Wednesday, January 13, 2016

बेतरतीब 7

बेतरतीब 7
09.01.2016
कम्युनिस्ट तथा जातिः कांति विश्वास की जीवनी की समीक्षा पर टिप्पणी के बहाने एक आत्मावलकन
ईश मिश्र

रात में बहुत दिनों से लंबित उच्च शिक्षा पर लेख की योजना बनाकर सोया था कि लेकिन कलम पर आर्थिक दबाव खत्म हो जाने से यह बेलगाम हो गया. सुबह की पहली चाय के साथ मेज पर रखे मेन्स्ट्रीम पर निगाह पड़ने से 2 सप्ताह से लंबित एके विश्वास द्वारा कांति विश्वास की जीवनी आमार जीवनः किछु कथा के समीक्षात्मक लेख की याद आ गयी. और लंबित पठन शुरू करना सदा लंबित लेखन से आसान है, तथा बेतरतीब चिंतन पठन से. आसान काम पहले करना मनुष्य का स्वाभाविक स्वभाव है, विपरीत मन पर विवेक को वरीयता के सायास प्रयास का परिणाम होता है. कभी-कभी सायास प्रयास न करने की मन की बात मान लेना चाहिए.

. आजकल सुबह (4-5 बजे) उठकर, संयोग से जो भी पढ़ता-लिखता-सोचता हूं, न जाने क्यों, मेरे रोकने के प्रयासों के बावजूद आंखें नम हो जाती हैं. समझ नहीं पाता बुढ़ापे का एहसास है या हारे को हरिनाम की बात. खैर मैंने हार मानना सीखा नहीं. जिसे लोग हार समझते हैं वे छोटे-मोटे पड़ावों के छोटी-मोटी क्षतियां होती हैं. खेल में हार-जीत संयोग तथा तमाम अन्य कारकों पर निर्भर होती है, महत्वपूर्ण है खेल की गुणवत्ता. वैसे भविष्य की कौन जानता है मगर इतना जानता हूं कि मेरे हारे को हरिनाम नहीं होगा, एकांतवास और कलम होगा.

जो नौकरी के साथ-साथ तेवर से भी शिक्षक होते हैं उनका एक दुर्गुण यह भी है कि तथ्यों से अधिक व्याख्या के चक्कर में पड़ जाते हैं तथा संस्मरण लिखते-लिखते डायरी लिखने लगते हैं. (हा हा. अपनी बात सब पर थोपना उचित नहीं है, ऐसा शायद खुद को तसल्ली देने के लिए करता हूं.) यह लेख पढ़ना खत्म करते-करते आंखें नम हो गयीं, बहुत. मन अवसादित हो गया. यह अवसाद बंगाल वाममोर्चा में शिक्षा मंत्री रहे कांति विश्वास की निजी पीड़ाओं को लेकर नहीं है. इतिहास के इस अंधे दौर में सामाजिक चेतना के दयनीय स्तर, प्रतिरोध की कमती ताकत और उनके खंडित-विखंडित अस्तित्व, सामाजिक चेतना पर दक्षिणपंथी हमला तथा क्षमताओं की सीमाओं के चलते अपनी बेबसी को लेकर है. या शायद सीपीयम जैसी पार्टियों में भी मौजूद वर्णाश्रमी पूर्वाग्रहों की मौजूदगी का है. ब्राह्म-मुहूर्त की यह मनःस्थित नियोजित काम से डिगा देती है, ऐसे में और जब डेडलाइन का नैतिक दबाव न हो. वैसे, पीछे पलटकर देखता हूं तो पाता हूं कि कभी भी योजनाओं पर अक्षरशः अमल न कर सका. सठियाने के बाद तो अब योजना बनाना ही बंद कर दिया हूं. 

मैंने 1985 में, Constitutionalism in Indian Communist Movement शीर्षक से एक लेख लिखा था जो एक अल्पज्ञात जर्नल Third Concept में 1987-88 में कभी छपा था. (खोज कर स्कैन करके कम्प्यूटर में सेव करूंगा.) उस लेख में मैंने यह तो लिखा कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी जाति-धर्म के समीकरणों का चुनावी इस्तेमाल अन्य पार्टियों की ही तरह करती हैं. 2007 में कलकत्ता में आयोजित नंदीग्राम-सेज सम्मेलन में मैंने कहा था कि बुद्धादेब भट्टाचार्या वैसे ही कम्युनिस्ट है जैसे कि मुलायम सिंह यादव सोसलिस्ट. लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों में जातीय पूर्वाग्रह-दुराग्रहों की मुझे कल्पना भी न थी. इस लेख ने मेरे अल्पज्ञान की पोल खोल दी. पठनीय लेख, “A Communist Speaks: Memoirs of a Namasudra”, review article by AK Bishwas, Mainstream,  Dec. 26, 2015. उम्मीद करता हूं किताब का हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद जल्दी आ जायेगा. लेख का शीर्षक ही बहुत कुछ कह देता है. ब्राह्मण कम्युनिस्ट तथा दलित कम्युनिस्ट. वाह भाई ऐसे भी मार्क्सवादी हैं जो ज्ञानार्जन की प्रतिभा को जन्मना मानते हैं. कम्युनिस्ट पार्टी अन्य पार्टियों से इस मायने में अलग होती है कि वह सिद्धांत पर जोर देती है तथा सिद्धांत तथा व्यवहार का द्वंद्वात्तमक एकता यानि सिद्धांत को व्यवहार में लागू करने को ही सुविचारित क्रांतिकारी कर्म मानती है. लेकिन जैसा कि अरुण माहेश्वरी[i] ने सीपीयम के अनुभवजन्य विश्लेषण से स्पष्ट है कि सिद्धांत तथा व्यवहार का अंतर्विरोध तथा अधिनायकवादी सांगठनिक कार्यपद्धति पर शासकवर्ग की पार्टियों का एकाधिकार नहीं है, कम्युनिस्ट पार्टियां भी उनसे उन्नीस नहीं है. यह कोई सीपीयम की ही नहीं बल्कि दुनिया की सभी पारंपरिक पार्टियों की विशिष्टता है. हमारे छात्र जीवन में एक चुटकुला प्रचलित था. 1956 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस में (1953 में स्टालिन के मृत्यु के बाद पहली) जब ख्रुश्चेव ने स्टालिन पर हमला बोला तो प्रतिनिधियों में से किसी ने फुसफुसा कर कहा कि सेंट्रल कमेटी में वे क्या कर रहे थे. ख्रुश्चेव ने कड़क कर पूछने वाले का नाम जानना चाहा. सब चुप. ख्रुश्चेव ने कहा कि वह भी यही कर रहे थे.

मुझसे जब सामाजिक न्यायवादी दलित साथी पूछते थे कि ज्यादातर कम्युनिस्ट नेता ब्राह्मण क्यों हैं? मुझे ईमानदारी से लगता था कि इतिहास की वैज्ञानिक समझ के लिए आवश्यक बौद्धिक संसाधनों की सुलभता ही इसका प्रमुख कारण है तथा जैसे-जैसे यह सुलभता सार्वभौमिक होगी, यह सवाल अप्रासंगिक हो जायेगा. लेकिन इस समीक्षात्मक लेख ने मुझे गलत साबित कर दिया.  मुझे लगता है कि मार्क्स की तरह कम्युनिस्ट नास्तिक तो होगा ही तथा उसके पहले जन्म के जीववैज्ञानिक संयोग के परिणामस्वरूप जातीय पूर्वाग्रह-दुराग्रहों से मुक्त. यह कैसी शिक्षा तथा कम्युनिस्ट प्रशिक्षण है, जो जन्म की जीववैज्ञानिक संयोग की अस्मिता से मुक्ति नहीं देती? जो मार्क्सवाद इतनी बुनियादी समझ नहीं पैदा कर पाती कि चेतना का स्तर तथा विद्वता या अज्ञानता जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति न होकर भौतिक परिस्थितियों (समाजीकरण) तथा सचेतन निजी प्रयास का परिणाम है.

1977 में कांति विश्वास सीमीयम के टिकट से बंगाल में यमयलए चुने गये. ज्योति बसु की सरकार में किसी भी अनुसूचित जाति के मंत्री की अनुपस्थिति कॉ. विश्वास को असहज लगी. उन्होने ज्योति बसु का इस तरफ ध्यानाकर्षण किया तो सर्वहारा के अधिनायक का हास्यास्पद जवाब था, मानता हूं कि अनुसूचित जाति के लोग सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े हैं लेकिन उनमें से किसी को मंत्रिमंडल में शामिल करने का क्या औचित्य है.[ii] जातीय पूर्वाग्रह-दुराग्रह में यह बयान किसी भी ब्राह्णवादी दकियानूसी से कम नहीं है. इसका निहितार्थ यह है कि प्लेटो के दार्शनिक राजा की ही तरह भद्रलोक बंगाली क्रांतिकारी सभी तपकों – दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक – की समस्याओं को समझने तथा उनकी भागीदारी के बिना उन्हें सुलझाने में सक्षम हैं. मार्क्स ने कहा है कि जनता के मुद्दे के अलावा कम्युनिस्ट का कोई अपना मुद्दा नहीं होता. कॉ. विश्वास को बिना मंत्रालय के मंत्री बना दिया गया. छीछालेदर होने पर उन्हें युवा मामलों तथा गृह (पारपत्र) विभाग दिये गये. उनके काम की सभी हल्कों में प्रशंसा हुई. 1982 में वाम मोर्चे की सरकार वापसी हुई. वे शिक्षामंत्री (स्कूल) बने. भद्रलोक का ब्रहमांड ऐसा डामाडोल हुआ जैसा रामायण में संबूक की तपस्या से वर्णाश्रमी ब्रह्मांड हुआ था. लेख में उद्धृत किया गया है कि सीपीयम के स्टेट सेक्रेटरी, प्रमोद दासगुप्त ने उन्हें उनके बारे में मिले लगभग 400 पत्र थमाया. 24-परगना के किसी भट्टाचार्य के पत्र में लिखा था, इससे क्या हुआ कि कांति विश्वास युवा मामलों के सफल मंत्री रहे हैं, हैं तो वे चांडाल ही. चांडाल के हाथों शिक्षा पाकर बंगाल नापाक हो जायेगा....... . . एक चांडाल को चाहे तो इससे महत्वपूर्ण कोई और जिम्मेदारी भले दे दी जाय, लेकिन भगवान के लिए एक चांडाल मंत्री को शिक्षा की बागडोर सौंपने से बंगाल को अपूरणीय क्षति पहुंचेगी.[iii]

 चलिए ये भट्टाचार्य जी तो जो हैं सो हैं. 1985 में जब उन्हें म़ॉस्को की पौट्रिस लुमाम्बा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के क्षात्रों, शोधार्थियों तथा शिक्षकों को लेक्चर देने के लिय़े आमंत्रण मिला. उनकी विद्वता तथा वाक्पटुता की प्रशंसा से प्रभावित होकर सोवियत संघ सरकार ने उनका आमंत्रण 10 दिन बढ़ा दिया. लेकिन पार्टी में कुछ लोगों ने क्रांति की काशीके एक प्रमुख विश्वविद्यालय में छात्रों, शोधार्थियों तथा शिक्षकों को संबोधित करने की उनकी योग्यता पर प्रश्न-चिन्ह लगाया था[iv].

डिग्री से कोई ज्ञानी हो जाता तो अब मोदीयुग में भाजपा में अप्रासंगिक हो चुके, तत्कालीन यनडीए सरकार में मानव संसाधन मंत्री, मुरली मनोहर जोशी 2000 में राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में कांति विश्वास के ज्ञान, विद्वता तथा शिक्षा की समझ की भूरि भूरि प्रशंसा के बाद उन पर झूठ बोलने का आरोप लगाते कि उन्होंने बंगाली ब्राह्मण होकर राजनैतिक फायदे के लिए अनुसूचित जाति की फर्जी सर्टिफिकेट बनवा लिया[v]. वर्णाश्रमी सामंती संस्कृति में पले-बढ़े, शाखा में प्रशिक्षित इस ब्राह्मण की कूपमंडूकता मान ही सकती कि अकथनीय सामाजिक भेद-भाव, अवमानना तथा प्रवंचना के बावजूद कोई दलितों-में-भी-दलित शिक्षाविद बन सकता है. जोशीजी भौतिकशास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं तथा आजीवन शाखा-भक्त. भौतिकी एक ऐसा विषय है जो प्रमाणिक भौतिक को ही सत्य मानता है. जैसा इस लेख में है कि सीपीयम के बड़े नेताओं(मंत्री-विधायक-पार्टी पदाधिकारी) में अल्पसंख्यक भद्रलोक का ही वर्चस्व रहा है[vi]. जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है. फर्जी सर्टिफिकेट ही बनवाना होता तो ब्राह्मण का बनवाते.. जब कम्युनिस्ट पार्टी के ही सवर्णों में इस तरह के पूर्वाग्रह हों तो मनु को इतिहास का महानतम कानूनविद मानने वाले संघ के स्यंसेवक को क्या कहें. कॉम. कांति विश्वास का जवाब कि विद्वता ब्राह्मणों की बपौती नहीं है, मुंह पर तगड़ा तमाचा है. आपको ऐसा क्यों लगता है कि किसी छोटी जाति का आदमी ज्ञान प्राप्त कर शिक्षाविद नहीं बन सकता? यह मानना कि शिक्षा ब्राह्मणों की बपौती है, आपकी भयानक भूल है. मैं अनुसूचित जाति का हूं तथा पूर्वाग्रहो तथा पोंगापंथी से भरपूर आपकी इस बचकाने बयान की स्पष्ट शब्दों में निंदा करता हूं. 

मार्क्स ने कहा अर्थ ही मूल है. आर्थिक बेस स्ट्रक्चर से ही कानूनी, सांस्कृतिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक सुपरस्ट्रक्चर निर्धारित होते हैं, लेकिन निर्धारित होने के बाद ये सापेक्ष स्वायत्तता हासिल कर लेते हैं तथा आर्थिक बेस स्ट्रक्चर को प्रभावित करता है. मार्क्स यूरोप में पूंजीवाद के उदय तथा विकास के नियमों की व्याख्या कर रहे थे जहां जन्मना सामाजिक विभाजन नवजागरण से शुरू होकर प्रबोधन काल तक खत्म हो चुका था. 19वीं सदी तक यूरोप के समाजविभाजन का आधार विशुद्ध आर्थिक बन चुका था. लेकिन भारत जैसे देश में जहां समाजविभाजन में प्रभुत्व का प्रमुख आधार मध्यकालीन जातीय हो वहां कम्युनिस्ट पार्टियों का जाति के मुद्दे को समता के सार्वभौमिक संघर्ष में समाहित माऩ लेऩा एक ऐतिहासिक भूल थी. उसी तरह जिस तरह जातिवाद विरोधी पार्टियों द्वारा इस तथ्य को नज़र-अंदाज करना कि शासक जातियां ही शासक वर्ग रही हैं. सामाजिक वर्ग-विभाजन तथा जातीय दमन को नजर-अंदाज कर बॉलसेविज्म को मिशाल की बजाय मॉडल मानकर नीति-निर्धारण से कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवादी सिद्धांतों को लागू करने में देश-काल की ठोस, वस्तुगत परिस्थितियों के विश्लेषण की जहमत नहीं उठाया. यह किसी पार्टी की निंदा नहीं, आत्मालोचना है. मैं भी यही मानता था कि जब हम हर तरह की असमानता तथा शोषण-दमन के विरुद्ध हैं तो जातीय या लिंग आधारित भेद-भाव का मुद्दा अलग से उठाने की क्या जरूरत? जबकि मेरा बचपन आर्थिक कारकों से स्वतंत्र वर्णाश्रमी सामाजिक अन्याय का गवाह रहा है. आत्मालोचना मार्क्सवाद की एक प्रमुख अवधारणा है, जिसे हममें से ज्यादा लोग भूल चुके हैं. मार्क्स को फिर से पढ़ने की जरूरत है तथा मार्क्स के उदारवादी पूंजीवाद की समीक्षा के उपादान को नवउदारवादी पूंजीवाद की समीक्षा के उपादान में अनूदित करने की. सामाजिक संघर्ष के निर्वात को भरने का अवसर सामाजिक-न्याय के नेताओं को मि[vii]ला. सामाजिक न्याय की पार्टियां आर्थिक वर्ग-विभाजन को नज़रअंदाज कर शासकवर्ग की अन्य पार्टियों के क्लब में शामिल हो गयीं.

पश्चिम बंगाल में सीपीयम नेतृत्व की सरकार के 3 दशक पूरा होते होते, क्रांतिकारी विचारों के व्यापक प्रसार की जगह वाम दलों तथा शासकवर्ग की पार्टियों में गुणात्मक फर्क़ खत्म हो गया. कांग्रेस तथा भाजपा की ही तरह, कम्युनिस्ट पार्टियों में हाईकमान बन गया. जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के सिद्धांत के तहत विचारित सामूहिक नेतृत्व की अवधारणा की जगह केंद्रीकृत जनतंत्र के तहत व्यक्तिवादी नेतृत्व ने ले लिया. सीपीयम के पास सशस्त्र दस्ता तो नहीं था, लेकिन सलवाजुडूम या बजरंगदल की तर्ज पर हरमद नाम की प्रशिक्षित बाहुबलियों की निजी, अवैध सेना थी, जिसकी उत्पात रोंगटे खड़े कर देती है[viii].  

यह, बेतरतीब आत्मकथात्मक संस्मरणों का शीर्षक है तथा यह लेख पढ़ते हुए इस आत्मकथात्मक बेतरतीबी में व्यक्तित्व के जन्म-आधारित मूल्यांकन पर 2 अनुभव लिखना चाहता था लेकिन लेख पर टिप्पणी ही 2000 शब्दों के करीब पहुंच गयी.

जब चमार बनने से पिटते-पिटते बचा
  
जातीय श्रेणीबद्धता तथा सामाजिक भेदभाव की बचपन तथा किशोरावस्था की आंखों-देखी, कानो-सुनी घटनाओं की समीक्षा एक अलग बेतरतीब में करूंगा. बच्चा था. विकास के चरण तथा सामाजिक चेतना के स्तर के संबंधों को नहीं जानता था तथा आश्चर्य करता था कि संख्या बल तथा शारीरिक बल में अधिक होने के बावजूद दलित दब कर क्यों रहते हैं?

दलितों के व्यक्तित्व व विद्वता के प्रति भौतिक शास्त्री, मुरलीमनोहर जोशी या बंगाली भद्रलोक के पूर्वाग्रह, अपवाद नहीं बल्कि सवर्ण सामाजिक चेतना का अभिन्न अंग है. 2 बार मैं चमार होने के दावे के चलते पिटते-पिटते बचा हूं. बचपन से ही टांग अड़ाने की आदत है तथा अक्सर एक-बनाम-सब बहस में उलझ जाता हूं.

1985-1987 के दौर की कभी की घटना है. उस समय इस पर एक कहानी लिखना चाहता था लेकिन अभी तक नहीं लिख पाया. 1984 के दिल्ली के सिख-जनसंहार के बाद साँप्रदायिक रक्षात्मकता के तहत गांधीवादी समाजवाद का शगूफा छोड़ने वाली भाजपा आक्रामक सांप्रदायिकता का रुख अख्तियार कर रही थी. जैसा कि अब इतिहास बन चुका है राममंदिर मुद्दे को बस्ते से निकाला गया. दीवारों गर्व से कहो हम हिंदू हैं जैसे धर्मोंमादी नारे लिखे जा रहे थे. देश में जगह-जगह मंदिर के लिए शिलापूजन के कार्यक्रमों तथा धर्मोंमादी सभाओं का आयोजन हो रहा था. आडवाणी, जोशी, उमा भारती आदि घूम-घूम कर उंमादी जनमत तैयार कर रहे थे. मेरी बहन बनस्थली (राजस्थान में जयपुर से 70 किमी) में पढ़ती थी. मैं उससे मिलने या किसी छुट्टी में लेने जा रहा था. रात साढ़े 11 की बस दिल्ली से लिया. अगले दिन जयपुर आडवानी जी आने वाले थे. बस सिंधीगेट बसअड्डे की बजाय डिपो जाकर रुकी तथा अगले दिन जयपुर से जाने वाली बसें बंद थीं. मनमानी रेट पर ऑटो वाले ने रेलवे स्टेसन पहुंचाया. ट्रेन में सार्जनिक बहस का मुद्दा अडवाणी की यात्रा तथा मंदिर और मुसलमान शासकों की क्रूरता थी. आदतन, मान-न-मान-मेहमान की तर्ज़ पर टांग फंसा दिया. बहुतों की मोम सी मुलायम फिर क्या था छिड़ गया एक-बनाम-सब विमर्श जो धीरे-धीरे बहुत उग्र हो गया. एक लगभग मेरी ही उम्र का लड़का बांहे चढ़ाते मेरी तरफ बढ़ा और बोला कि इतनी ऊंच-नीच, जात-पांत की बात कर रहा हूं, अपनी बहन-बेटी की शादी चमार से कर दूंगा क्या? उस मूर्ख से जेंडर विमर्श व्यर्थ था, बांहे नाचे करने को कह मैं फौरी प्रतिक्रिया में, जेयनयू में यमए के दौरान, किसी मुद्दे बहस में एक मित्र से पहली बार बोले एक डायलॉग के साथ बोल गया कि मैं तो खुद चमार हूं. इस वाक्य ने रामबाण का काम किया. उग्र आक्रामक बहस मर्यादित हो गयी. लोग मेरी बात तवज्जो देकर सुनने तथा मर्यादित विमर्श में तर्क कुतर्क पर भारी पड़ता ही है. 1978 में मेरे एक अभिन्न मित्र ने बहस में बांहें चढाना शुरू किया तो मैंने कहा कि इसे नीचे कर लो. वजन देख कर डर जाऊं तो मुझे शायद दुनिया के 99.99% पुरुषों डरकर रहना पड़ेगा. और यह कि जिसका भगवान तथा भूत का भय खत्म हो जाय वह किसी से नहीं डरता. मेरे वे मित्र यदा-कदा यह डायलॉग उद्धृत करते रहते हैं. आक्रामक उग्रता के मर्यादित विनम्रता में संक्रमण के जो कारण मेरी समझ में आये वे हैः
1.    सांस्कृतिक संत्रास (कल्चरल शॉक़). जिस तरह वर्ष 2000 में शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में मानव संसाधन मंत्री के रूप में मुरली मनोहर जोशी बंगाल के शिक्षामंत्री कांति विश्वास की विद्वता तथा विश्वदृष्टि से प्रभावित हो उन पर ब्राह्मण होकर अनसूचित जाति के फर्जी प्रमाण पत्र हासिल करने का आरोप लगाया. क्योंकि प्रतिभा तथा व्यक्तित्व का जन्म के आधार पर मूल्यांकन का वर्णाश्रमी कूड़ा फीजिक्स की पीयचडी नहीं साफ कर पाती तथा वह मान ही नहीं सकता कि एक नामसूद्र (चांडाल) ज्ञानी हो सकता है. कॉ. विश्वास ने ज्ञान पर ब्राह्मणों की बपौती के सिद्धांत को विनम्रता से खारिज कर दिया था. इनको शॉक लगा कि एक दलित इतने लोगों से अकेले तार्किकता से, सबको नुरुत्तर करता हुआ, अकड़ से भिड़ सकता है.
2.    स्त्री मुद्दे पर मर्दवादी, उपभोक्तावादी समझ के चलते उन्हें लगा कि यही सवाल मैं उनसे न पूछ लूं.
3.      यससी-यसटी ऐक्ट का डर.

और इस तरह पिटते-पिटते बच गया. वैसे कायर कुत्तों की तरह झुंड में 10 लोग किसी चैंपियन को पीट सकते हैं.

इसी डायलॉग ने एक बार फिर मुझे पिटते-पिटते बचाया था. इसमें जान का भी खतरा था. दिसंबर 2011 में अपने घर गया था. मैं घर जाता हूं तो आवाजाही की सुविधा के लिए अपने साले साहब की मोटर साइकिल ले लेता हूं. मेरी ससुराल शाहगंज स्टेसन(जिला जौनपुर) से 12 मील पश्चिम जौनपुर में है तथा मेरा गांव वहां से 12 मील लगभग उत्तर. शाहगंज से कुछ किमी दूर खैरुद्दीनपुर, बाजार, गांव तथा तिराहा पड़ता है. यहां से 10-15 अंश पूरब के कोण पर एक सड़क फूटती है जो पवई जाती है, जहां मेरा गांव 6 किमी उत्तर है. इस गांव का नाम जब लग्गूपुर (जूनियर हाई स्कूल पवई) पढ़ने गया तब सुना था. हमाके कृषि विज्ञान के शिक्षक, चंद्रबली यादव थे. बहुत ही सज्जन व्यक्ति तथा अच्छे टीचर थे. फिर तो जब भी शाहगंज जाना होता इक्कावाले तिराहे पर चाय के लिए रोकते. बरसाती कुंवर नदी पर बसे इस तिराहे पर पहले एक छप्पर में एक मंदिर था दूसरे में चाय-पान की दुकान. अब तो वहां अच्छी-खासी बाजार बन गयी है. यादवों के वर्चस्व का गांव है. 1973-74 में इलाहाबाद पढ़ते हुए सुना था कि गांव की किसी लड़की से चक्कर चलाने के जुर्म में एक लड़के को इक्के में बांधकर घसीटते हुए लाया गया तथा आंखें निकालकर उसे सूखी कुंवर नदी में ज़िंदा जला दिया था.

पुरानी यादें ताजा करने के लिए तिराहे की एक चाय दुकान पर बाइक खड़ी किया. तिराहे-चौराहे के चाय के अड्डे स्थानीय राजनैतिक-सामाजिक विमर्श के भी अड्डे होते हैं. मोबाइल फोन पर चर्चा चल रही थी. पुराने लोग बता रहे थे किस तरह ट्रंक कॉल करने कहां कहां जाना पड़ता था, वगैरह वगैरह. तभी एक 30-35 साल का दिखने वाला युवक एकाएक आवेश में आकर बोला कि मोबाइल का ही नतीजा है कि हर गांव से 5-5 लड़कियां भाग रही हैं. स्वस्फूर्त फौरी प्रतिक्रिया में मुंह से निकल गया कि इन बहादुर लड़कियों को सलाम. सब मेरी तरफ ऐसे देखने लगे जैसे मैंने कोई विस्फोट कर दिया.सब लोग मुझे अकबकाकर देखने लगे. सफेद दाढ़ी, शकल-सूरत से पढ़ा-लिखा दिखने वाला आदमी इतनी गिरी हुईबात कह दिया. पापिनोंको बहादुर कह सलाम कर रहा है. टांग फंसाने की आदत ने फिर एक-बनाम-सब बहस में फंसा दिया. जयपुर से बनस्थली की ट्रेन का विमर्श धीरे-धीरे आक्रामक उग्र हुआ था. यह शुरू ही उग्र आक्रामकता से हुआ. प्रोफेसनल नारेबाज होने के चलते लंग-पॉवर काफी है. ट्रेन के ही सवाल की पुनरावृत्ति. दलित जातिनाम गाली के रूप में इस्तेमाल पर सवर्णों की बपौती नहीं है. मैंने फिर वही जवाब दिया तथा उसी तरह उग्र आक्रामकता मर्यादित विनम्रता में बदल गयी. उप्र में मायावती की सरकार थी. फिर सबने धैर्य से मेरा प्रवचन सुना तथा बोले कि मेरी बातें बिल्कुल सही हैं, लेकिन वहां नहीं चलेंगी. मैंने कहा, नहीं चलेंगी तो 5-5 की जगह 10-10 लड़कियां भागेंगी. जब भी किसी को बंधोगे, वह तुड़ाकर भागने की कोशिस करेगा ही. सबसे ज्यादा विनम्र बांहे चढ़ाने वाला युवक था. उसने मुझे चाय का पैसा भी नहीं देने दिया. सबने बड़े सम्मान से विदा किया. एक शिक्षक होने के नाते बहुत दर्द होता है सोचकर कि यह कैसी शिक्षा है जो व्यक्ति को जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से मुक्त नहीं कर पाती.
13.01.2015  

  








[i] अरुण माहेश्वरी, समाजवाद की समस्यायें
[ii] लेख में उद्धृत
[iii] Pp 85-87, लेख में उद्धृत, Mainstream, New Delhi, 26 December, 2015
[iv] लेख में उद्धृत
[v] लेख में उद्धृत
[vi] लेख में उद्धृत
[vii] अरुण माहेश्वरी(उपरोक्त)
[viii] Sanhati, in Indian Vanguard, Sept.10, 2010 ttps://indianvanguard.wordpress.com/2010/09/08/list-of-armed-cpim-cad

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