Wednesday, February 16, 2022

लल्ला पुराण 319 (सिंदूर औरबुर्का)

 सिंदूर और बुर्का दोनों ही सांस्कृतिक रूप से समाज द्वारा स्त्रियों पर थोपे गए मर्दवादी प्रतीक हैं, जिनसे मुक्ति की लड़ाई जबरन नहीं स्वेच्छा से स्त्रियां खुद लड़ेंगी। सांस्कृतिक मान्यताएं लोग व्यक्तित्व के अभिन्न अंग के रूप में आत्मसात कर लेते हैं जिनसे मुक्ति के लिए निरंतर सघन आत्मसंघर्ष की जरूरत होती है। स्त्रियां स्त्रीचेतना से लैश होकर अपनी मुक्ति की लड़ाई स्वयं लड़ रही हैं/लड़ेंगी, जिस तरह वर्गचेतना से लैश होकर मजदूर अपनी लड़ाई खुद लड़ेगा। मेरी पत्नी सिंदूर पहनती हैं, बेटियां नहीं पहनती।


हिंदू-मुसलमान नरेटिव पर आधारित सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं राजनैतिक विचारधारा है, जिसके जाल में सांप्रदायिक ताकतें अपने निहित स्वार्थ सिद्ध करने के लिए आम लोगों को फंसाते हैं। सांप्रदायिक ताकतें अपना अपराध छिपाने के लिए हर बात की तरह इसे भीनवाम रणनीति करार देती हैं। जो सांप्रदायिक है वाम नहीं हो सकता और जो वाम है सांप्रदायिक नहीं हो सकता। वैसे वाम तो राजनैतिक नक्शे पर लगभग विलुप्त हो चुका है, जिसका कारण ढूंढ़ना उनकी अपनी जिम्मेदारी है। फिलहाल उसका कोई खतरा नहीं है, समाज को खतरा सांप्रदायिकता और जातिवाद से है। हर हत्या जघन्य होती है, चाहे कमलेश की हो या अखलाक की। कमलेश की हत्या का जश्न मनाने वाले उतने ही अमानवीय हैं जितने अखलाक की हत्या का जश्न मनाने वाले।

बाकी हर तरह के कट्टरपंथी, जातीय, धार्मिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर तर्कशीलता तथा मानवीय संवेदनशीलता अपनाकर कोई भी विवेकसम्मत इंसान बन सकता है। कोई भी मूल्य या मान्यता किसी भी समुदाय या समूह के लिए कितना भी उपयुक्त क्यों न हो, जब तक उस समुदाय या समूह को उपयुक्त न लगे, उनपर थोपना अनुचित है।

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