Thursday, January 17, 2019

शिक्षा और ज्ञान 181 (धर्म परिवर्तन)

Gopal Konwar अफवाहजन्य बजरंगी इतिहासबोध से उबरकर थोड़ा इतिहास को तथ्यबोध से पढ़ें। मुगल आक्रामक थे, सच है, लेकिन यह भी सच है कि तब सल्तनतें आक्रमण से ही होती थीं, जिसकी तलवार में दम होता वे सिकंदर, अशोक, अकबर महान (विजयी) बनते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र का नायक राजा नहीं, विजिगीषु (भावी विजयी) था। शासनशिल्प की महान, कालजयी कृति अर्थशास्त्र में एक तिहाई से अधिक स्थान युद्ध से संबंधित चर्चा को समर्पित है। बाबर तो आक्रमणकारी तो था ही, लेकिन उसने राणा सांगा की रियासत पर नहीं हमला किया, बल्कि राणा सांगा के निमंत्रण पर इब्राहिम लोदी की दिल्ली सल्तनत पर हमला किया था। यह अलग बात है कि राणा सांगा ने समझौता तोड़कर लोदी पर हमले में हिस्सेदारी से मुकर गए। विस्तार में न जाकर, सवाल यह है कि हर्षवर्धन काल के बाद ऐसा क्यों हुआ कि हर हमलावर छोटी से फौज से हमारे शूरवीर पूर्वजों को परास्त करता रहा? नादिरशाह जैसा चरवाहा कुछ हजार घुड़सवारों के साथ पेशावर से बंगाल तक हैवानियत के साथ रौंदते हिृुए लूट-पाट करते हुए वापस चला जाता है, हमारे शूरवीर पूर्वज पंजीरी खाकर भजन करते रहे? अपने पराभव के कारण हम जब तक अपनी कमियों में न खोजकर दूसरों की दुष्टता में ही खोजेंगे तो हमेशा अवनति की तरफ ही बढ़ते रहेंगे। जिस समाज में शस्त्र-शास्त्र का अधिकार चंद लोगों की मुट्ठियों में सीमित रहता है, जो अपनी आबादी के बड़े हिस्से को पशुवत मानता हो उसे कोई भी पराजित कर सकता था।

जैसा Yogesh Somani ने सही जवाब दिया है कि बलपूर्वक धर्मपरिवर्तन होता तो इलाके में मुसलमानों का बहुमत होता। काम और भी था लेकिन आप की तरह बहुतों में प्रचलित इस मिथ्या अवधारणा का भी खंडन करना जरूरी है कि मुगलकाल में बलपूर्वक धर्म परिवर्तन हुआ। मुगल सत्ता के केंद्र थे आगरा और दिल्ली। पश्चिमी उप्र, हरयाणा तथा दिल्ली आगरा के आसपास मुसलमान कभी बहुमत में नहीं रहे। मुसलमानों का बहुमत था पूर्वी बंगाल और उत्तर-पश्चिम सीमांत क्षेत्र तथा पश्चिमी पंजाब में था। हिंदू जातिव्यवस्था में इतने लोग अमानवीय सामाजिक अवमानना के बावजूद शूद्र की स्थिति में क्यों बने रहे? विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्तर व स्वरूप होता है। धर्म परिवर्तनकरने वालों में बहुमसंख्यक कारीगर जातियां -- धुनिया, जुलाहा, लोहार, बढ़ई, दर्जी, नाई-धोबी आदि हैं। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर इन जातियों को सामाजिक स्वाधीनता चाहिए था, सोचा इस्लाम में खुदा के सामने सब समान हैं। लेकिन वहां भी वे जाति लेते गए। सवर्ण या तो सत्ता में बेहतर हिस्सेदारी की अवसरवादिता में धर्मपरिवर्तन किया या जाति निकाले से। आजमगढ़ शहर से संस्थापक रवतारा के राजपूत रजवाड़े थे, किसी मुसलमान लड़की से शादी करने के चलते जाति से निकाल दिए गए तथा सारे रवतारे मुसलमान हो गए। हमारे गांव के एक पड़ोसी गांव के एक पांडे जी का बेटा बंबई रहता था, एक मुसलमान लड़की से इश्क और शादी कर लिया। खानदान से बहिष्कृत कर दिये गए और मुसलमान बन गए। बंबई में अच्छा कारबार है। पिता की अंत्येष्टि में शामिल होने आये तो उन्हें शामिल नहीं होने दिया गया। अंत में आप जैसों से इतना ही आग्रह है कि इतिहास पढ़ें, सुनी हुई अफवाहें न फैलाएं। लगे हाथ यह भी जान लीजिए बाबर और इब्राहिम लोदी की लड़ाई अफगान-मंगोल की नहीं, राज्य के लिए दो राजाओं की लड़ाई थी। खनवा में बाबर-राणा सांगा (संग्राम सिंह) के बीच का युद्ध हिंदू-मुसलमान का नहीं राज्य विस्तार के लिए दो राजाओं की लड़ाई थी। बाबर के विरुद्ध राणा संगा के सहयोगियों में पूरब के अफगान (मुहम्मद लोदी) शासक तथा मालवा के मुस्लिम शासक भी थे। सरकार और संघी चाहते हैं मुल्क तबाह होता रहे, बेरोजगार हताश हो हलाक होता रहे, मजदूर-किसान तबाह होता रहे, वे धर्मोंमादी दुष्प्रचार से हिंदू-मुस्लिम करते हुए उन्मादी सांप्रदायिक लामबंदी करते रहें। इंसानों को बौना बनाकर राष्ट्र महान नहीं बन सकता मंदिर कितना भी भव्य बना लो, मूर्ति कितनी भी ऊंची बना लो। मुल्क महान स्वाभिमानी इंसानों से बनता है, वैज्ञानिक शिक्षा से बनता है, सामासिक संस्कृति के विकास से बनता है। शुभकामनाएं।

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