Thursday, January 24, 2019

Age of Reason



 The Age of Reason 
Introduction

Age of reason or Age of Enlightenment, with the central massage that the universe and the worldly phenomena can be better and authentically understood by application of reason, scientific observation and analysis than on the basis of traditional beliefs, dogmas and religious values or theological principles, was an intellectual and philosophical movement that dominated the world of ideas in Europe during what is called the long 18th century. The movement was quite skeptical about the prevalent religious belief under the powerful Catholic Church; divine rights of the monarchs and hereditary aristocracy. The scientific revolution and the Renaissance that looked at the world more concretely and closely and introduced the new motifs of secular principles of cause effect relationship and radical doubts set the stage of the Enlightenment revolution. That is why the Renaissance accompanied by the scientific revolution of Copernicus, Galileo and Newton is said to be the transitional phase between the theological medievalism and enlightened modernism. One of the democratic qualities of the Renaissance (15th-16th century), preceding the Enlightenment, in Europe was the abolition of the birth qualification. The invention of printing press abolished the monopoly of clergy over the scriptures and the invention of gun powder ended that of nobility over warfare. The Renaissance also witnessed the emergence of a new species of the heroes, the hero of the finance. This peripheral Renaissance hero was going to occupy the center-stage in the next 150 years and become the Hero, as the capitalism went ahead gaining the foothold and usher into industrial age from mercantilism, under the new relations of production. An account of rise and growth of capitalism is beyond the scope of this paper, its brutalities; cunningness; treachery; and duality of standards are well depicted in many contemporary novels. Most of the liberal thinkers agreed to the new miseries and agony of the people but argued in its favor in the name good future for all.  It’s first acknowledged, spokesperson; John Locke declares that governance is a serious matter that can be entrusted with only those who have proved their worth by amassing sufficient wealth[1].
The Enlightenment (mid c. 17th – early 19th) was an intellectual revolution that emphasized the reason and utility as the basis of explanation of the phenomenal world over the tradition and faith, is concurrent with the rise and growth of capitalism. Emergent capitalism that was erected on the ruins of the variety of feudal structures needed the rationality against tradition and faith, the ideological source of the validity of the feudal dominance. And hence the Enlightenment rationally is also the rationalization of capitalism and the consequent new inequalities; forms of domination and exploitations; unfreedoms in place of old ones. Enlightenment rationality is also the rationality of private ownership of the means of production and ‘free wage labour’ with twin freedoms – a worker is free to sell his labour-power and equally free to kill himself, as capitalism has freed him from the means of labour. The celebration of individual of Renaissance humanism was not the celebration of ordinary but of spectacular, successful, extraordinary intellectuals, people with heroic deeds, women with extra-ordinary beauty and of princes. It celebrated the success and not only did not sympathize with the failures but had disdainful contempt towards ordinary people that was subsequently going to turn into haughty bourgeois contempt for the producing masses. With the erosion of theological explanation of socio-historical events of the phenomenal world, in the context of transition from feudalism to capitalism, new explanations were needed.

In feudal monarchies, God was the source of validity of the authority, the religion its ideology. With the erosion of theological explanations, God vanished as the source of validity of rule. The liberal political economists, David Hume to Adam Smith, worked out a four-stage theory of development in terms of procurement of sources of livelihood -- hunting, pastoralism, agriculture and commerce. The four-stage theory in Marx’s hands becomes historical materialism. Classical Political economists defined the value in terms of labour time Marx took the argument further that it must belong to those whose labour time is expended into it, and hence the proletarian revolution to take back the control over the products of their labour. Marx’s economic works are critique of political economy.

Bourgeois (liberal) political theorists, beginning with Thomas Hobbes and John Lock in the 17th century took up the task of finding the replacements God and religion as the source of validity and ideology of authority respectively. They found the replacement of the abstract idea of God in the abstract concept of the people as the source of validity of the liberal (bourgeois) state and the ideology of religion was replaced by the ideology of nationalism.  Liberal political economists and political theorists not only provided explanations of capitalism but also its justification and under TINA syndrome (there is no alternative), its inevitability. Marx proved that the live communities are never without alternatives. Central to liberalism is self-centered individualism and natural right to property. With exception of Rousseau’s dissenting voice most of the enlightenment thinkers fall in Gramscian category of organic and profession intellectuals of capitalism and in response Marx became the organic intellectual of the working class.  




[1] Sudipta Kaviraj, The Concept of Man in Political Theory, Social Scientist, Dec. 1979 and Jan. 1980

फुटनोट 224 (जाति-आरक्षण)

Satyendra PS मेरी टिप्पणी उन तथाकथित सवर्णों से ही शुरू होती है तथा बाभन से इंसान बनने के मुहावरा उन्ही के लिए गढ़ा था। यूपी के ही विश्वविद्यालयों में ही नहीं दिल्ली विवि में भी जब से आरक्षण लागू होना शुरू हुआ है तबसे शायद ही जनरल में किसी ओबीसी या यससी/यसटी का चयन हुआ हो, पहले हो जाता था। दिवि में प्रकारांतर से 51% सवर्णों के लिए आरक्षित है। वैसे भी शिक्षा के निजीकरण तथा सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेशीकरण और सरकारी नौकरियों में कई कैडरों के संविदाकरण (ठेकाप्रथा) से आरक्षण को लगभग अप्रासंगिक बना दिया गया है। विश्वविद्योलयों मे विशेष अभ्यर्थियों की योग्यता के परे नौकरियां सदा से आम बात रही है। इलाहाबाद विवि में 1985-86 में मेरा इंटरविव 1 घंटा 28 मिनट चला था, 6 पद थे, मैं इतना आश्वस्त था कि मित्रों से राय लेनने लगा कि गंगा पार नए बन रहे झूंसी में मकान लें या गंगा इसपार तेलियरगंज में? मेरी पीड़ा यही है कि कब हम जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना से ऊपर उठकर इंसान बन पाएंगे? मेरे जीवनकाल में तो यह असंभव दिखता है।

Thursday, January 17, 2019

शिक्षा और ज्ञान 181 (धर्म परिवर्तन)

Gopal Konwar अफवाहजन्य बजरंगी इतिहासबोध से उबरकर थोड़ा इतिहास को तथ्यबोध से पढ़ें। मुगल आक्रामक थे, सच है, लेकिन यह भी सच है कि तब सल्तनतें आक्रमण से ही होती थीं, जिसकी तलवार में दम होता वे सिकंदर, अशोक, अकबर महान (विजयी) बनते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र का नायक राजा नहीं, विजिगीषु (भावी विजयी) था। शासनशिल्प की महान, कालजयी कृति अर्थशास्त्र में एक तिहाई से अधिक स्थान युद्ध से संबंधित चर्चा को समर्पित है। बाबर तो आक्रमणकारी तो था ही, लेकिन उसने राणा सांगा की रियासत पर नहीं हमला किया, बल्कि राणा सांगा के निमंत्रण पर इब्राहिम लोदी की दिल्ली सल्तनत पर हमला किया था। यह अलग बात है कि राणा सांगा ने समझौता तोड़कर लोदी पर हमले में हिस्सेदारी से मुकर गए। विस्तार में न जाकर, सवाल यह है कि हर्षवर्धन काल के बाद ऐसा क्यों हुआ कि हर हमलावर छोटी से फौज से हमारे शूरवीर पूर्वजों को परास्त करता रहा? नादिरशाह जैसा चरवाहा कुछ हजार घुड़सवारों के साथ पेशावर से बंगाल तक हैवानियत के साथ रौंदते हिृुए लूट-पाट करते हुए वापस चला जाता है, हमारे शूरवीर पूर्वज पंजीरी खाकर भजन करते रहे? अपने पराभव के कारण हम जब तक अपनी कमियों में न खोजकर दूसरों की दुष्टता में ही खोजेंगे तो हमेशा अवनति की तरफ ही बढ़ते रहेंगे। जिस समाज में शस्त्र-शास्त्र का अधिकार चंद लोगों की मुट्ठियों में सीमित रहता है, जो अपनी आबादी के बड़े हिस्से को पशुवत मानता हो उसे कोई भी पराजित कर सकता था।

जैसा Yogesh Somani ने सही जवाब दिया है कि बलपूर्वक धर्मपरिवर्तन होता तो इलाके में मुसलमानों का बहुमत होता। काम और भी था लेकिन आप की तरह बहुतों में प्रचलित इस मिथ्या अवधारणा का भी खंडन करना जरूरी है कि मुगलकाल में बलपूर्वक धर्म परिवर्तन हुआ। मुगल सत्ता के केंद्र थे आगरा और दिल्ली। पश्चिमी उप्र, हरयाणा तथा दिल्ली आगरा के आसपास मुसलमान कभी बहुमत में नहीं रहे। मुसलमानों का बहुमत था पूर्वी बंगाल और उत्तर-पश्चिम सीमांत क्षेत्र तथा पश्चिमी पंजाब में था। हिंदू जातिव्यवस्था में इतने लोग अमानवीय सामाजिक अवमानना के बावजूद शूद्र की स्थिति में क्यों बने रहे? विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्तर व स्वरूप होता है। धर्म परिवर्तनकरने वालों में बहुमसंख्यक कारीगर जातियां -- धुनिया, जुलाहा, लोहार, बढ़ई, दर्जी, नाई-धोबी आदि हैं। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर इन जातियों को सामाजिक स्वाधीनता चाहिए था, सोचा इस्लाम में खुदा के सामने सब समान हैं। लेकिन वहां भी वे जाति लेते गए। सवर्ण या तो सत्ता में बेहतर हिस्सेदारी की अवसरवादिता में धर्मपरिवर्तन किया या जाति निकाले से। आजमगढ़ शहर से संस्थापक रवतारा के राजपूत रजवाड़े थे, किसी मुसलमान लड़की से शादी करने के चलते जाति से निकाल दिए गए तथा सारे रवतारे मुसलमान हो गए। हमारे गांव के एक पड़ोसी गांव के एक पांडे जी का बेटा बंबई रहता था, एक मुसलमान लड़की से इश्क और शादी कर लिया। खानदान से बहिष्कृत कर दिये गए और मुसलमान बन गए। बंबई में अच्छा कारबार है। पिता की अंत्येष्टि में शामिल होने आये तो उन्हें शामिल नहीं होने दिया गया। अंत में आप जैसों से इतना ही आग्रह है कि इतिहास पढ़ें, सुनी हुई अफवाहें न फैलाएं। लगे हाथ यह भी जान लीजिए बाबर और इब्राहिम लोदी की लड़ाई अफगान-मंगोल की नहीं, राज्य के लिए दो राजाओं की लड़ाई थी। खनवा में बाबर-राणा सांगा (संग्राम सिंह) के बीच का युद्ध हिंदू-मुसलमान का नहीं राज्य विस्तार के लिए दो राजाओं की लड़ाई थी। बाबर के विरुद्ध राणा संगा के सहयोगियों में पूरब के अफगान (मुहम्मद लोदी) शासक तथा मालवा के मुस्लिम शासक भी थे। सरकार और संघी चाहते हैं मुल्क तबाह होता रहे, बेरोजगार हताश हो हलाक होता रहे, मजदूर-किसान तबाह होता रहे, वे धर्मोंमादी दुष्प्रचार से हिंदू-मुस्लिम करते हुए उन्मादी सांप्रदायिक लामबंदी करते रहें। इंसानों को बौना बनाकर राष्ट्र महान नहीं बन सकता मंदिर कितना भी भव्य बना लो, मूर्ति कितनी भी ऊंची बना लो। मुल्क महान स्वाभिमानी इंसानों से बनता है, वैज्ञानिक शिक्षा से बनता है, सामासिक संस्कृति के विकास से बनता है। शुभकामनाएं।

Sunday, January 13, 2019

शिक्षा और ज्ञान 179 (नास्तिकता)

"मैने पहले भी कहा है कि कोई इंसान कभी पूर्ण नास्तिक हो ही नही सकता। सबकी कहीं न कही आस्था जरूर होती है। दूसरी बात जिस तरह एक आस्तिक का बिना किसी प्रमाण के ईश्वर को स्वीकार करना अजीब लगता है, उसी प्रकार एक नास्तिक का ईश्वर को अस्वीकार करना भी उतना ही विचित्र है।"

यह फैसलाकुन वक्तव्य किसी मुल्ले की फतवेबाजी सी ही लगती है कि कोई इंसान पूर्ण नास्तिक नहीं हो सकता, इसका क्या मतलब है? प्रमाण किसी चीज के होने का होता है न होने का नहीं? प्रमाणित करो कि ईश्वर नही है, फालतू सवाल है, ईश्वर के होने का प्रमाण न होना ही उसके न होने का प्रमाण है। आस्था और प्रमाणित सिद्धांतों की स्वीकार्यता अलग-अलग बातें हैं. न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को मानना इस्था नहीं बल्कि प्रमाणित को स्वीकार करना है, जिस दिन अन्यथा प्रमाणित हो जाएगा, अस्वीकार्य हो जाएगा। सार्वजनिक बातें इनबॉक्स वैसे भी नहीं करनी चाहिए। जिसका भी उपरोक्त वक्तव्य है, वह एक कनफ्यूज्ड व्यक्ति लगता है। मार्क्सवादी आपस में लाल सलाम का क्रांतिकारी अभिवादन करते हैं, उसके ऐतिहासिक कारण हैं, उसमें कोई आस्तिकता नहीं है।

Thursday, January 10, 2019

शिक्षा और ज्ञान 178 (सवर्ण आरक्षण)

सारे सरकारी उपक्रम बिक गए हैं या बिकने वाले हैं। सारे धनपशुओं खासकर प्रॉपर्टीडीलरों और बिल्डरों ने निजी विश्वविद्यालय खोलकर ज्ञान के ठेकेदार बन गए हैं। सार्वजनिक विश्वविद्यालयों का पिछले दरवाजे से निजीकरण किया जा रहा है। सरकारी प्रतिष्ठानों में क्लास-2; 3; 4 की नौकरियां ठेके पर दे दी गयी हैं। शिक्षकों के पद भरे नहीं जा रहे हैं या संविदा (ठेके) पर हैं। बेरोजगारी अथाह सागर बनती जा रही है। तथा कथित पढ़े-लिखे सवर्ण गोरक्षी आतंकवादी बन गए हैं। सरकारें आरक्षण का लॉलीपॉप बांट रही हैं। धनपशुओं की दलाल सरकारें मुल्क की संपदा देशी-विदेशी धनपशुओं के हवाले कर रही हैं। सर्वहारा हिंदू-मुसलमान ऩफरत नफरत खेल रहा है। सुप्रीमकोर्ट समेत सभी संवैधानिक प्रतिष्ठानों और मीडिया में पट्टाधारी बैठे हैं। मुल्क असाध्य पतन के गर्त में गिरता जा रहा है, आप आरक्षण आरक्षण खेलते रहिए जो पहले ही अप्रासंगिक बन गया है।

Saturday, January 5, 2019

बचपन की यादों के झरोखे से 5 (मंत्र-तंत्र)

बचपन की यादों के झरोखे से 5 (मंत्र-तंत्र)
ईश मिश्र
वर्तमान से पलायन कर बचपन की यादों में झांकने में इतने हजार शब्द खर्च कर चुका तो सोचा थोड़ा कॉपी पेस्ट भी। फेसबुक पर दिवाली पर पटाखों के संदर्भ में एक पोस्ट पर एक कमेंट और उस कमेंट की पोस्ट पर एक कमेंट दिख गए, सोचा दोनों को जोड़ कर संपादित कर दूं।
पटाखे की सुगंध मुझे बुरी नहीं लगती, लेकिन मेरी बेटी ने तीसरी कक्षा में सपथ ली थी, तबसे घर में पटाखे नहीं आते. मेरे बचपन में छुरछुरी-पटाखे, उस अंचल के गांव तक पहुंचे नहीं थे. गांवों की दीपावली का शहरों की तरह व्यवसायीकरण नहीं हुआ था। यह दियों से अंधेरा मिटाने और अच्छे काम करने के दिन के रूप में मानाया जाता था। मूलतः यह धान की फसल की कटाई का उत्सव था। हम सब बच्चे बड़े उत्साह से, दूर के खेतों समेत, सभी बागों, खेतों, कुओं, घूर आदि पर दिए रखते और सुबह, तड़के ही दियली 'लूटने' निकल पड़ते थे। 'लूटी' हुई दियलियों से तराजू और रेल समेत तरह-तरह के खिलौने बनाते थे. साल भर का मामला होता था इसलिए लालटेन जला जलाकर किताब भी खोल लेते थे. हमउम्र बच्चे मुझसे बिच्छू का मंत्र बताने का आग्रह करते और मैं 'बताने से मंत्र बेअसर हो जाता है' कह कर टाल देता. वे सब मेरी जासूसी करते कि मैं कहीं-न-कहीं जाकर मंत्र 'जगाऊंगा'. अब मंत्र हो, तब तो जगाऊं! कलम भी मेरा बिल्कुल आवारा है, दिवाली में बिच्छू के मंत्र की याद दिलाकर, अपने अतिवांछित तांत्रिक होने की याद दिला दी। लगता है सठियाने के बाद बचपन ज्यादा याद आता है। इसके विस्तार में तो लंबा लेख हो जाएगा, इसलिए संक्षेप में.

मेरे पिताजी ठीक-ठाक गप्पबाज थे। कृपया इसे पितृ-निंदा न माना जाये। भूत-प्रेतों से संवाद तथा उन्हें बेवकूफ बनाने की कई कहानियां सुनाते थे। उस समय समझ इतनी विकसित नहीं थी कि जानता सशरीर भूत (आत्मा) की बात तो अपने-आप में विरोधाभासी है। भूत की बात से विषयांतर नहीं करूंगा। वे नजर झाड़ते थे और बिच्छू का भी मंत्र जानते थे। मुझे इतने जादुई ढंग से दर्द घटने से मंत्र के चमत्कार जानने की उत्सुकता रहती। मैं ठीक से तो नहीं बता सकता, लेकिन 5 साल से ज्यादा ही उम्र रही होगी क्योंकि पांचवे साल में मेरी मुंडन हुई थी। स्कूल जाता था और पढ़ना-लिखना भलीभांति सीख गया था। हर अज्ञात के प्रति मेरी उत्सुकता रहती थी पिताजी की मंत्राचार को मैं बहुत ध्यान से देखता था। मिट्टी या राख फैलाकर उस पर एक लाइन खींचते। उस पर डंक वाली हाथ या पैर रखवाते। यदि बिच्छी कहीं और डंसा हो तो उस अलंग का हाथ या पैर रखवाते और राख पर कुछ लिखते फिर अपनी बांयी हथेली पर कुछ लिखते और तीन बार ताली बजाते। यह प्रक्रिया 4-5 बार दुहराते और पीड़ा घटते-घटते डंक की जगह तक सिमट जाती। मैं बहुत गौर से पढ़ता था और पता चल गया क्या दो शब्द लिखते हैं। सोचा हाथ पर भी वही लिखते होंगे और गायत्री मंत्र की इतनी महिमा है तो ताली बजाते हुए उसका ही जाप करते होंगे।

एक दिन तेलियाने से कोई (शायद ऱाम अजोर) पिता जी को खोजते आए। उनकी बेटी (12-13 साल या ऐसे ही) को बिच्छू ने डंक मार दिया था। पिताजी घर पर थे नहीं। मुझे मंत्र साधक बनने का मौका मिल गया। मुझे लगा कि यदि सारी महिमा उन दो शब्दों और गायत्री मंत्र का है तो मेरे लिखने से भी वही असर होना चाहिए। और हुआ भी। मैंने बहुत आत्मविश्वास के कहा कि मुझे मंत्र आता है। उनके पास मेरी बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं था। वह लड़की तकलीफ से लोट-पोट हो रही थी. मैंने जो सब पिताजी करते थे किया। उस प्रक्रिया को 5-6 बार दोहराया और उसका दर्द कंधे से उतर कर डंक की जगह के आस-पास सिमट गया। मैं पहली ही बार में अपनी सफलता और दो शब्दों की महिमा से सातवें आसमान पर था। रातो-रात मैं अपने और अगल-बगल के गांवों में मशहूर हो गया. सही-सही तो नहीं कह सकता, 6-7 साल का रहा होऊंगा। इतना छोटा था कि अगल-बगल के गांव के लोग रात को सोते हुए गोद में उठा ले जाते थे. सेलिब्रिटी स्टेटस में मजा आने लगा. बिना कभ जगाए मंत्र से सबकी सचमुच की पीड़ा कसे कम-खतम हो जाती थी? सोचा शायद इन पवित्र शब्दों में कुछ करामाती महिमा हो. लेकिन एक बात कभी-कभी खटकती थी कि पिताजी ने मुझसे कभी नहीं पूछा कि बिना उनके बताए उनका एकाधिकारिक मंत्र मैने किससे सीखा? लोग तो सोचते होंगे उन्होंने ही सिखाया होगा। मुझे लगता है भौतिक पीड़ा की गहनता मनोवैज्ञानिक मनोस्थिति से जुड़ा होती है. छठी-सातवीं तक मैं बिच्छू झाड़ने से ऊब गया और यह कहकर छोड़ दिया कि मंत्र आता ही नहीं। फिर भी लोग बुलाते थे लेकिन मंत्र ने काम करना बंद कर दिया। बात शुरू हुई थी दीवाली में पटाखों से, 1967 में जब पढ़ने शहर गया तो दीवाली में पटाखे और छुरछुरियां ले गया। तबसे संयुक्त परिवार के सारे भाई-बहन और पड़ोस के हमउम्र हर दिवाली हमारी छत पर घंटों पटाखे-छोड़ते. गांव में आखिरी दीवाली के कितने साल हो ठीक से तो नहीं याद, लेकिन 3 दशक तो हो ही गए होंगे। बिच्छू मंत्रसाधना अनुभव और एक जमींदार के घर से भूत निकलने के रहस्य ज्ञान के बात तंत्र-मंत्र और कर्मकांडों से मेरा मोहभंग शुरू हो गया।

यह 1964-1967 की बात होगी, मैं मिडिल स्कूल में पढ़ता था हमारे जवार में एक भूतपूर्व जमांदार की हवेली पर एक ‘बरम’ (ब्राह्मण का भूत) की छाया पड़ गई, यदा-कदा कुछ अनहोनी की बातें सुनने में आने लगी। बहुत से ओझा फेल हो गए। मेरे गांव के एक तांत्रिक थे राम अजोर मिश्र जिनकी जजमानी दूर-दूर तक फैली थी। राम अजोर भाई ने बरम निकालने का जमींदार को आश्वासन दिया जिसके लिए कई दिन हवन-जाप के बाद आखिरी हवन के बाद भूत निकल गया। मैं उस गांव में जाना चाहता था लेकिन मां-दादी ने जाने नहीं दिया लेकिन यह कहानी आस-पड़ोस के कई गांवों में मशहूर हो गयी थी। उन्होंने कहा कि भूत सबके सामने निकलेगा, बहुत मुश्किल से हवेली छोड़ने को राजी हुआ है, जो भी सामने पड़ेगा उसके ऊपर चला जाएगा। इसके बाद लाल कपड़े लिपटा, ऊपर घी का दिया जलता भूत निकला। आगे-आगे भूत, पीछे-पीछे राम अजोर भाई। हवेली के पास बांस का जंगल था, भूत उसी में जाकर अदृश्य हो गया। हवन के कमरे में वे झोले में एक कछुआ ले गये थे। उन्हें मालुम था कि कछुआ जमीन में कंपन की उल्टी दिशा में चलता है। कोई भी भूत का खतरा नहीं मोल लेना चाहता था। बंसवार (बांस का जंगल) में भूत के पीछे-पीछ अकेले पहुंचकर उन्होंने कछुए पर से लाल कपड़ा उतारकर झोले में रख लिया और कछुआ बंसवार में जाकर अदृश्य हो गया। उसके बाद उस जमींदार के घर कोई अनहोनी होना बंद हो गया और मेरा भूत का भय सदा के लिए खत्म हो गया। फिर तो मैं भूतों को चुनौती देना शुरू कर दिया।

कछुए वाली बात हमें कैसे पता चली? अब नवंबर-दिसंबर तक लगभग सूख जाने वाली, हमारे गांव की नदी (मझुई) में तब बारहों महीने पानी बहता रहता था। जून में भी नहाने के घाटों पर काफी गहरा पानी होता था। सितंबर-अक्टूबर तक नाव चलती थी तता उसके बाद चह (बांस का पतला पुल) बनती थी। नाव गांव वालों के चंदे से खरीदी जाती तथा गांव वाले और उनके रिश्तेदारों की उतराई नहीं लगती थी। गांव के पुरोहित का लड़का नाव चलाता और बाहर वालों से लिया गया किराया (2 पैसा या 1 आना) उसकी कमाईन होती। दिन डूबने के बाद नाव खाली रहती। अजोर भाई का बच्चों से बहुत लगाव रहता था। कई बार हम लोग नाव उल्टी धारा में 2-3 किमी ले जाते और अपने आप धीरे-धीरे वापस आने के लिए छोड़ देते। इस दौरान नाव पर जिन्हें गाना आता था (खासकर आदित भाई अब दिवंगत]) गाना गाते, अंताक्षरी खेलते चुटकुले और कहानिया तथा अनुभव सुनते-सुनाते। कई बार हमारे साथ राम अजोर भाई भी होते, वे अक्सर शाम को भांग का सेवन करते थे। ऐसे ही एक बार के नौकाविहार में मैंने अंजोर भाई से भूत का राज पूछ दिया। उन्होंने कहा. "लडिकन क दोस्ती, ढेला क सनसनाहट औ जान क जंजाल"। फिर उन्होने यह कहकर राज खोला कि हमारी (बच्चों की) बात का वैसे भी कोई विश्वास नहीं करेगा। वहम खत्म तो बरम (भूत) की उत्पात भी खत्म।

30.11.2017

फुटनोट 220 (शाखा का बौद्धिक)

मेरे एक लिंक (समाजवाद 3)[समयांतर, मई में छपे लेख की] पर एक फेसबुक मित्र ने संघ के किसी बौद्धिक अधिकारी के बौद्धिक के हवाले से बताया कि रूस में क्रांति नहीं तख्ता-पलट हुआ था, जिसे क्रांति कहना अनुचित है। उस पर मेरा कमेंट:

शाखा की बौद्धिकों में अफवाहजन्य इतिहास सिखाया जाता है और कुप्रचार किया जाता है। बौद्धिक देने वाला खुद मूर्ख होता है (शाखामृग के रूप में अनुभवजन्य ज्ञान), रूसी क्रांति तक यह लेखमाला नौंवे भाग (नवंबर 2017) में पहुंचती है। मैं 13 साल का कर्मकांडी परिवेश में पला गांव का ब्राह्मण लड़का था लेकिन धार्मिक फरेबों पर संदेह होने लगा था। जौनपुर का जिला प्रचारक दुकच्छी धोती वाला, बाल स्वयं सेवको का ज्यादा ध्यान देने वाला वीरेश्वर जी (वीरेश्वर द्विवेदी, विहिप का मौजूदा राष्ट्रीय सचिव) था, उसने एक बौद्धिक में बताया कि हेडगेवार युधिष्ठिर का अवतार था। गोलवल्कर ने आजादी की लड़ाई के दौरान 'वि ऑर आवर नेसन डिफान्ड' में लिखा (1939) कि हिंदुओं को अंग्रजों से लड़ने में ऊर्जा व्यर्थ नहीं करना चाहिए, बाद में कम्युनिस्टों और मुसलमानों से लड़ने के लिए संरक्षित करनी चाहिए। उसी पुस्तक में लिखता है कि प्रचीन काल में उत्तरी ध्रुव उस जगह था जहां आज उड़ीसा और बिहार है, लेकिन शाखा में पढ़ने को हतोत्साहित किया जाता है, शाखामृग बिना पढ़े किसी को महान पवित्र ग्रंथ मान लेता है। उसी पुस्तक में यह भी लिखा है कि हिटलर ने जिस तरह सेमेटिक नस्ल का सफाया कर अपनी नस्ल की शुद्धा कायम की है वह हिंदुओं के लिए अनुकरणीय मिशाल है। हिटलर का मुख्य औजार अफवाहो को सच की तरह प्रचारित करने का प्रोपगंडा था। उसने बताया नहीं कि कैसे वह तख्ता पलट था? तख्ता पलट तो था ही लेकिन जनता द्वारा। इस लेख को पढ़े, लिंक पर बाकी भी हैं। यह भाग फ्रांस में 1848 की क्रांति पर है। 1917 की क्रांति चर्चा अंतिम (भाग 9, नवंबर 2017) में है। लेकिन संघी तो बिना पढ़े कमेंट करता है।

06.01.2017