Monday, January 9, 2012

हिन्दी की दुर्दशा

हिन्दी के काफी विद्वान बहुत परेशां हैं कि ऐसे भी लोग हिन्दी में कविता लिख कर उसकी दुर्दशा कर रहे हैं जो हिन्दी में बात करते संकोच करते हैं(!)शासक वर्गों के विचार ही शासक विचार नही होते बल्कि शासक वर्ग की भाषा भी शासक भाषा होती है. आमजन की भाषा कभी भी ज्ञान की भाषा नहीं रही, न ही ज्ञान के ग्रन्थ जनभाषा में लिखे जाते थे(प्राचीन बौद्ध साहित्य के अपवाद को छोड़ कर).जनांदोलनों से उपजी जन-चेतना के दबाव और प्रभाव में ही जन-भाषाएं ज्ञान की गुफा में घुसपैठ कर सकती हैं और अंततः काबिज हो सकती हैं, जैसा कि इंग्लॅण्ड में हुआ. जनांदोलनों के परिणाम स्वरुप जब १८८० के दसक में जब निम्न वर्गों के भी मर्दों को मताधिकार प्राप्त हुआ और घबराकर, अंध-राष्ट्रभक्ति का उन्माद पैदा करने के उद्देश्य से, तत्कालीन प्रधानमंत्री डिजरायली ने कभी सूर्यास्त न होने वाले साम्राज्य का नारा दिया. उसके बाद ही अंग्रेजी को कैम्ब्रिजऔर आक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों में क्रमशः १८९२ और १८९४ में ज्ञान की भाषा की मान्यता मिली. जो भाषा बोल-चाल और बहस की न हो उस भाषाक में सार्थक कविता नहीं लिखी जा सकती. अंगरेजी पढाने वाले अगर कविता/आलोचना करते हैं तो इससे हिन्दी की दुर्दशा क्कैसे हो सकती है? फ़िराक और राम विलास शर्मा दोनों ही अंगरेजी के अध्यापक थे. किसी भाषा का समाजविज्ञान नहीं होता बल्कि समाजविज्ञान के हिसाब से भाषा ढलती है. अगर रद्दी कवितायें लिखी जा रही हैं तो वे अपने आप रद्दी की टोकरी में चली जायेंगी, उससे जो हिन्दी की समृद्धि के लिए प्रामाणिक सरोकार रखते हैं उनके प्रयासों और अभियानों में किस तरह बाधा पहुँच रही है?

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