एक खिचड़ी का दिन
बाद में पता चला कि हर साल १४ जनवरी को पड़ने वाले पर्व को मकर-संक्रांति कहते हैं, बचपन में हमारे लिए यह “खिचड़ी” का दिन होता था. विकराल बाढ़ की संभावनाओं वाली छोटी सी मझुई में पर्याप्त पानी रहता था. सुबह-सुबह हम सब बच्चे बैरी बाबा वाले घाट पर पहुँच जाते तमाम विषयों पर खासकर खिचड़ी के मह्त्व पार बाल-सुलभ चर्चाएं होतीं. डुबकी प्रतियोगिता के पहले और बाद में और हमारे बड़े भाई के “समौरी” लड़के ही ज्यादार ज्ञान बघारते हम लोगों को ज्ञान बघारने का मौका कम मिलता. एक आदित्य भाई थे जो बहुत अच्छा गाते थे और अवधी में एकाध गीत खुद भी लिखते थे. उनसे ही पहली बार मकर-संक्रांति सुना था. वे क्यों बहुत जल्दी ही “थे” हो गए, इसकी चर्चा का स्कोप नहीं है.
डुबकी लगाने की शर्तें लगती. एक बार किसी ने ४० डुबकी का एलन किया तो मैंने ५० का कर दिया. हम लोग डुबकी लगाने में बेईमानी भी करते थे. एक बेईमानी तो गुणात्मक होती – सर ज़रा-सा अंदर करके निकाल लिया और एक गिनती बन गयी. दूसरी बेईमानी हम गिनने वाले को कन्फ्यूज करके करते थे. पानी से सर निकालकर २ गिनती बढ़ा कर बोल कर फिर डुबकियां लेने लगते. अपने बचपन को भूल, लोग अक्सर कह देते हैं, “बच्चे कभी झूठ नहीं बोलते”. मैं तो बचपन में अपनी नैसर्गिक आवारा प्रवृत्ति की अन्तर्निहित गलतियों की डांट से बचने के लिए, बहुत ही मासूमियत से कपोल-कल्पित कहानियाँ सुनाकर मान-दादी को अपने पक्ष में कर लेता था और दादी का बरदहस्त हो तो कोइ भी (पिताजी/दादा) किसी भी बच्चे का कुछ नहीं कर सकता था.
खैर किस्सा खिचड़ी की हो रही थी. एक खिचड़ी को, सुबह-सुबह आदित्य भाई सारे अपेक्षाकृत छोटे बच्चों को इकट्ठा करके बताया कि राम अंजोर भाई सुबह सुबह ५ बोझ गन्ने की पत्ती झोंककर नदी का पानी गर्म कर दिए हैं. राम अंजोर भाई पेशेवर गुरू-तांत्रिक थे. जिनके चेले दिल्ली से सूरत तस्क फैले थे. १०-१५ दिन पहले ही उन्होंने एक पूर्व-जमींदार के घर से बहुत भयानक बरम(ब्रह्म- ब्राह्मण का भूत) सबकी आँखों के सामने बाहर किया था. हम यह सोच कर डुबकी लगा रहे थे कि पानी ठंढा नहीं होगा और वाकई कम ठंढा लग रहा था (शायद पैरा-मनोविज्ञान का मामला रहा होगा).
उसी दिन एक और घटना हुई. जैसे ही हम चिवडा-तिलवा... आदि से तृप्त हो बाहर निकले तो गाँव के राम निहोर तेली मेरे पिताजी को तलाशते हुए आये. उनकी बेटी को बिच्छू ने डंक मर दिया था और वह दर्द से लोट-पोट हो रही थी. मेरे पिताजी बिच्छू का मन्त्र जानते थे. मैं उस समय ९-१० साल का था. पिताजी को बिच्छू झाड़ते की बार देखा था. वे राख या मिट्टी जमीन पार फैलाकर एक रेखा खींचते थे उस रेखा पर दंशित व्यक्ति का जिस पक्ष में डंक मरा हो उस तरफ का हाथ रखवाते थे और जमीन पार कुछ लिखते थे, ध्यान देने पार पाया कि ओउम् बीज लिखते थे फिर बाईं हथेली पार कुछ लिखते थे मन-ही-मन कुछ मंत्र बुदबुदाने के बाद तीन बार ताली बजाते थे. ५-६ बार इस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति के बाद मरीज की पीड़ा काफी कम हो जाती. मौके का फायदा उठाकर मिनी राम्निहोर्जी से कहा पिताजी तो घर पार नहीं हैं लेकिन मुझे भी वह मन्त्र आता है. मैंने वही सब ताम-झाम किया और ५-६ बार की तालियों के बाद उसकी पीड़ा सिमट कर डंक की जगह तक आ गयी. गौर-तलब है इस दौरान जड़ी-बूटियों का भी इलाज़ चल रहा था. रात-ओ-रात मैं इतना मशहूर हो गया कि दूसरे गाँव के लोग कभी तो सोते से मुझे गोद में उठाकर ले जाते. सब ठीक भी हो जाते. मन्त्र कारगर नहीं हुआ.मेरे पिताजी ने कभी नहीं पूछा कि मैंने कहाँ से सीखा? यानी उन्होंने भी वैसे ही सीखा/अन्वेषण किया था जैसे कि मैंने. हर दीवाली को लड़के मेरे पीछे मन्त्र बताने के लिए पड़ते. २- ३ साल बाद मैं ऊब गया और बता दिया कि मैं झूठ-मूठ का नाटक करता था फिर मन्त्र कारगर होना बंद हो गया. मुझे लगता है कि पीड़ा काफी मनोवैज्ञानिक होती है और मन्त्र-तंत्र पैरा-मनोवैज्ञानिक इलाज का काम करते हैं.
उसी शाम एक और घटना हुई. अक्सर हम बच्चे और आदित्य भाई और राम अजोर भाई जैसे कुछ वरिष्ठ लोग नाव में तसले में अलाव जलाकर उल्टी दिशा में गाते-बजाते; चुटकुले और किस्से सुनते-सुनाते उल्टी धारा में २-३ किलोमीटर जाते और फिर नाव को धारा के सहारे वापस आने के लिए छोड़ देते. रास्ते में हम सबने राम अजोर भाई से भूत निकालने का रहस्य पूछा. वे भोली(भंग) की तरंग में थे और बता दिया.
छत्रधारी सिंह, एक रईस जमींदार के घर चूल्हे पर बर्तन के उछलने/खात में आग लगने जैसी घटनाएं सुनाने को मिलती थीं. रामजोर भाई ने व्यापक अनुष्ठान किया. हवन के लिए बहुत से पंडित आये. भूत सभी के आँखों के सामने निकला. पूजा के मुख्य कमरे में सभी को जाने की अनुमति नहीं थी, भूत किसके ऊपर चढ़ जाये! राम अजोर भाए ने कहा बड़ी मुश्किल से वे “इस भयानक ब्रह्म” को निकलने के लिए मन पाए हैं. लोग दूर से देखें. जो भी सामने पडेगा उस पार ही चढ़ जायेगा और दुबारा इसे निकालना असंभव होगा. लाल कपडे में एक पिंड जिस पर दिया जल रहा था सब लोगों के सामने निकला, पीछे पीछे तांत्रिक. लोगों ने भूत को पिछवाड़े बांस के बाग तक जाते देखा. और उस दिन के बाद भूत के प्रकोप से जमींदार के घर अजूबे होने बंद हो गए.
राम अजोर भाई द्वारा रहस्योद्घाटन: राम अजोर भाई अपने झोले में एक कछुआ ले गये थे. उसे लाल कपडे में लपेट कर उस पर घी का दिया जलाया और कछुआ जमीन पार आहट की उल्टी दिशा में चलता है. सो पीछे-पीछे तांत्रिक और आगे-आगे भूत चलता गया लोग दूर से प्रत्यक्ष देखते रहे. पिछवाड़े जाकर कछुए को तांत्रिक ने बांस के बाग के एक गड्ढे में फेंक दिया और लाल कपड़ा झोले में. मन्त्र-तंत्र से मेरे मोहभंग और शायद नास्तिकता की दिशा में प्रयाण का वह पहला दिन था. यह बात १९६२-६३ के आस-पास की है.
बाद में पता चला कि हर साल १४ जनवरी को पड़ने वाले पर्व को मकर-संक्रांति कहते हैं, बचपन में हमारे लिए यह “खिचड़ी” का दिन होता था. विकराल बाढ़ की संभावनाओं वाली छोटी सी मझुई में पर्याप्त पानी रहता था. सुबह-सुबह हम सब बच्चे बैरी बाबा वाले घाट पर पहुँच जाते तमाम विषयों पर खासकर खिचड़ी के मह्त्व पार बाल-सुलभ चर्चाएं होतीं. डुबकी प्रतियोगिता के पहले और बाद में और हमारे बड़े भाई के “समौरी” लड़के ही ज्यादार ज्ञान बघारते हम लोगों को ज्ञान बघारने का मौका कम मिलता. एक आदित्य भाई थे जो बहुत अच्छा गाते थे और अवधी में एकाध गीत खुद भी लिखते थे. उनसे ही पहली बार मकर-संक्रांति सुना था. वे क्यों बहुत जल्दी ही “थे” हो गए, इसकी चर्चा का स्कोप नहीं है.
डुबकी लगाने की शर्तें लगती. एक बार किसी ने ४० डुबकी का एलन किया तो मैंने ५० का कर दिया. हम लोग डुबकी लगाने में बेईमानी भी करते थे. एक बेईमानी तो गुणात्मक होती – सर ज़रा-सा अंदर करके निकाल लिया और एक गिनती बन गयी. दूसरी बेईमानी हम गिनने वाले को कन्फ्यूज करके करते थे. पानी से सर निकालकर २ गिनती बढ़ा कर बोल कर फिर डुबकियां लेने लगते. अपने बचपन को भूल, लोग अक्सर कह देते हैं, “बच्चे कभी झूठ नहीं बोलते”. मैं तो बचपन में अपनी नैसर्गिक आवारा प्रवृत्ति की अन्तर्निहित गलतियों की डांट से बचने के लिए, बहुत ही मासूमियत से कपोल-कल्पित कहानियाँ सुनाकर मान-दादी को अपने पक्ष में कर लेता था और दादी का बरदहस्त हो तो कोइ भी (पिताजी/दादा) किसी भी बच्चे का कुछ नहीं कर सकता था.
खैर किस्सा खिचड़ी की हो रही थी. एक खिचड़ी को, सुबह-सुबह आदित्य भाई सारे अपेक्षाकृत छोटे बच्चों को इकट्ठा करके बताया कि राम अंजोर भाई सुबह सुबह ५ बोझ गन्ने की पत्ती झोंककर नदी का पानी गर्म कर दिए हैं. राम अंजोर भाई पेशेवर गुरू-तांत्रिक थे. जिनके चेले दिल्ली से सूरत तस्क फैले थे. १०-१५ दिन पहले ही उन्होंने एक पूर्व-जमींदार के घर से बहुत भयानक बरम(ब्रह्म- ब्राह्मण का भूत) सबकी आँखों के सामने बाहर किया था. हम यह सोच कर डुबकी लगा रहे थे कि पानी ठंढा नहीं होगा और वाकई कम ठंढा लग रहा था (शायद पैरा-मनोविज्ञान का मामला रहा होगा).
उसी दिन एक और घटना हुई. जैसे ही हम चिवडा-तिलवा... आदि से तृप्त हो बाहर निकले तो गाँव के राम निहोर तेली मेरे पिताजी को तलाशते हुए आये. उनकी बेटी को बिच्छू ने डंक मर दिया था और वह दर्द से लोट-पोट हो रही थी. मेरे पिताजी बिच्छू का मन्त्र जानते थे. मैं उस समय ९-१० साल का था. पिताजी को बिच्छू झाड़ते की बार देखा था. वे राख या मिट्टी जमीन पार फैलाकर एक रेखा खींचते थे उस रेखा पर दंशित व्यक्ति का जिस पक्ष में डंक मरा हो उस तरफ का हाथ रखवाते थे और जमीन पार कुछ लिखते थे, ध्यान देने पार पाया कि ओउम् बीज लिखते थे फिर बाईं हथेली पार कुछ लिखते थे मन-ही-मन कुछ मंत्र बुदबुदाने के बाद तीन बार ताली बजाते थे. ५-६ बार इस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति के बाद मरीज की पीड़ा काफी कम हो जाती. मौके का फायदा उठाकर मिनी राम्निहोर्जी से कहा पिताजी तो घर पार नहीं हैं लेकिन मुझे भी वह मन्त्र आता है. मैंने वही सब ताम-झाम किया और ५-६ बार की तालियों के बाद उसकी पीड़ा सिमट कर डंक की जगह तक आ गयी. गौर-तलब है इस दौरान जड़ी-बूटियों का भी इलाज़ चल रहा था. रात-ओ-रात मैं इतना मशहूर हो गया कि दूसरे गाँव के लोग कभी तो सोते से मुझे गोद में उठाकर ले जाते. सब ठीक भी हो जाते. मन्त्र कारगर नहीं हुआ.मेरे पिताजी ने कभी नहीं पूछा कि मैंने कहाँ से सीखा? यानी उन्होंने भी वैसे ही सीखा/अन्वेषण किया था जैसे कि मैंने. हर दीवाली को लड़के मेरे पीछे मन्त्र बताने के लिए पड़ते. २- ३ साल बाद मैं ऊब गया और बता दिया कि मैं झूठ-मूठ का नाटक करता था फिर मन्त्र कारगर होना बंद हो गया. मुझे लगता है कि पीड़ा काफी मनोवैज्ञानिक होती है और मन्त्र-तंत्र पैरा-मनोवैज्ञानिक इलाज का काम करते हैं.
उसी शाम एक और घटना हुई. अक्सर हम बच्चे और आदित्य भाई और राम अजोर भाई जैसे कुछ वरिष्ठ लोग नाव में तसले में अलाव जलाकर उल्टी दिशा में गाते-बजाते; चुटकुले और किस्से सुनते-सुनाते उल्टी धारा में २-३ किलोमीटर जाते और फिर नाव को धारा के सहारे वापस आने के लिए छोड़ देते. रास्ते में हम सबने राम अजोर भाई से भूत निकालने का रहस्य पूछा. वे भोली(भंग) की तरंग में थे और बता दिया.
छत्रधारी सिंह, एक रईस जमींदार के घर चूल्हे पर बर्तन के उछलने/खात में आग लगने जैसी घटनाएं सुनाने को मिलती थीं. रामजोर भाई ने व्यापक अनुष्ठान किया. हवन के लिए बहुत से पंडित आये. भूत सभी के आँखों के सामने निकला. पूजा के मुख्य कमरे में सभी को जाने की अनुमति नहीं थी, भूत किसके ऊपर चढ़ जाये! राम अजोर भाए ने कहा बड़ी मुश्किल से वे “इस भयानक ब्रह्म” को निकलने के लिए मन पाए हैं. लोग दूर से देखें. जो भी सामने पडेगा उस पार ही चढ़ जायेगा और दुबारा इसे निकालना असंभव होगा. लाल कपडे में एक पिंड जिस पर दिया जल रहा था सब लोगों के सामने निकला, पीछे पीछे तांत्रिक. लोगों ने भूत को पिछवाड़े बांस के बाग तक जाते देखा. और उस दिन के बाद भूत के प्रकोप से जमींदार के घर अजूबे होने बंद हो गए.
राम अजोर भाई द्वारा रहस्योद्घाटन: राम अजोर भाई अपने झोले में एक कछुआ ले गये थे. उसे लाल कपडे में लपेट कर उस पर घी का दिया जलाया और कछुआ जमीन पार आहट की उल्टी दिशा में चलता है. सो पीछे-पीछे तांत्रिक और आगे-आगे भूत चलता गया लोग दूर से प्रत्यक्ष देखते रहे. पिछवाड़े जाकर कछुए को तांत्रिक ने बांस के बाग के एक गड्ढे में फेंक दिया और लाल कपड़ा झोले में. मन्त्र-तंत्र से मेरे मोहभंग और शायद नास्तिकता की दिशा में प्रयाण का वह पहला दिन था. यह बात १९६२-६३ के आस-पास की है.
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