राजनैतिक हताशा की किसी की पोस्ट पर एक कमेंट का जवाब:
कभी कभी आक्रोश में ऐसी ही प्रतिक्रिया दिमाग में आती है कि यह जनता इसी लायक है, उसे ऐसा ही शासन चाहिए लेकिन जनता ऐसे क्यों है? हम मार्क्सवादी इस जनतंत्र को पंजीवादी (बुर्जुआ) जनतंत्र कहते हैं, लेकिन मार्क्सवाद के नाम पर चुनावी राजनीति करने वाली पार्टियों ने जनता की सोच/चेतना बदलने के लिए क्या किया? सीपीआई/सीपीएम तथा बुर्जुआ चुनावी पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क ही नहीं बचा है.। मार्क्स ने कहा है कि शासक वर्ग के विचार सासक विचार भी होते हैं, पूंजीवाद माल के साथ विचारों का भी उत्पादव करता है तथा सामाजिक उत्पादन के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप और चरित्र भी होता है , परिवर्तन के लिए जरूरी है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण यानि क्रांतिकारी (वर्ग) चेतना का संचार। सामाजिक चेतना के जनवादीकरणि के लिए जरूरी है, जाति-धर्म आदि के नाम पर अस्मिता राजनीति की मित्या चेतना से मुक्ति। हिंदुत्व फासीवाद 3ाह्ममवाद की ही राजनैतिक अभिव्यक्ति है। सामाजिक चेतना के जनवादीकरण का काम कम्युनिस्ट पार्टियों का है, जिसमें वे पूरी तरह असफल रहीं। लेकिन इतिहास का यह अंधकार युग अस्थाई है। फासीवादी ताकतें शिक्षा के विकृतीकरण से सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की धार कुंद करने के हर संभव प्रयास कर रही हैं, ज्ञान के कुओं को धर्म की अफीम से पाट ररही हैं। लेकिन अदम गोंडवी के शब्दों में. "ताला लगा के आप हमारी ज़बान को , कैदी न रख सकेंगे जेहन की उड़ान को।" हर निशा एक भोर का ऐलान है, हर अंधे युग का अंत देर-सबेर होता ही है।