साईबाबा : मानवाता की सेवा में एक शहादत
ईश मिश्र
12 अक्टूबर, 2024 को जनवादी, बुद्धिजीवी, प्रोफेसर जीएन साईबाबा मानवता की सेवा
में शहीद हो गए। जेल से छूटने के बाद वसंता (साईबाबा की पत्नी) को फोनपर साईबाबा
से बातें हुईं, वे अपनी
बीमारी की नहीं, प्रतीक्षित किंतु
अधर में लटके अपने शिक्षक जीवन, अध्यापन, छात्रों तथा
देश-दुनिया की दशा-दिशा चिंता जाहिर कर रहे थे। 2014 में गिरफ्तारी के बाद कॉलेज प्रशासन ने
उन्हें निलबित कर दिया था और 2017 में एक सत्र अदालत द्वारा आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने के बाद
बर्खास्त। पते की बात तो यह थी कि हाई कोर्ट से बरी होकर जेल से छूटते ही उन्हें
बहाल करदेना चाहिए था। उनकी बहाली का मामला शायद कोर्ट में है, लेकिन अब उसे इसके फैसले से क्या? छूटने के बाद ही पढ़ाने यानि फिर से अपने
छात्रों से संवाद की इच्छा जाहिर की थी, लेकिन पूजीवाद में श्रमशक्ति से लैश
मजदूर, चाहे वह
शिक्षक ही क्यों न हो, श्रम के
साधन से मुक्त होता है। फिर से पढ़ाने की उनकी यह इच्छा, इस जीवन में अधूरी ही रह गयी। लेकिन अपने
जीवन के उदाहरण, लेखों और
कविताओं से वे आने वाली पीढ़ियों को पढ़ाते रहेंगे। साईबाबा मुझसे 12 साल छोटे थे और हमारी पहली मुलाकात इस
शतीाब्दी के शुरुआती सालों में कभी हुई। जनपक्षीय सरोकार के किसी मुद्दे पर एक
मीटिंग में गए थे, देखा कि
लकवाग्रस्त पैरों वाला एक लड़का हाथों में चप्पल पहनकर सीढ़ियां चढ़ रहा है। मन ही
मन सलाम किया। 2003 में दिल्ली
विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में नौकरी मिली और जल्दी ही छात्रों में
लोकप्रिय हो गए। रोहित बेमुला की शहादत से शुरू हुए छात्र आंदोलनों में हम दोनों
सक्रिय थे। 2014 में
गिरफ्तारी के पहले भी पूछ-ताछ के नाम पर पुलिस ने कैंपस में साई के घर छापा मारा
था। गिरफ्तारी की आशंका को खत्म करने के लिए तत्कालीन डूटा प्रेसीडेंट नंदिता
नारायण के नेतृत्व में हम बहुत से शिक्षक और छात्रों का बहुत बड़ा हुजूम साईबाबा
के घर पहुंचा था। छात्रों में साईबाबा की लोकप्रियता उल्लेखनीय है। साईबाबा की
शहादत से शिक्षकों ने एक बेहतरीन साथी तथा छात्रों ने एक अच्छा शिक्षक खो दिया और
समाज ने एक जनपक्षीय बुद्धिजीवी। साईबाबा आदिवासियों, दलितों, स्त्रियों तथा अन्य वंचित-शोषित तपकों के
अधिकारों के पक्ष में हमेशा मुखर रहे। साईबाबा की शहादत असहमति के अभिव्यक्ति का ‘दुस्साहस’ करने वाले देश के जनतांत्रिक बुद्धिजीवियों
को डराने के लिए सरकार का नसीहती संदेश है।
16वीं शताब्दी
के राजनैतिक दार्शनिक मैक्यावली के ‘समझदार’ प्रिंस (शासक) के आधिपत्य की बुनियाद भय
पर टिकी है। उसका मानना है कि भय लोगों को एकजुट और वफादार बनाए रखने का सबसे
विश्वसनीय माध्यम है। उसे लोगों की नर्भयता का भय होता है। जनकवि गोरख पाांडेय की
एक कविता है, “वे डरते
हैं कि एक दिन, निहत्थे और ग़रीब लोग उनसे डरना बंद कर
देंगे”। साईबाबा
की शहादत समाज को
भयाक्रांत बनाने की व्यापक योजना की कड़ी है। एल्गर परिषद मामले में जनतांत्रिक
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी उसी परियोजना का हिस्सा
है। इस मामले में साईबाबा
की शहादत दूसरी शहादत है, पहली
शहादत फादर स्टेन स्वामी ने दी। आदिवासियों के मानवाधिकार की लड़ाई के योद्धा, 84 साल के स्टेनस्वामी को जीवन की मूलभूत
सुविधाओं से वंचित कर जेल में ही शहीद कर दिया गया। उन्होने अदालती बयान में कहा
था कि मेडिकल सुविधाओं के अभाव में उनकी मौत हो सकती थी। और हो गयी। 10 साल अमानवीय हालात वाले अंडा सेल में
यातना तथा सुविधाओं की वंचना ने साईबाबा को मरणासन्न कर दिया था और हाईकोर्ट से
बरी होकर, जेल से
छूटने के 7 महीने बाद
लगातार इलाज कराते हुए शहीद हुए।
साईबाबा की शहादत पिछली शताब्दी के महान जनपक्षीय बुद्धिजीवी, एंटोनियो ग्राम्सी की शहादत की याद
दिलाती है। ग्राम्सी की शहादत से अंतर्राष्ट्रीय, क्रांतिकारी बौद्धिक जगत में एक बड़ी
रिक्तता आ गयी थी, साईबाबा की
शहादत भारत के जनवादी और मानवाधिकारों के आंदोलनों के बौद्धिक जगत में एक रिक्तता
आ गयी है।दोनों की मानवता की सेवा में आमजन के मानवाधिकारों के संघर्षों के योद्धा
थे। ग्राम्सी और साईबाबा अलग-अलग समय और अलग अलग संदर्भों में मानवता की सेवा
मानवाधिकारों की रक्षा के संघर्षों में शहीद हुए। ग्राम्सी की भी हत्या नहीं की गयी थी, 10 साल जेल की यातना और अनिवार्य चिकित्सा
सुविधाओं की वंचना से मरणासन्न कर छोड़ दिया गयी था और साल भीतर उनकी मृत्यु हो
गयी। ग्राम्सी भी बचपन से ही बीमारियों के हमजोली रहे, लेकिन साईबाबा की तरह बचपन से ही पोलियो
प्रकोप के चलते अपाहिज नहीं थे। प्रो. साईबाबा की भी हत्या नहीं हुई, उन्हें भी गिरफ्तार किया गया और 90% विकलांगता के बावजूद अनिवार्य चिकित्सकीय
सुविधाओं से वंचित कर, अमानवीय हालात
वाले, कुख्यात, अंडा सेल में डाल दिया गया।हत्या और
बलात्कार के दोषी राम-रहीम को डेरा में सच्चा सौदा करने के लिए पेरोल मिलता रहता
है, लेकिन
साईबाबा को मत्युशैया पर पड़ी मां को देखने के लिए भी पेराल नहीं मिला। अद्भुत न्याय है! ऐसा ही अद्भुत न्याय
फासीवादी इटली के भी इतिहास में दर्ज है। 1926 में इटली के फासीवादी शासक मुसोलिनी पर
हमले को बहाना बनाकर फासीवादी शासन ने आपातकालीन कानून बनाने-लागू करने का सिलसिला
जारी किया और संसदीय कवच के बावजूद, एंटोनियो ग्राम्सी को गिप्तार कर लिया
गया था। उस समय वे इटली के कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और इटली की संसद के सदस्य
थे। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर साईबाबा को भाजपा सरकार ने 2014 में प्रतिबंधित माओवादी कम्युनिस्ट
पार्टी से जुड़े होने का आरोप लगाकर गिरफ्तार किया। 1926 में फासवादी सरकारी वकील ने अदलात में
कहा था कि इस (ग्राम्सी के) दिमाग को अगले 20 सालों के लिए काम करने से रोक देना
चाहिए। वे दिमाग को काम करने से नहीं रोक पाए, ग्राम्सी की जेलडायरी अंतर्राष्ट्रीय
बौद्धिक समाज के लिए उनकी अमूल्य ऐतिहासिक विरासत है। सांसकृतिक वर्चस्व के
सिद्धांत का प्रतिपादन उन्होंने जेल में ही किया। फासीवादी जेल में किताबों की
सीमित सुलभता होती थी, यहां की
जेलों में शायद वह भी नहीं है। साईबाबा ने जेल अंडा सेल की असंभव परिस्थितियों और
क्या-क्या लिखा, उसका पता चलना अभी बाकी है, सोसल मीडिया पर प्रकाश में आई उनकी कुछ
कविताएं मार्मिक हैं, खासकर मां
के लिए लिखी कविताएं।
जब 14 अक्टूबर, 2022 को बंबई हाईकोर्ट ने गढ़चिरौली के सत्र
न्यायालय के उम्रकैद के फैसले को निरस्त कर प्रो. साईबाबा की रिहाई का फैसला दिया तो
लगा था कि न्याय व्यवस्था में न्याय की
संभावनाएं बाकी हैं। लेकिन सरकार को इससे ऐसा झटका लगा कि फैसला आते ही, उसे रुकवाने हड़बड़ाहट
में, तुरंत सुप्रीम कोर्ट पहुंची। सुप्रीमकोर्ट को भी एक 90% अपाहिज, साहित्य के प्रोफेसर की आजादी
इतनी खतरनाक लगी कि अगले दिन शनिवार को विशेष बेंच गठित कर हाईकोर्ट के फैसले पर
रोक लगा दी थी। सरकार जानती थी कि साईबाबा अभिव्यक्ति के खतरे उठाने से बाज आने
वालों में नहीं थे। और सर्वाधिकारवादी शासक को सबसे अधिक खौफ विचारों का होता है।
सत्ता का भय होता है, विचारों का आतंक। विभिन्न देश-काल में सत्ताएं विचारों से
आतंकित हो विचारकों की हत्या करती रही हैं, चाहे वह सुकरात हों या ब्रूनो, भगत
सिंह हों या ग्राम्सी या फिर साईबाबा। लेकिन सत्ताएं यह नहीं जानतीं कि विचार मरते
नहीं, फैलते हैं और इतिहास रचते हैं। कानूनी जानकारों का मानना है कि विशेष बेंच के
गठन का प्रावधान अत्यंत गंभीर मामलों में आपातकालीन प्रावधान है। किसी राज्य की
न्यायपालिका का चरित्र वही होता है जो राज्य का। मेडिकल आधार पर उनका नजरबंदी का
आवेदन भी नामंजूर कर दिया गया। अपनी रिहाई पर रोक के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के
बाद साईबाबा ने पत्नी बसंता को पत्र लिखकर अपनी पीड़ा का बयान किया था। “नागपुर में ठंड पड़ने लगी है, मेरी टांगों, हाथ और पेट का मांसपेशियों में ऐंठन होती
है और असह्य पीड़ा। वैसे भी कोविड और फ्लू के दो दो
दौरों के बाद शरीर बहुत कमजोर हो गया है। मेरी किडनी में पथरी हो गयी है और दिमाग
में खून जम गया है, निमोनिया भी परेशान कर
रही है। सरकारी मेडिकल अस्पताल के डाक्टरों की संस्तुति के बावजूद अनिवार्य मेडिकल
सुविधाओं का कोई भी ध्यान नहीं दे रहा।” उस
समय वसंता ने बताया था कि अब साईबाबा पहले सा नहीं लिख पाते, एक
पेज लिखने में पूरा दिन लगा देते हैं। साईबाबा को शहीद कर इस सरकार में मानवता की
सेवा में हमारा एक दमदार सहयात्री छीन लिया। इतिहास साईबाबा की शहादत को मानवता के
विरुद्ध एक भीषण अपराध के रूप में
याद करेगा। 2016 में फेसबुक पर साईबाबा
की किसी खबर की एक पोस्ट पर तुकबंदी में एक कमेंट लिखा था, इस
श्रद्धांजलि लेख का समापन उस तुकबंदी से करना अप्रासंगिक नहीं होगा। हम आपस में
साईबाबा को पहिए की कुर्सी वाला प्रोफेसर कहते थे।
पहिए की कुर्सी वाला प्रोफेसर खतरा है
देश की सुरक्षा के लिए
माना नहीं उठा सकता बंदूक यह अपाहिज
प्रोफेसर
पर दिमाग तो चला ही सकता है
और विचार बंदूक से ज्यादा खतरनाक होता है
सत्ता का भय होता है, विचारों का आतंक
सही है कि वह अपाहिज है और नहीं उठा सकता
बंदूक
पर फिरा सकता है कम्यूटर के कीबोर्ड पर
उंगलियां
और फैला सकता है खतरनाक विचार
वह भी बेहद खतरनाक
आदिवासियों के भी मानवाधिकार के विचार
माना कि बंदूक नहीं उठा सकता
लेकिन पहिए की कुर्सी पर बैठे-बैठे पैदा
कर सकता है विचार
सरकार चलाती है जब राष्ट्रवादी ग्रीनहंट
अभियान
देने लगता है सेना के छोटे-मोटे अत्याचारों
पर गंभीर बयान
इतना ही नहीं कश्मीरी मुसलमानों को भी
इंसान मानता है
उनके भी मानवाधिकार की बात करता है
राष्ट्र की अखंडता पर आघात करता है
माना कि भाग नहीं सकता पहिए की कुर्सी
वाला प्रोफेसर
लेकिन मिलेगी नहीं जब तक जेल की
प्रताड़ना
खतरनाक होती जाएगी बुद्धिजीवियों की
चेतना
और देश की सुरक्षा के लिए सबसे खतरनाक है
चिंतनशील इंसान
डरा सकता जिसे न कोई भूत न ही भगवान
करते रहेगे ये वैसे तो जेल में भी
ग्राम्सी सी खुरापात
बर्दाश्त कर लेगा मगर राष्ट्रवाद उतनी
उत्पात
(ईमिः31.03.2016)
जनपक्षीय
बुद्धीजीवी प्रोफेसर साईबाबा की मानवता की सेवा में शहादत को सलाम। इंकिलाब
जिंदाबाद।