और एक जनपक्षीय कवि के रूप में आख़िरी सांस तक अपने विचारों और कविकर्म से, तमाम तरह की प्रतिकूल परिस्थियों और वंचना/उपेक्षा के बावजूद अपने पक्ष और प्रतिबद्धता पर अडिग रहते हुए, जीवन की सार्थकता साबित करते रहे. अदम की रचनाशीलता आमजन की मुक्ति को समर्पित थी. उन्होंने मजाज़, फैज़, दुष्यंत, नागार्जुन, पाश, गोरख पाण्डेय जैसे जनकवियों की राजनैतिक कविताओं की परंपरा में एक नया आयाम जोड़ा. मुक्ति के लिए हथियार उठाने की गुहार करने वाले अदम, आजीवन कलम को हथियार के रूप में चलाते रहे.”अगर खुदसरी की राह पर चलते हों रहनुमा/कुर्सी के लिए गिरते सम्हलते हों रहनुमा/गिरगिट की तरह रंग बदलते हों रहनुमा/टुकड़ों पे जमाखोर के पलते हो रहनुमा/जनता को हक है हाथ में हथियार उठा ले. ....”

ईश मिश्र
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