Tuesday, November 8, 2016

जनविहीन जनतंत्र

जनविहीन जनतंत्र
ईश मिश्र

दिन की अवधारणा दिन-रात के युग्म के रूप में है, इसमें से एक को अच्छाई और दूसरे को बुराई के रूप में चित्रित करना दिन की संपूर्णता के साथ उसी तरह अन्याय है, जिसतरह स्त्री-पुरुष युग्म में एक को दूसरे से श्रेष्ठ बताना समानुभूतिक पारस्परिकता के संबंध के साथ. व्यक्तित्व टुकड़ों में नहीं होता बल्कि जैविक संपूर्णता में. फ्रांसीसी क्रांति सामंतवाद के विरुद्ध पूंजीवीदी (मध्य वर्ग) की क्रांति थी. स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का नारा इस नवोदित वर्ग की समीनता स्वतंत्रता के लिए था, उत्पादकों (श्रमिकों) के लिए नहीं.
 मध्ययुग में राजा दैविक कृपा से शासन करता था, राजनीति धर्मशास्त्र की चेरी थी. शासन की वैधता का श्रोत ईश्वर था और विचारधारा धर्म. प्रबोध (एनलाइटेनमेंट) काल की वैज्ञानिक क्रांति ने ईश्वर को उसी की दुनिया से विदा कर दिया. इसीलिए लंबी 18वीं सदी के नाम से जाने जाने वाले इस युग को 'क्रॉस' और 'क्रॉउन' के संघर्ष के रूप में भी जाना जाता है. उदारवाद इस नवोदित वर्ग-शासन की वैधता के बैद्धिक औचित्य तथा व्याख्या की धारा के रूप में थॉमस हॉब्स के साथ शुरू हुई, लेकिन बुनियाद मैक्याली ने रखी थी. उसने ईश्वर की जगह भाग्य की स्थापना की. उदारवाद ने शासन की बैधता के श्रोत के रूप में ईश्वर की अमूर्त अवधारणा की जगह 'जनता' की अमूर्त अवधारणा स्थापित कर दी और विचारधारा के रूप में धर्म की जगह राष्ट्रवाद. यह जनता आरती या ईश या कोई शारीरक-वौद्धिक श्रमजीवी नहीं, बल्कि अडानी-अंबानियों जैसे श्रमिकों का खून चूसने वाले परजीवी हैं. य़े लोग भी 5 साल में एक बार यह चुनने के लिए 'जनता' बन जाते हैं कि अगले 5 सालों तक शासकवर्ग का कौन तपका इनका खून चूसेगा. इसे लिए मार्क्सवादी इसे बुर्जुआ जनतंत्र या औपचारिक जनतंत्र कहते हैं. लेकिन भारत में, शायद औपनिवेशिक दखलअंदाजी और अधोगामी सामाजिक चेतना के चलते, ब्राह्मणवादी सामंतवाद (एशियाटिक मोड ऑफ प्रोडक्सन) के विरुद्ध कोई नवजागरण-प्रबोधन हुआ नहीं. (कहां फंसा दिया आरती! यह तो पूरा लेख ही हो जा रहा है, चलो अब तो फंस ही गए.). ब्रह्मोसमाज या आर्यसमाज आंदोलन ब्राह्मणवाद में सुधार का आंदोलन थे यूरोपीय नवजागरण की तरह कला-साहित्य-रानीति की धर्मशास्त्र के चंगुल से मुक्ति के नहीं. मौजूदा दलित लेखन और आंदोलन एक नए नवजागरण की तरफ इशारा है.
 उदारवादी जनतंत्र से जन वैसे ही गायब है जैसे प्लेटो की 'रिपब्लिक' से पब्लिक. 1669 में इंगलैंड में 'नो टैक्सेसन विदाउट रिप्रजेंटेसन' आंदोलन धनिक वर्गों के 'रिप्रजेंटेसन' का था. संसद(हाउस ऑफ लॉर्ड्स) के लिए महज कुलीन मर्दों के पास ही मताधिकार था. निम्न वर्गों ने तो लंबे संघर्ष के बाद 1884 में मताधिकार हासिल किया. उनके आंदोलन का दमन राष्ट्रवाद के शगूफे से किया जा रहा था. महिलाओं ने 1929 में. उदारवादी जनतंत्र मर्दवादी-पूंजीतंत्र के रूप में विकसित हुआ. गौरतलब है कि इंगलैंड में तथाकथित जनतंत्र का विकास उसकी औपनिवेशिक लूट के समानुपाती था. यह भी गौरतलब है कि किसानों-शिल्पियों की बेदखली के साथ औपनिवेशिक लूट 'तथाकथित आदिम संचय' का प्रमुख श्रोत थी जिसके आधार पर पूंजीवादी उत्पादन शुरू हुआ. 1884 में भूखे-नंगे पुरुषों को मताधिकार के बाद उच्च वर्ग बौखला गया, क्योंकि सभ्यता के इतिहास के सभी खंडों में यही बहुसंख्यक हैं. तत्कालीन उच्च वर्ग सकते में आ गया और गरीबों को राष्ट्रवाद की अपीम पिलाना शुरू कर दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री, डिजरायिली ने नारा दिया कि इंग्लैंड के साम्राज्य में कभी सूरज डूबता नहीं. भारत महान है रोटी नहीं तो क्या हुआ?


1950 के दशक में मेकार्थिज्म के तहत अमरीकी शासन ने राष्ट्रवाद के नाम पर हजारों वैज्ञानिक-कलाकार-शिक्षक-बुद्धिजीवी मार दिया या प्रताड़ित किया. इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम ने उदारवादी जनतंत्र में राष्ट्रवाद को संविधान के प्रति निष्ठा बताया है. भारत का जनतंत्र अर्धसामंती जनतंत्र है और फिलहाल तो संविधान ही खतरे में है और इसकी धज्जियां उड़ाने वाले देश-द्रोह की सनद बांट रहे हैं. बुतपरस्त-मुर्दापरस्तों के समाज में कुछ भी संभव है, जहां इतिहास की मिथकीय गति अधोगामी हो, सत-युग से कलियुग. वह सत्युग ऐसा कि जहां इंसानों की खरीद-फरोख्त की बाजार हो! तभी तो वह हरिश्चंद्र, खुद और बीबी बच्चों को बेच सका.


जिसकी धार्मिक भावनाएं आहत हों, उनसे क्षमा क्योंकि धार्मिक भावनाएं इतनी नाज़ुक होती हैं कि बेबात आहत हो जाती हैं. अरे भाई भगवान की अवमानना करूं तो भगवान मुझे सजा देगा, भक्त भगवान को अक्षम समझ बेबात बौखला जाते हैं.

ईश मिश्र
17 बी विश्वविद्यालय मार्ग
दिल्ली विश्विद्यालय
दिल्ली 110007


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