Saturday, January 5, 2019

बचपन की यादों के झरोखे से 5 (मंत्र-तंत्र)

बचपन की यादों के झरोखे से 5 (मंत्र-तंत्र)
ईश मिश्र
वर्तमान से पलायन कर बचपन की यादों में झांकने में इतने हजार शब्द खर्च कर चुका तो सोचा थोड़ा कॉपी पेस्ट भी। फेसबुक पर दिवाली पर पटाखों के संदर्भ में एक पोस्ट पर एक कमेंट और उस कमेंट की पोस्ट पर एक कमेंट दिख गए, सोचा दोनों को जोड़ कर संपादित कर दूं।
पटाखे की सुगंध मुझे बुरी नहीं लगती, लेकिन मेरी बेटी ने तीसरी कक्षा में सपथ ली थी, तबसे घर में पटाखे नहीं आते. मेरे बचपन में छुरछुरी-पटाखे, उस अंचल के गांव तक पहुंचे नहीं थे. गांवों की दीपावली का शहरों की तरह व्यवसायीकरण नहीं हुआ था। यह दियों से अंधेरा मिटाने और अच्छे काम करने के दिन के रूप में मानाया जाता था। मूलतः यह धान की फसल की कटाई का उत्सव था। हम सब बच्चे बड़े उत्साह से, दूर के खेतों समेत, सभी बागों, खेतों, कुओं, घूर आदि पर दिए रखते और सुबह, तड़के ही दियली 'लूटने' निकल पड़ते थे। 'लूटी' हुई दियलियों से तराजू और रेल समेत तरह-तरह के खिलौने बनाते थे. साल भर का मामला होता था इसलिए लालटेन जला जलाकर किताब भी खोल लेते थे. हमउम्र बच्चे मुझसे बिच्छू का मंत्र बताने का आग्रह करते और मैं 'बताने से मंत्र बेअसर हो जाता है' कह कर टाल देता. वे सब मेरी जासूसी करते कि मैं कहीं-न-कहीं जाकर मंत्र 'जगाऊंगा'. अब मंत्र हो, तब तो जगाऊं! कलम भी मेरा बिल्कुल आवारा है, दिवाली में बिच्छू के मंत्र की याद दिलाकर, अपने अतिवांछित तांत्रिक होने की याद दिला दी। लगता है सठियाने के बाद बचपन ज्यादा याद आता है। इसके विस्तार में तो लंबा लेख हो जाएगा, इसलिए संक्षेप में.

मेरे पिताजी ठीक-ठाक गप्पबाज थे। कृपया इसे पितृ-निंदा न माना जाये। भूत-प्रेतों से संवाद तथा उन्हें बेवकूफ बनाने की कई कहानियां सुनाते थे। उस समय समझ इतनी विकसित नहीं थी कि जानता सशरीर भूत (आत्मा) की बात तो अपने-आप में विरोधाभासी है। भूत की बात से विषयांतर नहीं करूंगा। वे नजर झाड़ते थे और बिच्छू का भी मंत्र जानते थे। मुझे इतने जादुई ढंग से दर्द घटने से मंत्र के चमत्कार जानने की उत्सुकता रहती। मैं ठीक से तो नहीं बता सकता, लेकिन 5 साल से ज्यादा ही उम्र रही होगी क्योंकि पांचवे साल में मेरी मुंडन हुई थी। स्कूल जाता था और पढ़ना-लिखना भलीभांति सीख गया था। हर अज्ञात के प्रति मेरी उत्सुकता रहती थी पिताजी की मंत्राचार को मैं बहुत ध्यान से देखता था। मिट्टी या राख फैलाकर उस पर एक लाइन खींचते। उस पर डंक वाली हाथ या पैर रखवाते। यदि बिच्छी कहीं और डंसा हो तो उस अलंग का हाथ या पैर रखवाते और राख पर कुछ लिखते फिर अपनी बांयी हथेली पर कुछ लिखते और तीन बार ताली बजाते। यह प्रक्रिया 4-5 बार दुहराते और पीड़ा घटते-घटते डंक की जगह तक सिमट जाती। मैं बहुत गौर से पढ़ता था और पता चल गया क्या दो शब्द लिखते हैं। सोचा हाथ पर भी वही लिखते होंगे और गायत्री मंत्र की इतनी महिमा है तो ताली बजाते हुए उसका ही जाप करते होंगे।

एक दिन तेलियाने से कोई (शायद ऱाम अजोर) पिता जी को खोजते आए। उनकी बेटी (12-13 साल या ऐसे ही) को बिच्छू ने डंक मार दिया था। पिताजी घर पर थे नहीं। मुझे मंत्र साधक बनने का मौका मिल गया। मुझे लगा कि यदि सारी महिमा उन दो शब्दों और गायत्री मंत्र का है तो मेरे लिखने से भी वही असर होना चाहिए। और हुआ भी। मैंने बहुत आत्मविश्वास के कहा कि मुझे मंत्र आता है। उनके पास मेरी बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं था। वह लड़की तकलीफ से लोट-पोट हो रही थी. मैंने जो सब पिताजी करते थे किया। उस प्रक्रिया को 5-6 बार दोहराया और उसका दर्द कंधे से उतर कर डंक की जगह के आस-पास सिमट गया। मैं पहली ही बार में अपनी सफलता और दो शब्दों की महिमा से सातवें आसमान पर था। रातो-रात मैं अपने और अगल-बगल के गांवों में मशहूर हो गया. सही-सही तो नहीं कह सकता, 6-7 साल का रहा होऊंगा। इतना छोटा था कि अगल-बगल के गांव के लोग रात को सोते हुए गोद में उठा ले जाते थे. सेलिब्रिटी स्टेटस में मजा आने लगा. बिना कभ जगाए मंत्र से सबकी सचमुच की पीड़ा कसे कम-खतम हो जाती थी? सोचा शायद इन पवित्र शब्दों में कुछ करामाती महिमा हो. लेकिन एक बात कभी-कभी खटकती थी कि पिताजी ने मुझसे कभी नहीं पूछा कि बिना उनके बताए उनका एकाधिकारिक मंत्र मैने किससे सीखा? लोग तो सोचते होंगे उन्होंने ही सिखाया होगा। मुझे लगता है भौतिक पीड़ा की गहनता मनोवैज्ञानिक मनोस्थिति से जुड़ा होती है. छठी-सातवीं तक मैं बिच्छू झाड़ने से ऊब गया और यह कहकर छोड़ दिया कि मंत्र आता ही नहीं। फिर भी लोग बुलाते थे लेकिन मंत्र ने काम करना बंद कर दिया। बात शुरू हुई थी दीवाली में पटाखों से, 1967 में जब पढ़ने शहर गया तो दीवाली में पटाखे और छुरछुरियां ले गया। तबसे संयुक्त परिवार के सारे भाई-बहन और पड़ोस के हमउम्र हर दिवाली हमारी छत पर घंटों पटाखे-छोड़ते. गांव में आखिरी दीवाली के कितने साल हो ठीक से तो नहीं याद, लेकिन 3 दशक तो हो ही गए होंगे। बिच्छू मंत्रसाधना अनुभव और एक जमींदार के घर से भूत निकलने के रहस्य ज्ञान के बात तंत्र-मंत्र और कर्मकांडों से मेरा मोहभंग शुरू हो गया।

यह 1964-1967 की बात होगी, मैं मिडिल स्कूल में पढ़ता था हमारे जवार में एक भूतपूर्व जमांदार की हवेली पर एक ‘बरम’ (ब्राह्मण का भूत) की छाया पड़ गई, यदा-कदा कुछ अनहोनी की बातें सुनने में आने लगी। बहुत से ओझा फेल हो गए। मेरे गांव के एक तांत्रिक थे राम अजोर मिश्र जिनकी जजमानी दूर-दूर तक फैली थी। राम अजोर भाई ने बरम निकालने का जमींदार को आश्वासन दिया जिसके लिए कई दिन हवन-जाप के बाद आखिरी हवन के बाद भूत निकल गया। मैं उस गांव में जाना चाहता था लेकिन मां-दादी ने जाने नहीं दिया लेकिन यह कहानी आस-पड़ोस के कई गांवों में मशहूर हो गयी थी। उन्होंने कहा कि भूत सबके सामने निकलेगा, बहुत मुश्किल से हवेली छोड़ने को राजी हुआ है, जो भी सामने पड़ेगा उसके ऊपर चला जाएगा। इसके बाद लाल कपड़े लिपटा, ऊपर घी का दिया जलता भूत निकला। आगे-आगे भूत, पीछे-पीछे राम अजोर भाई। हवेली के पास बांस का जंगल था, भूत उसी में जाकर अदृश्य हो गया। हवन के कमरे में वे झोले में एक कछुआ ले गये थे। उन्हें मालुम था कि कछुआ जमीन में कंपन की उल्टी दिशा में चलता है। कोई भी भूत का खतरा नहीं मोल लेना चाहता था। बंसवार (बांस का जंगल) में भूत के पीछे-पीछ अकेले पहुंचकर उन्होंने कछुए पर से लाल कपड़ा उतारकर झोले में रख लिया और कछुआ बंसवार में जाकर अदृश्य हो गया। उसके बाद उस जमींदार के घर कोई अनहोनी होना बंद हो गया और मेरा भूत का भय सदा के लिए खत्म हो गया। फिर तो मैं भूतों को चुनौती देना शुरू कर दिया।

कछुए वाली बात हमें कैसे पता चली? अब नवंबर-दिसंबर तक लगभग सूख जाने वाली, हमारे गांव की नदी (मझुई) में तब बारहों महीने पानी बहता रहता था। जून में भी नहाने के घाटों पर काफी गहरा पानी होता था। सितंबर-अक्टूबर तक नाव चलती थी तता उसके बाद चह (बांस का पतला पुल) बनती थी। नाव गांव वालों के चंदे से खरीदी जाती तथा गांव वाले और उनके रिश्तेदारों की उतराई नहीं लगती थी। गांव के पुरोहित का लड़का नाव चलाता और बाहर वालों से लिया गया किराया (2 पैसा या 1 आना) उसकी कमाईन होती। दिन डूबने के बाद नाव खाली रहती। अजोर भाई का बच्चों से बहुत लगाव रहता था। कई बार हम लोग नाव उल्टी धारा में 2-3 किमी ले जाते और अपने आप धीरे-धीरे वापस आने के लिए छोड़ देते। इस दौरान नाव पर जिन्हें गाना आता था (खासकर आदित भाई अब दिवंगत]) गाना गाते, अंताक्षरी खेलते चुटकुले और कहानिया तथा अनुभव सुनते-सुनाते। कई बार हमारे साथ राम अजोर भाई भी होते, वे अक्सर शाम को भांग का सेवन करते थे। ऐसे ही एक बार के नौकाविहार में मैंने अंजोर भाई से भूत का राज पूछ दिया। उन्होंने कहा. "लडिकन क दोस्ती, ढेला क सनसनाहट औ जान क जंजाल"। फिर उन्होने यह कहकर राज खोला कि हमारी (बच्चों की) बात का वैसे भी कोई विश्वास नहीं करेगा। वहम खत्म तो बरम (भूत) की उत्पात भी खत्म।

30.11.2017

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