Satyendra PS मेरी टिप्पणी उन तथाकथित सवर्णों से ही शुरू होती है तथा बाभन से इंसान बनने के मुहावरा उन्ही के लिए गढ़ा था। यूपी के ही विश्वविद्यालयों में ही नहीं दिल्ली विवि में भी जब से आरक्षण लागू होना शुरू हुआ है तबसे शायद ही जनरल में किसी ओबीसी या यससी/यसटी का चयन हुआ हो, पहले हो जाता था। दिवि में प्रकारांतर से 51% सवर्णों के लिए आरक्षित है। वैसे भी शिक्षा के निजीकरण तथा सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेशीकरण और सरकारी नौकरियों में कई कैडरों के संविदाकरण (ठेकाप्रथा) से आरक्षण को लगभग अप्रासंगिक बना दिया गया है। विश्वविद्योलयों मे विशेष अभ्यर्थियों की योग्यता के परे नौकरियां सदा से आम बात रही है। इलाहाबाद विवि में 1985-86 में मेरा इंटरविव 1 घंटा 28 मिनट चला था, 6 पद थे, मैं इतना आश्वस्त था कि मित्रों से राय लेनने लगा कि गंगा पार नए बन रहे झूंसी में मकान लें या गंगा इसपार तेलियरगंज में? मेरी पीड़ा यही है कि कब हम जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना से ऊपर उठकर इंसान बन पाएंगे? मेरे जीवनकाल में तो यह असंभव दिखता है।
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