एक पोस्ट पर बहस चल रही है कि तमाम लोग सपाट बयानी और नारेबाजी की कविताओं से हिन्दी साहित्य को प्रदूषित कर रहे हैं. किसी ने ऐसी कवियों को खुले आम, चौराहे पार कोडे लगाने की हिमायत की तो एक सज्जन ने ऐसे कवियों को गोली मर देने का फतवा जारी कर दिया. अरे भाई साहित्य और पाठक घटिया कविताओं को खुद खारिज कर देंगे. जैसा एक मंच के मेरे मित्र-पाठक मेरी कवितानुमा चीजों के साथ करते हैं. कुछ तो बिना पढ़े गालियाँ देते हैं. गोली मारने या कोड़े लगाने जैसी वीभत्स-क्रूर कार्रवाई क्यों? क्या हम खोमैनी या बुश-ओबामा होते जा रहे हैं? फिर कविता बयान और नारा क्यों नहीं होनी चाहिए?? "वह आता दो टूक कलेजे करता पछताता पथ पार जाता........."; " वह तोडती पत्थर, देखा इलाहबाद के पथ पर....... " ; "वह कहता है उसे रोटी कपड़ा चाहिए .......उसको फांसी दे दो..... "; "अन्त्यज कोरी पाशी हैं हम , क्योंकर भारतवासी हम ......" ये सारी सुन्दर कवितायें, अमूर्त कलाबाजी न होकर सपाट बयानबाजी के काव्यात्मक नारे हैं हैं. इन कवियों को क्या मरणोपरांत फांसी दे दी जाय?? क्या सिर्फ बौद्धिक व्यसन की कविताओं को ही कविता माना जाए? कला के लिए कला को चेखव ने अपराध कहा है. मेरी कविता कविता नहीं नारा है/होश-ओ-हवास में स्वीकारा है.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment