Monday, October 14, 2024

यह एक कम पढ़े लिखे इंसान की कहानी है

 यह एक कम पढ़े लिखे इंसान की कहानी है

जो शरीर और मन से हुत कमजोर था
लेकिन लफ्फाजी और नौटंकी में उसका बहुत जोर था
वह झूठ बहुत इत्मिनान से बोलता था
रो रो कर देश की कसमें खाता और चिल्लाता था
नराधम के साथ बहुत बड़ा हरामखोर तथा चंदाचोर था
वह जर्मनी का बाशिंदा था, नाम था उसका हिटलर
विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार हुई थी जमकर
उसने सोचा उठाएगा वह फायदा वह इस विपदा का जमकर
हुआ वह उस पार्टी में शामिल नाम था जिसका राष्ट्रवादी समाजवादी
नेता थे जिसके सब बुजुर्ग और माली हालत थी जर्जर
धिवशुओं की दलाली से उसने जमा किया खूब चंदा
लफ्फाजी से बन गया वह पार्टी का नायाब नुमाइंदा
किया बुजुर्गनेताओं को शातिरपने से दरकिनार
डाल दिए जिन्होंने आसानी से हथियार
उठाकर फायदा विपक्ष के आपसी रंजिश का
बन गया वह जर्मनी का चांसलर
लगवाया उसने नारे हेल हिटलर
लगवाकर आग संसद में आरोप लगाया विपक्षियों पर
और ठूंस दिया उन्हें जेल के अंदर
फैलाया उसने नफरत अल्पसंख्यकों के धर्म के खिलाफ

धनपशुओं की मदद से उसने किया अपना खूब प्रचार
लगवाकर संसद में आग

मार्क्सवाद 303 (जेपी)

 Prof. Gopeshwar Singh की पोस्ट, उसपर 3 कमेंट के साथ।


1934-42 का दौर राजनैति-बौद्धिक क्रियाकलापों की दृष्टि से सबसे अच्छा दौर था राजनैतिक विभ्रम की स्थिति 1960 के दशक के अंत तक चरम पर पहुंच चुकी थी तथा बिहार छात्र आंदोलन के समय तक वे अपरिभाषित सर्वोदयी भ्रम जाल में पंसकर राजनैतिक रूप से लगभग अप्रासंगिक हो चुके थे । 1972 में जेएनयू सिटी सेंटर (35 फिरोजशाह रोड) में उनकी एक 35-40 लोग थे। छात्र आंदोलन को एक जेपी जैसे बड़े कद का नेता चाहिए था और बिहार छात्र आंदोलन जेपी आंदोलन बन गया और आरएसएस के सहयोग से जेपी ने अपरिभाषित संपूर्णक्रांति का नारा दिया । मैंने भी संपूर्ण क्रांति करते हुए कुछ दिन की जेलयात्रा की थी। संपूर्ण क्रांति का और जो भी परिणाम रहा, जनता पार्टी के हिस्से जनसंघ के जरिए आरएसएस को सामाजिक स्वीकार्यता मिली और उसके काफी कार्यकर्ता मीडिया और तमाम महकमों में घुसपैठ बना सके। 1980 में अपरिभाषित गांधीवादी समाजवाद को वैचारिक धुरी घोषित कर बनी भाजपा ने1984 से अयोध्या को मुद्दा बना आक्रामक सांप्रदायिक लामबंदी शुरू कर दी।

Gopeshwar Singh
Ish N. Mishra संघ ने अपना एजेंडा सेट किया लेकिन समाजवादी जमात ने आगे आकर कुछ क्यों नहीं किया? उस आंदोलन में सीपीएम भी समर्थन में था। उसका लाभ उसे बंगाल चुनाव में मिला
। लगभग तीन दशक उनकी सत्ता रही। वे क्यों असफल हुए?
हमें आत्मावलोकन की जरूरत है।

Gopeshwar Singh बिल्कुल सही कह रहे हैं, कल हम लोग यही बात कर रहे थे कि देश-समाज की आज की दुर्दशा का सर्वाधिक 'श्रेय' इस देश के कम्युनिस्ट-सोसलिस्टों के अकर्म-कुकर्मों को जाता है। 1967 में पहली बार आरएसएस की संसदीय शाखा, जनसंघ को लोहिया-दीनदयाल समझौते के तहत संविद सरकारों में हिस्सेदारी से पांव पसारने का मौका मिला लेकिन संविद सरकारों में सोसलिस्ट ही नहीं कम्युनिस्ट (सीपीआई) भी थी। 1964 में संशोधनवाद के मुद्दे पर सीपाआई से टूटकर बनी सीपीएम तीन ही साल में उससे बड़ी संशोधनवादी पार्टी बन गयी। जेपी आंदोलन एक जनांदोलन था और मार्क्स की माने तो जनता के मुद्दे से अलग कम्युनिस्ट का कोई अपना मुद्दा नहीं होता। सीपीआई कांग्रेस का पुछल्ला बनी थी और सीपीएम एक कदम आगे-दो कदम पीछे की वैचारिक कसरत में लगी थी, अतिक्रांतिकारी सत्तर के दशक को मुक्ति का दशक घोषित करने में। मैंने 1985 में एक पेपर लिखा था, COnstitutionalism in Communist Movent of India जिसमें यह बात रेखांकिित की थी कि क्रांतिकारी विचारों के प्रसार या सामाजिक चेतना के जनवादी करण के साधन रूप में अपनाई गयी चुनावी नीति साध्य बन गयी। मार्क्स ने हेगेल की प्रस्थापना को उलट कर सर से पांव के बल खड़ा कर दिया था। भारतीय कम्युनिस्टों ने मार्क्स को उलट कर सिर के ल खड़ा कर दिया। कम्युनिस्ट पार्टी, ग्राम्सी के शब्दों मे Moden Prince राजनैतिक शिक्षा के अपने दायित्व में पूर्णतः असफल रही। यह अपने संख्याबल को जनबल में तब्दील करने में बिल्कुल नाकाम रही और पार्टी लाइन से हांका जाने वाला इनका संख्याबल भाजपा या टीएमसी का संख्याबल बन गया। आत्मालोचना मार्क्सवाद की प्रमुख अवधारणा है, जिसे कम्युनिस्ट पार्टियों ने फ्रेम कराकर अपने दफ्तरों में फूल-माला चढ़ाने के लिए टांग दिया है। वैसे दुनिया भर में पूंजीवाद ही नहीं सिद्धांत के संकट से गुजर रहा है, उसका विकल्प समाजवाद भी सिद्धांत के संकट से गुजर रहा है। जाने-माने मार्क्सवादी इतिहासकार, एरिक हॉब्सबाम ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में दुनिया के तम्युनिस्ट नेताओं को फिर से मार्क्स पढ़ने की सलाह दी थी, शायद कभी वे उनकी सलाह मान अपना पुनरुत्थान कर सकें। रोजा लक्जरबर्ग ने 1918 में 1917 की रूसी क्रांति पर लिखे अपने विश्लेषण में लिखा था कि रूस की तत्कालीन विशिष्ट परिस्थितियों में अपनाई गयी नीतियों को अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति की नीति नहीं बनाया जा सकता, लेकिन कॉमिन्टर्न निर्दिष्ट कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद को method के रूप में न अपनाकर model के रूप में अपना लिया। और उसके चलते अगली क्रांति की बजाय प्रतिक्रांति हो गयी। अगली क्रांति का इंतजार करना है।

Wednesday, October 9, 2024

सीताराम येचूरी

 स्मृति शेष

एक जनवादी बुद्धिजीवी की राजनैतिक यात्रा

ईश मिश्र


12 सितंबर 2024 को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के महासचिव सीताराम येचुरी ने धरती को अलविदा कर दिया। उनके निधन से भारत की  संसदीय  वामपंथी राजनीति में एक तत्कालिक निर्वात पैदा हो गया है। वे सांप्रदायिक एकाधिकारवादी राजनीति के विरुद्ध राजनैतिक लामबंदी के एक अहम किरदार थे।  उनकी याद में दिल्ली और देश भर में सभाओं का सिलसिला जारी है। दिल्ली में,  प्रेस क्लब की लॉन में,  कल (21 सितंबर, 2024) जेएनयू के पहले दशक के छात्रों के एक समूह द्वारा आयोजित विशाल सभा में, उन्हें  जेएनयू छासंघ के निवर्तमान अध्यक्षों ने उनसे जुड़ी यादें  शेयर कर श्रद्धांजलि दी। 28 सितंबर को उनकी याद में तालकटोरा सेटेडियम में होने वाली सभा में हजारों की मौजूदगी का अंदाजा लगाया जा रहा है। कल की सभा में जेएनयू छात्रसंघ उनके एक पूर्ववर्ती अध्यक्ष और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के उनके पूर्ववर्ती महासचिव प्रकाश करात ने जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता तथा देश के संघीय ढांचे की सुरक्षा की लड़ाई के अथक योद्धा के रूप में उन्हे याद करते हुए कहा कि सीताराम ने जेएनयू में जो सीखा, राष्ट्रीय नेता के रूप में उस पर अमल किया।  एक विचार के रूप में जेएनयू की रक्षा और सुरक्षा में योगदान ही सीता के प्रति सही श्रद्धांजलि होगी। जेएनयू के अपने समकालीनों में सीताराम यचूरी सीता नाम से ही जाने जाते थे। 2016 में राष्ट्रद्रोह का अड्डा बताकर जेएनयू पर पुलिसिया हमला और उसके विरुद्ध  जेएनयू आंदोलन के समय से ही विचार-विमर्श आधारित जेएनयू की जनतांत्रिक शैक्षणिक संस्कृति सरकार और संघ परिवार के निशाने पर है। मरणोपरांत उनका पार्थिव शरीर, 13 सितंबर को जेएनयू ले जाया गया जहां भारी संख्या में छात्र-शिक्षक-कर्मचारियों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी। सीता जेएनयू के पहले दशक में छात्रसंघ अध्यक्ष थे और उस समय संघर्षों में नारा लगता था, ‘छात्र-शिक्षक कर्मचारी एकता ‘जिंदाबाद’। सीता सांप्रदायिक अधिनायकवाद के विरुद्ध जनतांत्रिक ताकतों की एकजुटता की राजनीति के एक प्रमुख रणनीतिकार के रूप में जाने जाते थे। 1996 में संयुक्त मोर्चा की सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम का मसौदा तैयार करने में उनकी अहम भूमिका थी। वे भाजपा के नेतत्व में सांप्रदायिक एकाधिकारवादी शासन के विरुद्ध भारतीय राष्ट्रीय विकासोंमुख समावेशी गठबंधन (इंडिआ) की लामबंदी के भी प्रमुख किरदार थे। सीता राम येचूरी जेएनयू के एकमात्र ऐसे छात्र नेता थे, जो, विशिष्ट परिस्थितियों में ही सही, तीन बार छासंघ के अध्यक्ष चुने गए। सीपीएम के महासचिव के रूप में यह उनका तीसरा कार्यकाल था, जो उनकी असामयिक मृत्यु से अधूरा ही रह गया। पहली बार 2015 में वे सीपीएम की 21 वीं पार्टी कांग्रेस में महासचिव चुने गए थे तथा दूसरी और तीसरी बार, क्रमशः 22वीं (2018) और 23वीं (2022) पार्टी कांग्रेसों में। प्रकाश करात के बाद वे ही जेएनयू के एक ऐसे छात्र नेता थे जो किसी राष्ट्रीय पार्टी के सर्वोच्च पदाधिकारी बने, वह भी लगातार तीन बार। यह अलग बात है कि उन्होंने जब पार्टी की बागडोर संभाला तो पार्टी की स्थिति डांवाडोल हो चुकी थी। पश्चिम बंगाल का किला ढह चुका था तथा त्रिपुरा का ढहने वाला था।  अपने अकर्मों के चलते भारत में कम्युनिस्ट संसदीय प्रभाव के क्षीण होने पर विमर्श की यहां न तो गुंजाइश है, न ही जरूरत। सीताराम के नेतृत्व ने वस्तुस्थिति को स्वीकार कर गैर-सांप्रदायिक संसदीय पार्टियों के गठबंधन की राजनीति को तरजीह दी। 1996 में वे संयुक्त मोर्चा सरकार में ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने के पक्षधर थे लेकिन पार्टी की केंद्रीय समिति ने इसे नकार दिया।    


सीता 2005 से 2017 तक पश्चिम बंगाल से राज्य सभा सदस्य रहे। 2012 में जब उनसे पहले जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे, डीपी त्रिपाठी महाराष्ट्र से एनसीपी के राज्य सभा के सदस्य चुने गए तो संयोग से फिरोजशाह रोड पर दोनों के सांसद आवास अगल-बगल थे। हम लोगों के समकालीन जेएनयू वाला कोई उनमें से किसी के यहां जब कोई उत्सव आयोजित करता तो दोनों के लॉन एक हो जाते थे। 1983 में त्रिपाठी जी सीपीएम से कांग्रेस में चले गए थे और वहां से एनसीपी में। वे एनसीपी के सांसद थे। अलगअलग पार्टियों में होने के बावजूद उनके निजी संबंध मित्रवत बने रहे। त्रिपाठी जी का 4 साल पहले कैंसर से देहांत हो गया। आपातकाल के बाद, 1977 में जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव में एसएफआई के अध्यक्षीय उम्मीदवार के रूप में सीताराम के चयन में त्रिपाठी जी की निर्णायक भूमिका थी। त्रिपाठी जी जेएनयू छात्रसंघ के उनके पूर्ववर्ती अध्यक्ष थे जिनके कार्यकाल का काफी समय आपातकाल में भूमिगत सक्रियता और  तिहाड़ जेल में बीता। जेएनयू एसएफआई में त्रिपाठी गॉडफादर समझे जातेथे। आपातकाल में भूमिगत रहने की  संभावनाओं की तलाश में, मैं अगस्त, 1976 इलाहाबाद से दिल्ली आया और इलाहाबाद  के परिचय के आधार पर त्रिपाठी जी को खोजते जेएनयू पहुंच  गया,   इलाहाबाद में वे वियोगी नाम से जाने जाते थे।वे तो तिहाड़ जेल में होने के नाते नहीं मिले लेकिन उनके प्रिय कॉमरेड सीताराम येचूरी का पड़ोसी होने का मौका मिल गया। त्रिपाठी जी के बारे में पूछताछ के दौरान इलाहाबाद के एक अन्य सीनियर, रमाशंकर सिंह से परिचय हुआ, जिन्होने अपने कमरे में आश्रय की पेशकश की। वे गंगा हॉस्टल के कमरा नंबर 323 में रहते थे और सीता 325 में। तब पता नहीं था कि सीता जेएनयू छात्रसंघ भावी अध्येक्ष था लेकिन उसका सादगीपूर्ण,  विनम्र, समानता का वर्ताव जेएनयू संस्कृति का द्योतक था और एक साल की वरिष्ठता से सर की उपाधि वाली इलाबाद विश्वविद्यालय   के सामंती संस्कृति से आने वाले छात्र के लिए सुखद सांस्कृतिक शॉक। चारमीनार सिगरेट पीने वाले सीताराम उस समय अर्थशास्त्र में पीएचडी के छात्र थे और मुझे छात्र बनने के लिए आपातकाल की समाप्ति का इंतजार। बीए प्रथम वर्ष वाला छात्र पीएचडी के छात्र से तुम के संबोधन से बात कर सकता था। सीता और जेएनयू ने कभी भी मुझे बाहरी या अवांछित होने का एहसास नहीं होने दिया। जेएनयू पहुंचने के पहले ही मार्क्सवाद की बारीकियां जाने बिना ही मैं अपने को मार्क्सवादी समझने लगा था, सीता से बातचीत से मुझमें मार्क्सवादी राजनैतिक अर्थशास्त्र की थोड़ी समझ आना शुरू हुई। सीता को श्रद्धांजलि देने वालों में कुछ लोगों ने गलत लिखा है कि वे आपातकाल में गिरफ्तारी के चलते पीएचडी नहीं कर पाए। आपातकाल में सीताराम गिरफ्तार जरूर हुए थे, लेकिन जल्दी ही छूट गए थे। तीन बार जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहने के बाद सीपीएम की राष्ट्रीय राजनीति में उनका दखल बढ़ता गया और पार्टी की राष्ट्रीय राजनैतिक में व्यस्तताओं के चलते वे पीएचडी पूरी न कर सके। उनकी प्राथमिकता पीएचडी पूरी करना न होकर पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति बन गयी।  

 

1977 में आपातकाल खत्म होने के बाद डीपी त्रिपाठी जेल से छूटकर आए तो सभी विचारों के छात्रों ने छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में उनका भव्य स्वागत किया। जेएनयू में अक्टूबर में चुनाव होते थे, त्रिपाठी जी और एसएफआई आपातकालीन छात्रसंघ की निरंतरता के पक्षधर थे। फ्रीथिंकर्स चुनाव के पक्षधर थे। चुनाव को लेकर जनमत संग्रह हुआ और चुनाव चाहने वालों की जीत हुई। एसएफआई में अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी के एक और दावेदार थे दिलीप उपाध्याय (दिवंगत), त्रिपाठी जी के नेतृत्व में संगठन ने सीताराम की उम्मीदवारी पर मुहर लगा दी। फ्रीथिंकर उम्मीदवार एन राजाराम थे। पूरा परिसर सीताराम-राजाराम के हस्तलिखित पोस्टरों से भर गया। बिना सरकार या विश्वविद्यालय प्रशासन की दखल के छात्रों द्वारा निर्वाचित चुनाव आयोग द्वारा चुनाव संचालन एक अनूठी बात लगी। जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव के अनूठेपन की चर्चा की यहां गुंजाइश नहीं है, सीताराम भारी मतों से चुनाव जीत गए। अध्यक्ष का चुनाव सीधे होता था बाकी पदाधिकारियों का चुनाव हर स्कूल से निर्वाचित पार्षद (कौंसिलर) करते थे। अप्रैल 1977 में संपन्न इस  छात्रसंघ का कार्यकाल अधूरा था, इसलिए अक्टूबर, 1977 के चुनाव में दुबारा सीता ही एसएफआई के अध्यक्षीय उम्मीदवार बने और जीते। इसी छात्रसंघ के कार्यकाल में कैंपस में मार-पीट की एक घटना हुई, जिसे लेकर शाम से शुरू अगले दिन सुबह तक  चली आमसभा (जीबीएम) के बाद हुए मतदान में छात्रसंघ का प्रस्ताव बहुमत से खारिज हो गया और नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्रिपाठी जी ने सीताराम की अध्यक्षता के छात्रसंघ के इस्तीफे की घोषणा कर दी। उसके बाद के चुनाव में सीताराम फिर उम्मीदवार बने  ओऔर जीते।  इसी छात्रसंघ के कार्यकाल में छात्रसंघ के संविधान में संशोधन किया गया और सभी पदाधिकारियों का प्रत्यक्ष चुनाव होने लगा। 


1980 में संगठन की कार्यप्रणाली को लेकर एसएफआई में टूट हो गयी, हम कुछ लोगों ने टूटकर अलग संगठन बनाया आरएसएफआई (रिबेल एसएफआई) और एसएफआई के बहुत लोग हमलोगों के प्रति कटुता पाल लिए, लेकिन सीता का बर्ताव मित्रतापूर्ण बना रहा। राष्ट्रीय राजनीति में बड़े कद के बावजूद सीता जहां भी मिलते थे उसी तरह सहज मित्रता भाव से।      


19 अगस्त को पहले दशक कजेएनयूआइट्स के व्हाट्सअप ग्रुप से पता चला कि, सीताराम येचूरी निमोनिया के इलाज के लिए आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) में भर्ती हुए। तब से  ग्रुप में उनके स्वास्थ्य का सरोकार संवाद का मुख्य विषय बना रहा। हम सब को उसके ठीक होने की उम्मीदें थीं, डॉक्टर भी उम्मीद दिला रहे थे। लेकिन 12 सितंबर को उनके दहांत की खबर ने हमारे होश उड़ा दिया। किसी करीबी, समकालिक की श्रद्धांजलि लिखना बहुत मुश्किल लगता है। उसके न होने की अनुभूति हृदय- विदारक होती है। ऐसी ही मनोस्थिति 35 साल पहले जेएनयू के ही साथी, जनकवि गोरख पांडेय की श्रद्धांजलि लिखने में हुई थी, दुनिया को जागते रहने की गुहार लगाते-लगाते वे एक शाम पंखे से लटककर हमेशा के लिए सो गए और पीछे छोड़ गए, आने वाली पीढ़ियों के लिए क्रांतिकारी गीतो और कविताओं की समृृद्ध विरासत। गोरख आमजन के जैविक जनकवि थे तथा सीताराम आमजन के जनतांत्रिक बुद्धिजीवी। वे अपनी पार्टी के सर्वोच्च नेता (महासचिव)और प्रमुख विचारक तथा सांप्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा की रणनीति के प्रमुख सिद्धांतकार थे। उनके न रहने से फासीवाद विरोधी राजनीति में एक बौद्धिक रिक्तता तो पैदा ही हो गयी है। आजीवन जनहित की राजनीति करने के बाद अंत्येष्ट के कर्मकांड को धता बताते हुए कॉमरेड सीताराम येचूरी ने मरणोपरांत अपना पार्थिव शरीर छात्रों को सोध के लिए एम्स को दान कर दिया।

इन्हीं शब्दों के साथ कॉमरेड सीताराम येचूरी को श्रद्धांजलि और अंतिम लाल सलाम अर्पित करता हूं।   



Tuesday, October 8, 2024

शिक्षा और ज्ञान 357 (पूंजीवाद का उदय और विकास)

 मित्र, Kumar Narendra Singh की जलेबी उद्योग की एक पोस्ट पर कमेंट:


कारीगरों के छोटे-छोटे काखानों को हड़प कर; उन्हें मजदूर बनाकर ; उन्ही की कारीगरी से छोटे कारखानों को उद्योग नाकर सरकार के कृपापात्र धनपशु एकाधिकार (मोनोपोली) उद्योगपति बन गए। पूंजीवाद के उदय-विकास की प्रक्रिया जारी है। लेकिन जब मजदूर इनकी चाल समझ जाएंगे और वर्ग-चेतना से लैश अपनी संगठित शक्ति से अपनी संपत्ति यानि इन उद्योगों पर अपना वापस अपना अधिकार कायम करेंगे तो इन धनपशुओं को भी आजीविका के लिए श्रम करना पड़ेगा। इसका कोई अग्रिम टाइमटेबुल नहीं तैयार किया जा सकता कि वह दिन कब आएगा, लेकिन आएगा ही और वह दिन मानव-मुक्ति की प्रक्रिया की शुरुआत का दिन होगा क्योंकि मजदूर की मुत्ति में ही मानव मुक्ति निहित है। शासक वर्ग के भोंपू इसे यूटोपिया कहेंगे क्योंकि कोई आदर्श जबतक मूर्तिरूप नहीं ले लेता तब तक यूटोपिया लगता है और मूर्तिरूप लेते ही इनभोपुओं को कल्चरल शॉक देता है। 42 साल पहले मुझे स्कूल से आगे अपनी बहन के पढ़ने के अधिकार के लिए संघर्ष करना पड़ा था क्योंकि उस सांस्कतिक परिवेश में लड़कियों का बाहर पढ़ने जाना एक यूटोपिया था। आज किसी बाप की औकात नहीं है कि कह दे कि वह बेटी-बेटा में फर्क करता है, यह अलग बात है कि एक बेटे के लिए 4 बेटियां भले पैदा कर ले।