Friday, September 2, 2011

गम-ए-जहां

गम-ए-जहां
ईश मिश्र
जब बात शायरी सी लगने लगे
दिल में कुछ-कुछ होने लगे
कोई शूरत आँखों में डोलने लगे
दुनिया की जनसंख्या
एक में सिमटने लगे
गहन आनंद का साथ
सघन पीड़ा भी निभाने लगे
अंधी मुहब्बत का एहसास सताने लगे
तब
मुश्किल चुनाव है ऐसे में
चुनना हो जब गम -ए-जहां और गम-ए-दिल में
करूंगा मै तो गम-ए-जहां का हिसाब
शामिल हो जिसमे महबूब का भी सबाब



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