Monday, December 29, 2025

शिक्षा और ज्ञान 387 (एंजेल चकमा की भीड़ हत्या)

 उन्ही का शहर वही मुद्दई वही मुंशिफ


भीड़ हत्या का गौरवशाली राष्ट्रवादी इतिहास: वैसे सांप्रदायिक नफरत और हिंसा की जड़ें तो औपनिवेशिक काल तक जाती हैं, जब औपनिवेशिक शासकों ने उपनिवेशविरोधी संघर्ष की विचारधारा के रूप में उभर रहे भारतीय राष्ट्रवाद को विखंडित करने के लिए, दोनों प्रमुख समुदायों के अपने दलालों के माध्यम से सांप्रदायिक (हिंदू-मुस्लिम) राष्ट्रवाद की परियोजना शुरू की, जिसकी परिणति अंततः औपनिवेशिक परियोजना की सफलता के रूप में देश के ऐतिहासिक-भौगोलिक विखंडन में हुई, जिसका घाव नासूर बन पता नहीं कितनी पीढियों तक रिसता रहेगा। जिसके चलते देश के सभी खंडित हिस्से में सांप्रदायिक आतताई राजनैतिक सेंध लगाने में सफल रहे। इस्लामी राष्टरवाद के प्रभाव में भारतीय राष्ट्र मुस्लिम पाकिस्तानी हिस्से में इन आतताइयों को जल्दी सफलता मिल गयी और भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन की सशक्त विरासत के चलते बचे भारत को हिंदू पाकिस्तान बनाने में आरएसएस को को 4 दशक से ज्यादा लग गया और भारतीय राष्ट्रवाद, हिंदू राषट्रवाद के फासीवादी अभियान के रास्ते में अब भी एकसशक्त गतिरोधक के रूप में खड़ा है और भारतीय राष्ट्रवाद की ताकतें हिंदू राष्टवाद की बुनियाद हिलाने में लगी हैं। इसी गतिरोधक को तोड़ने/कमजोर करने के प्रयास में हिंदुत्व फासीवादी ताकतें लोगों में लोगों में नफरत का जहर भर कर भीड़ हत्याओं का प्रायोजन करती हैं।

देहरादून में, सांप्रदायिक उन्माद के संघी 'राष्ट्रवादी' विचारधारा से प्रेरित, सीमावर्ती राज्य त्रिपुरा के एंजेल चकमा की जघन्य भीड़ हत्या जैसी जघन्य भीड़ हत्या या 'वध' का समकालिक गौरवशाली इतिहास दादरी के अखलाक अहमद की भीड़ हत्या से शुरू होता है। हाल ही में उप्र के 'यशस्वी' मुख्यमंत्री सनातन पुरुष, योगी आदित्यनाथ ने अखलाक़ के हत्या के आरोपियों पर चल रहे मुकदमें वापस लेने का आदेश दिया था उसी तरह जैसे 2002 में बिलकिस बानो के बलात्कारियों को गुजरात की हिंदू-राष्टवादी सरकार ने दोषमुक्त कर दिया था।

चाकमा के हत्यारों के विरुद्ध कार्रवाई में भी उत्तराखंड के 'यशस्वी' मुख्यमंत्री धामी जी की पुलिस ने इतना-हिल्ला हवाला किया कि मुख्य आरोपी को नेपाल भागने का अवसर मिल गया। वैसे तो अदालतों से भी बहुत उम्मीद नहीं रखनी चाहिए न्यायतमंत्र में भी हिंदू राष्ट्रवाद की घुसपैठ भारतीय राष्ट्रवाद पर भारी पड़ रहा है, हाल ही में दिलली उच्च न्यायालय द्वारा उन्नाव के बलात्त्कार-हत्या के दोषी भाजपा नेता कुलदीप सेंगर की सजा निलंबित करने का आदेश दिया था जिसपर, बहुत हल्वा-गुल्ला के बाद, फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है। वैसे तो आमतौर पर राजनैतिक अपराधियों को अदालतों से क्लीन चिट मिल जाती है।

Friday, December 26, 2025

शिक्षा और ज्ञान 386 (कैलीगुला)

 एक पोस्ट पर कमेंट


How to Lose a Country: The Seven Steps from Democracy to Dictatorship में एर्दोआन की मिशाल से एसे टेमेलकुरान (Ece Temelkuran) द्वारा वर्णित जनतंत्र से तानाशाही की यात्रा के सात कदम मौजूदा और ऐतिहासिक अतीत सभी तानाशाहों के उत्थान की कहानी है, लेकिन हर तानाशाही के हर उत्थान के बाद के बाद उसका पतन भी होता है। लेकिन उत्थान के पतनशील शीर्ष तक पहुंचने के तक यह मानवता को कितना घायल करता है इसका सही आकलन मुश्किल है और घाव कितनी पीढ़ियों के मगहम से भरेगा, यह कहना भी मुश्किल है। इन सात कदमों के अलावा हर तानाशाह इतिहास के विकृतीकरण का काम भी करता है। 2014 में सत्ता पर काबिज होने के बाद भारत की मौजूदा सरकार ने इतिहास पुनर्लेखन कमेटी गटित किया जिसका घषित उद्देश्य ज्ञात-अज्ञात अतीत में महानताओं का अन्वेषण करना या इतिहास का पुनर्मिथकीकरण है। किसी आबादी को गुलाम बनाने के लिए उसे उसके इतिहास से वंचित करना हर तानाशाह की अनिवार्य नीति होती है, इतिहास के महानायकों का खलनायकीकरण होता है और खलनायकों-गद्दारों को महानायक बनाकर पेश किया जाता है। प्राचीन रोम में एक सम्राट था कैलीगुला जो खुद को भगवान मानता था और अपनी सत्ता को शाश्वत। कहता था कि उसे लोगों की नोफरत की परवाह नहीं, बशर्ते वे उससे डरते रहें, लेकिन वह नहीं जानता था कि अतिशय घृणा भय का बांध तोड़ देती है। उसे उसके अंगरक्षकों ने ही उसे रोम के चौराहे पर कत्ल कर दिया और किंवदंतियों के अनुसार, लोगों में उसके मुंह में मूतने की होड़ लग गयी थी।

Thursday, December 25, 2025

शिक्षा और ज्ञान 385 (प्रोफेसर का निलंबन)

 इंडियन एक्सप्रेस की खबर के हवाले से मुस्लिमों की प्रताड़ना पर जामिया में सोसलवर्क विभाग में सेमेस्टर परीक्षा में प्रश्न पूछने पर प्रो. वीरेंद्र बलाजी के निलंबन पर Vishnu Nagar जी की पोस्ट पर कमेंट:


1990-91 की बात है मैं बीए प्रथम वर्ष के विद्यार्थियो को मैक्यावली के संदर्भ में धर्म और राजनीति पढ़ा रहा था उस समय आरएसएस के संगठन बाबर की औलादों को एक धक्का और देकर (एक कब दिया था, पता नहीं) बाबरी मस्जिद की जगह 'मंदिर वहीं बनाेंगे' के अबियान में लगे थे। मैक्यावली धार्रामिक आचार संहिता से स्वतंत्र राजनैतिक आचार संहिता की की हिमायत करता है और दोनों में टकराव की स्थिति में धार्मिक आचारसंहिता पर पर राजनैतिक आचारसंहिता को तरजीह देने की। लेकिन वय यह भी कहतीा है कि धार्मिक रीति-रिवाज; कर्मकांंड कितने भी गड़बड़ लगें, समजदार राजा को उनसे न केवल छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए, बल्कि उनका पालन सुनिश्चित करना चाहिए क्योंकि धर्म लोगों को संगठित और वफादार बनाए रखने का सबसे कारगर औजार है। राजनीति के लिए कितना भी फरेब, धोखाधड़ी, हत्या आगजनी समेत कितने भी कुकृत्य क्यों न करे लेकिन उसे धर्मात्मा दिखने की कोशिश करना चाहिए। भगवान का भय राजा के भय मेें दिल में उतर जाता है और लोग यह भी सोचेंगे कि जब भगवान उसके साथ है तो उनके जैसे साधारण लोग उसका क्या ही बिगाड़ लेंगे। कितना भी बड़ा धूर्त और नरपिशाच क्यों न हो लेकिन उसे सौम्य और करुणामय दिखना चाहिए क्योंकि जनता दिखावे पर फिदा होने वाली भीड़ होती है, उसे जो भी दिखाया जाता है, वह सच मान लेती है। कुछ लोग जो हकीकत जानते हैं, जनता जब राजा के साथ है तो उनकी क्या बिसात, उनके साथ वह आसानी से निपट सकता है, नसीहत के लिए उनमें से कुछ को निपटा भी सकता है। इसी संदर्भ मेंने आरएसएस के बाबरी मस्जिद -राममंदिर अभियान की चर्चा किया। अगले दिन एक एक साल सीनियर छात्र मेरे पास यह आग्रह लेकर आया कि मैं क्लास में आरएसएस की बात न करूं। मैंने उससे पूछा कि वह धमकाने तो नहीं आया था तो वह सर सर करने लगा। आज का समय होता तो शायद बात नौकरी पर आ जाती। वह लड़का आज दिल्ली विवि के एक कॉलेज में प्रिंसिपल है। इसी घटना को फसाना बनाकर मैंने 22 जनवरी 1992 को नवभारत टाइम्स के 'आठवां कॉलम' में 'कबीर कौन था' लिखा था।

Monday, December 22, 2025

बेतरतीब 182 (जेएनयू 1983)

जगदीश्वर चतुर्वेदी की एक पोस्ट पर कमेंट:

1983 के छात्र आंदोलन कुचले जाने में एसएफआई प्रकांरांतर से प्रशासन के साथ थी और यूनिवर्सिटी अनिश्चितकाल के लिए बंद होने के बाद तो एसएफआई-एसएफआई-फ्रीथिंकर्स सबने समझौता कर लिया था। मुख्यधारा संगठनों से अलग कुछ छात्र, लगभग 20 रस्टीकेट हुए, ज्यादातर ने माफी मांग ली। अध्यक्ष नलिनी रंजन मोहंती का रस्टीकेसन बाद में वापस हो गया। वैसे उनका तो तहना है कि वीसी ने उनके व्यवहार से खुश होकर उनका रस्टीकेसन वापस लिया था, उन्होंने माफी नहीं मांगी थी जो विश्वसनीय नहीं लगता। एसएफआई के जगपाल सिंह का भी रस्टीकेसन वापस हो गया था। इतने छात्रों के रस्टीकेसन के खिलाफ मुख्यधारा के किसी संगठन ने कोई आवाज नहीं उठाई, आंदोलन की तो बात ही छोड़िए। ज्यादातर लोग 2 साल के लिए रस्टीकेट हुए थे, 4 लोग 3 साल के लिए -- अधियक्ष के नाते मोहंती, बाद में जिनका रस्टीकेसन निरस्त हो गया, उर्मिलेश, मैं और सयुस काअटल शर्मा। बाकी लोगो में इग्नू से रिटायर, इतिहासकार प्रो. शशि भूषण उपाध्याय, दलित बुद्धिजीवी चंद्रभान प्रसाद, बीजी तिलक, वैज्ञानिक सुगठन तथा विलुप्त हो चुके कवि राजेश राहुल शामिल थे। अध्यक्ष के निष्कासित होने के बाद नर्वाचित ज्वाइंट सेक्रेटरी रश्मि दोरईस्वामी का कार्यकारी अध्यक्ष बनना आंदोलन विरोधी कृत्य था। वैसे आपका अध्यक्ष बनना और समय पर पीएचडी जमा करना प्रशंसनीय है। यह कमेंट टाल सकता था, लेकिन नहीं टाला।

Jagadishwar Chaturvedi आंदोलन का नेतृत्व छात्रसंघ ने किया था, एसएफआई को सदस्य भी छात्र होवने के नाते सिद्धांतः उसमें शरीक थे, एसएफआई चुनावी हार की कुंठा से निकल नहीं पाई और आंदोलन के साथ गुप्त गद्दारी की। वैसे उस चुनाव में फ्रीथिंकर्स से समझौता कर हमने भी गलती की थी। वह अलग विषय है। एसएफआई वालों की ही तरह मोहंती ने भी समझौता कर अपनीा रस्टीकेसन वापस करा लिया। एसएफआई के लोग खुले आम कहते फिर रहे थे कि हम अंडरहैंड डीलिंग करें या जो भी करें यूनिवर्सिटी साइनेडाई नहीं होने देते थे। बड़ा संगठन होने के नात्े लगभग 20 छात्रों के रस्टीकेसन को लेकर एसएफआई ने कोई वक्तव्य तक नहीं दिया, डीएसएफ को छोड़कर किसी ने कोई वक्तव्य नहीं दिया था।उपाध्यक्ष पद पर जीता हमारे संगठन का संजीव चोपड़ा भी रस्टीकेट होने से बच कर अंततः आईएएस बन गया। हम भी माफी मांगकर रस्टीकेसन से बच सकते थे। मेरा तो मैरिड हॉस्टल का नंबर आने वाला था। 1983 में पैदा हुई मेरी बेटी आज तक ताने देती है कि मैं उसे 4 साल तक गांव में छोड़े रहा। हॉस्टल मेरे इविक्सन के समय 2 ट्रक पुलिस बुलाई गयी थी और प्रतिरोध में 15-20 लोग थे। मुझे 1948 का लंदन में चार्टर्ड आंदोलन की याद आई संसद में 20 लाख हस्ताक्षर जमा करने के बाद परमुखतः वयस्क मताधिकार के मुद्दे पर प्रदर्शन का आह्वान किया गया था, सेना-पुलिस की तैनाती से लंदन की गेराबंदी कर दी गयी थी और अंततः 100-200 लोग इकट्ठे हुए। रश्मि शायद ज्वाइंट सेक्रेटरी थीं कार्यकारी अध्यक्ष बनने के उनके तकनीकी अधिकार की नहीं आंदोलन से दगा करने के नैतिक-राजनैतिक पहलू की बात कर रहा हूं।

Sunday, December 21, 2025

मार्क्सवाद 357 (नास्तिकता)

 जावेद अख्तर तथा मुफ्ती शमैल नदवी के बीच आस्तिकता-नास्तिकता पर बहस की एक पोस्ट पर एक सज्जन ने कमेंट किया


"आस्तिक, नास्तिकों से कहीं अधिक ख़तरनाक हैं क्योंकि वे धार्मिक कम धर्मांध ज्यादा हैं।"

उस पर :

मतलब कि नास्तिक भी खतरनाक होता है, अपेक्षाकृत कम? एक धार्मिक समाज में नास्तिकता अनवरत चिंतन-मनन, अदम्य साहस और दुरूह आत्मसंघर्ष का परिणाम होती है। नास्तिक की तार्किकता सत्य का प्रमाण मांगती है, दैवीयता का प्रमाण नहीं मिलता इसलिए उसे वह नकारती है। भगवान की भय से मुक्ति के लिए धैर्य और संयम की आवश्यकता होती है तथा दैवीयता की बैशाखी तोड़कर फेंकने के लिए आत्मबल की। नास्तिक किसके लिए क्या खतरा पैदा करता है? मेरे परिजनों में 99.99% धार्मिक हैं, धर्मांध नहीं, लेकिन धार्मिकता में धर्मांधता की संभावनाएं मौजूद रहती हैं।

Rehan Ashraf Warsi वाद-विवाद तर्क आधारित होनी चाहिए तथा आस्था में तर्क का कोई स्थान नहीं होता, किसी दैवीय शक्ति का नकार उस पर दृढ़ आस्था रखने वालों को उसका मजाक लगेगा इसमें तर्क का कोई दोष नहीं है। सत्य वही जिसका प्रमाण हो। नास्तिक जब किसी सर्वशक्तिमान की अवधारणा को खारिज करता है तो वह किसी मशीहा या अवतार की बात क्यों मानेगा? धार्मिकों को तर्क करने का धैर्य अर्जित करना चाहिए।

Thursday, December 18, 2025

मार्क्सवाद 356 (लोहिया-जेपी-आरएसएस)

 एक पोस्ट पर एक कमेंट पर कमेंट---


लोहिया ने 1960 के दशक में कांग्रेस विरोधी गठजोड़ बनाने के लिए दीनदयाल उपाध्याय से समझौता कर, आरएसएस के सांप्रदायिक फासीवाद को सामाजिक स्वीकार्यता का पथप्रशस्त करने की शुरुआत की जिसकी परिणति 1967 की संविद सरकारों के गठन में हुई जिसमें समाजवादी और सीपीआई तथा जनसंघ एकसाथ आए, संविद प्रयोग विफल रहा, लेकिन तब तक सामाजिक अस्पृश्यता का शिकार आरएसएस को सामाजिक स्वीकर्यता मिलना शुरू हो गयी। लोहिया के कांग्रेस विरोधी मंच के नाम पर आरएसअएस को सहयोगी बनाने की पुनरावृत्ति जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुई जब बिहार छात्र आंदोलन के नेतृत्व के निर्वात ने उन्हें 'लोक नायक' बनने का अवसर प्रदान किया और उन्होंने आरएसएस को अपनी अपरिभाषित, भ्रामक संपूर्ण क्राांति का प्रमुख सहयोगी बनाया, जिसकी परिणति जनता पार्टी सरकार में हुई जिसमें समाजवादियों के साथ जनसंघ शामिल हुई तथा विदेश और सूचना-प्रसारण जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय हथियाया। पत्रकारिता में शाखा प्रशिक्षित लोगों का प्रवेश लाल कृष्ण आडवाणी का महत्वपूर्ण योगदान है। संविद की ही तरह जनता प्रयोग भी विफल रहा और जनता पार्टी के विघटन के बाद आरएसएस की संसदीय शाखा जनसंघ ने खुद को गांधीवादी समाजवाद को वैचारिक आधार पर भारतीय जनता पार्टी के नाम से पुनर्गठित किया। जेपी के संपूर्ण क्रांति की ही तरह भजपा का गांधीवादी समाजवाद भी एक शगूफा ही साबित हुआ तथा 1984 की भयानक संसदीय हार के बाद आरएसएस की संसदीय शाखा, भाजपा रक्षात्मक सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर देश भर में दीवारों पर 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं' के नारे लिख कर बाबर की औलादों के एक धक्का देकर मंदिर वहीं बनाने के नारे के साथ आक्रामक सांप्रदायिकता के तेवर में आ गयी। 1990 के दशक तक लोहिया और जेपी के जॉर्ज, नीतीश और शरद यादव जैसे तमाम योद्धा सांप्रदायिक फासीवाद के अभियान के सिपहसालार बन गए। तब से अब तक लोहिया-जेपी के लोगों के सक्रिय सहयोग से समाज का आक्रामक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जारी है और लगता है देश के टुकड़े-टुकड़े होने तक चलता रहेगा।

शिक्षा और ज्ञान 384 (हिजाब)

 नीतीश कुमार द्वारा, जबरन एक स्त्री डॉक्टर का हिजाब उतारने की आलोचना की एक पोस्ट पर एक सज्जन ने लिखा कि हिजाब पहनना उसका अधिकार नहीं बल्कुि माइंड वाशिंग या मेंटल कंडीशनिंग है। उस पर --


बिल्कुल सही कह रहे हैं, यह वैसी ही माइंड वाशिंग है, जैसे करवा चौथ या नवरात्र का व्रत रखना या खुशी-खुशी कन्यादान के अनुष्ठान से दान की वस्तु बन जाना या हिंदू अथवा मुस्लिम होने पर गर्व करना। लेकिन यह पोलिटिकल नहीं कल्चरल कंडीशनिंग है इसका निदान जोर जबरदस्ती करवा चौथ पर पाबंदी लगाना नहीं सांस्कृतिक चेतना बदलना है जिससे स्त्रियां करवाचौथ का व्रत रखने का मर्दवादी निहितार्थ समझ सकें और खुद उसका परित्याग कर सकें। ज्यादातर मुस्लिम छात्राएं हिजाब नहीं पहनतीं। इरान में हिजाब के विरुद्ध जबरदस्त आंदोलन चला। मैंने उस समय हिजाब के विरुद्ध इरानी स्त्रियों के आंदोलन का समर्थन किया था और साथ ही हिंदुस्तान के कुछ संस्थानों में हिजाब पर पाबंदी के विकुद्ध स्त्रियों के आंदोलन का भी। हर किसी को अपना भोजन-वस्त्र चुनने की आजादी होनी चाहिए। आजादी की समझ पर भी सामाजिक चेतना का दबाव होता है तो निदान आजादी पर प्रतिबंध नहीं, सामाजिक चेतना का जनवादीकरण है।

जिस पोस्ट पर जिस कमेंट के जवाब में यह कमेंट लिखा गया, उन सज्जन ने मेरे कमेंट के जवाब में पूछा--

Abhinav Bhatt
Ish Mishra लेकिन उस समाज का क्या करे जो अपनी कोई कुरीति छोड़ना ही नहीं चाहता, और हर पागल पन को ऊपर वाले का आदेश बताता है, आपने किसी पढ़े लिखे मुसलमान को सुना, कहते बुर्का प्रथा कुरीति है, और तो और मजे की बात ये है कि वो एक डॉक्टर थी जो बुर्का पहन कर नियुक्ति पत्र लेने आई, फिर ऐसे में आप किस से अपेक्षा करेंगे मानसिक विकास की?

मेरा जवाब:

Abhinav Bhatt जी बहुत से मुसलमान यह कहते हैं कि बुर्का इस्लामी नहीं ऐतिहासिक प्रचलन है। घूंघट और बुर्का सारे मर्दवादी प्रतीक हैं। बहुत सी अल्ट्रा मॉडर्न लड़कियां भी करवा चौथ रखती हैं। वह डॉ. हिजाब पहने थी, और आपको किसी के खाने-पहने के चुनाव की आदत का सम्मान करना चाहिए। आपने कितने सनातन का भजन गाने वालों को यह कहते सुना है कि करवा चौथ या पति के नाम पर मंगल सूत्र पहनना या कन्यादान जैसी मर्दवादी अवधारणाएं कुरीतियां हैं? सारे धर्मांध अपने धर्मों की कुरीतियों के औचित्य के कुतर्क गढ़ते रहते हैं। इरान में हिजाब के विरुद्ध स्ियों के जुझारू आंदोलन को इरान तथा दुनिया के अन्य बहुत से देशों के पुरुषों का समर्थन प्राप्त है। मैंने विवाह में अपनी पत्नी की शकल ही नहीं देखी थी। हिंदू विवाहों लड़किया 3 फुट लंबा घूंघट निकाले रहती थीं। धीरे-धीरे सभी समुदायों में बदलाव आ रहे हैं।