Saturday, November 8, 2025

बेतरतीब 179 (बचपन)

 बचपन



याद नहीं कि कब स्कूल जाना शुरू किया। उस समय गांव के लड़के बहुत बचपन में स्कूल नहीं जाते थे, ठीक-ठाक बड़े होकर स्कूल जाते थे। मेरा छोटा भाई मुझसे डेढ़-दो साल ही छोटा था और घर के काम के साथ मां (माई) उसे संभालने में रहती थी। मेरा बचपन ज्यादातर अइया (दादी) के साथ बीता। वैसे भी मुझे जहां तक याद है उस समय ज्यादातर बच्चे आपस में ही खेलते-कूदते व्यस्तरहते थे। मैं अपेक्षाकृत बहुत छोटा था तभी बड़े भाई के साथ स्कूल चल देता था।याद तो नहीं है कि किसउम्र में स्कूल जाना शुरू किया लेकिन प्राइमरी, यानि कक्षा 5, मैंने 1964 में पास किया। वहां से उल्टी गिनती करने पर लगता है कि गदहिया गोल या अलिफ में स्कूल में दाखिला, जुलाई 1960 मे लिया था। अब लगता है कि गांव की लोकसंवेदना कितनी क्रूर होती थी किअनंत संभावनाओं वाले प्री-प्राइमरी के बच्चों को गधा संबोधित किया जाता था, प्रीप्-राइइमरी को गदहिया गोल कहा जाता था। 1964 में पांचवीं पास किया तो 1963-64 सत्र में चौथी में गया क्योंकि कक्षा 4 में कुछ दिन पढ़ने के बाद उसी साल एक कक्षा फांदकर कक्षा 5 में चला गया था। यानि 1962-63 में कक्षा 3 की पढ़ाई की और 1961-62 में कक्षा 2 की और 1960-61 में कक्षा 1 और गदहिया गोल की। अंको की गणना और पहाड़ा मेरी समझ अच्छी थी। पहाड़ा का तर्क समझ में आ गया और मैं ज्यादा अंकों का पहाड़ा पढ़ लेता था। अंकों या भाषा (अक्षर ज्ञान) की किस बात से प्रभावित होकर पंडितजी ने हमें गदहिया गल से कक्षा एक में प्रोमोट कर दिया, अब ठीक-ठीक याद नहीं है।

हमारा स्कूल गांव के बाहर ऊसर में था, अब तो वहां बाजार लगती है और चौराहा बन गया है। हमारा घर बभनौटी, बाभनों (ब्राह्मणों) के टोले में था। स्कूल जाने के दो रास्ते थे। एक गोयड़े के खेत की मेड़ों से होते हुए अहिराना यानि अहिरों(यादवों) के टोले से निकल कर शहीद के थाने होते हुए लिलवा के ताल की बाग से होकर जाा था और दूसरा धोबियाना (धोबियों की बस्ती) होते हुए ठकुरइया (ठाकुरों का टोला) पार करते हुए निघसिया ताल के पास से होते हुए चमरौटी (चमारों की बस्ती) से पूरब के रास्ते से होते हुए जाता था। शहीद के थाने (स्थान) के पास दो खीर के विशाल पेड़ थे। कई और फलों के कई पेड़ों की तरह खीर भी गायब हो गया। एक फल होता था कैंत- बेल के आकार का फल होता था तथा बेल की ही ही तरह कठोर। जिसे फोड़कर खट्टा-मीठा खाद्य निकलता, अब कहीं नहीं दिखता। दूसरा एक फल होता था जंगल जलेबी। उसका पेड़ बबूल की तरह होता था और फल जलेबी के आकार का। फली का छिलका हटाकर और बीज निकाल कर अलग ढंग की मिठास होती थी। गांव की बसावट जातीय कुनबों के आधार पर थी। लगता है कि एक-दो परिवार से बढ़कर पूरा टोला बन गया होगा। स्कूल के पहले ठाकुरों की आम की बाग थी और स्कूल के बाहर नीम के पेड़ के नीचे एक कुंआ। गांव की जमीनें ज्यादातर ठाकुरों की थी और ज्यादातर दलित लगभग भूमिहीन थे। हमारे बचपन में वर्णाश्रम जस-का-तस बरकारार था, हल्की-फुल्की दरारें पड़ रही थीं। रूसो ने अपनी कालजयी कृति, सामाजिक अनुबंध (Social Contract) की शुरुआत “मनुष्य पैदा स्वतंत्र होता है, लेकिन खुद को बंधनों में जकड़ा हुआ पाता है”। भारत में हम पैदा होते ही जाति-धर्म के बंधनों में जकड़ा पाता है। पैदा होते ही मैं ब्राह्मण बन गया था और जातिगत श्रेणाबद्धता में ब्राह्मण पैदा होते ही ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध में जकड़ गया था। ब्राह्मणीय श्रेष्ताबोध स्वाभािक था, इसलिए वर्णाश्रमी व्यवस्था स्वाभाविक लगती थी। हमारे प्राइमरी के हेड मास्टर दलित लड़कों को स्कूल से मारकर यह कहते हुए भगाते थे कि ‘चमार-सियार’सब पढ़ लेंगे तो हल कौन जोतेगा? और जब गांव का कोई देखता तो वे अपना वक्तव्य सुधार लेते थे, ‘भागो कहांतक भागोगोे’ लोगों को लगता था कि बाहू साहब कितने कर्तव्यनिष्छ शिक्षक हैं ‘लड़कों को पकड़-पकड़ कर स्कूल ले जाते हैं’ और 6-7 साल के दलित बच्चे पर कौन यकीन करता? ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबद्ध में जकड़े होने कि नाते उस समय मुझे इसमें कोई गड़बड़ी नहीं लगती थी। बच्चा रूसो के प्राकृतिक मनुष्य की तरह अच्छा-बुरा, नैतिक-अनैतिक के बोध से मुक्त होता है, अच्छाई-बुराई या नैतिकता-अनैतिकता की समझ बड़े होने के दौरान समाज में बती है। बड़ा होने लगा तो ‘बाभन से इंसान बनने’ में कठिन आत्म संघर्ष से गुजरना पड़ा।

हमारे गांव के प्राइमरी में स्कूल में 3 कमरे थे और 3 शिक्षक, रामबरन 'मुंशीजी' हेडमास्टर थे और एक कमरे में वे कक्षा 4और 5 को पढ़ाते थे और उनसे जूनियर 'बाबू साहब' थे, वासुदेव सिंह, जो कक्षा 2 और 3 को दूसरे कमरे में पढ़ाते थे। 'पंडित जी' सीतीाराम मिश्र सबसे जूनियर थे वे कक्षा 1 और गदहिया गोल (अलिफ या प्रीप्रािमरी) को तीसरे कमरे में पढ़ाते थे।हमारे स्कूल की इमारत मिट्टी और ईंट की दीवारों बनी खपड़ैल इमारत थी, मुख्य कमरे के चारों तरफ 4 बरामदे थे। सामने का बरमदा खुला था तथा बाकी तीनों तरफ के बंद कमरे के रूप में थे। मुख्य कमरे में कुर्सी-मेज, टाट-पट्टी, श्यामपट तथा स्कूल के अन्य सामान रखे जाते थे। मुंशीजी पतुरिया जाति के थे। पंडित जी हमारे ही गांव (सुलेमापुर) के हमारे ही विस्तृत कुटुंब के थे। बाबू साहब, हमारे गांव से उत्तर, बगल के गांव, नदी उस पार बेगीकोल के थे। वैसे उनका एक घर (पाही) इस पार, हमारे गांव के पश्चिम गोखवल में भी था। मुंशी जी गांव के दक्खिन पश्चिम के बगल के गांव अंड़िका के थे। ब्राह्मण शिक्षक को पंडित जी, ठाकुर को बाबू साहब, भूमिहार को राय साहब, मुसलमान को मौलवी साहब तथा कायस्थ समेतअन्य हिंदू जातियों के शिक्षकों को मुंशी जी कहा जाता था। गदहिया गोल में अक्षरज्ञान के लिए हमलोग लकड़ी के छोटे श्यामपट (तख्ती) पर, खड़िया(चाक) से लिखते थे जिसे कालिख पोचारे से साफ या काला किया जाता था। दो विषय थे भाषा (हिंदी) और गणित यानि संख्या ज्ञान। हिंदी हमें अंग्रेजी की ही तरहल एक विषय लगती थी, हमारी बोल-चाल की भाषा अवधी थी। शुरुआती पढ़ाई-लिखाई अक्षर तथा संख्या ज्ञान से हुई। दोपहर बाद हम गिनती बोल बोल कर पढ़ते थे। 1 से 10 की गिनतियां याद करने के बाद दहाई-इकाई में याद करते थे। जैसे दस दो बारह-एक दहाई+ दो इकाई। उस समय मैं ही नहीं सभी बच्चे इकाई का इ गायब कर दुहराते थे, जैसे बीस तीन तेइस दो दहाई 3 काई।

पंडित जी ने संख्या (गणित) में मेरी रुचि देखकर गदहिया गोल से एक में कुदा दिया। इस तरह मैं 1960-1961 में गदहिया-गोल और कक्षा 1 की पढ़ाई पूरी करके1961-62 में कक्षा 2 में चला गया तथा बाबू साहब पढ़ाने लगे। कक्षा 2 और कक्षा 3 में काफी दिन बाबू साहब ने पढ़ाया। मेरे कक्षा 3 के आखिरी दिनों में मुंशी जी रिटायर हो गए और बाबू साहब हेड मास्टर होकर कक्षा 4-5 को पढ़ाने लगे और पंडित जी कक्षा 2 और 3 को। इस तरह कक्षा 3 के कुछ दिन और कुछ दिन कक्षा 4 के कुछ दिन हमें बाबू साहब ने पढ़ाया और राम बरन मुंशी जी के रिटायर होने के बाद, कक्षा 3 के बचे दिन पंडित जी ने। इस तरह हमें सबसे अधिक बाबू साहब ने पढ़ाया। कक्षा 3 में तथा कक्षा 4 में कुछ दिन और कक्षा 5 में। कक्षा 4 में कुछ दिन क्योंकि कुछ दिनों बाद में कक्षा 5 में प्रोमोट हो गया। रामबरन मुंशी जी केरिटायर होने के बाद नए शिक्षक आए, रमझूराम मुंशी जी दलित जाति के थे। वरीयता क्रम में सबसे जूनियर होने के चलते वे गदहिया गोल और कक्षा 1 को पढ़ाने लगे। इस तरह मुझे न तो रामबरन मुंशी जी ने पढ़ाया न ही रमझूराम मुंशी जी ने। रामबरन मुंशी जी बहुत अच्छे थे, जिनसे उनके रिटायर होने के बाद स्कूल के बाहर कभी कभी मुलाकात होती रहती थी।

कक्षा 4 और 5 की पढ़ाई एक कमरे में होती थी, जहां कक्षा 5 की कतार की टाट खत्म होती वहीं से कक्षा 4 की टाट शुरू होती थी। कक्षा 4 में डिप्टी साहब (एसडीआई) मुआइना करने आए थे। गांव के स्कूलों में डिप्टी साहब का आना एक बड़ी परिघटना होती थी।कई दिन से उनके स्वागतकी तैयारी शुरू हो जाती थी। उन्होंने कक्षा 5 के लड़कों से गणित (अंक गणित) का कोई सवाल पूछा, सब खड़े होते गए। मेरे लिए सवाल सरल सा था, कक्षा 5 की टाट खत्म होते ही कक्षा 4 की टाट पर, छोटे कद का होने के चलते सबसे आगे मैं बैठता था। कक्षा 5 में 6-7 लड़के थे और कक्षा 4 में 9-10। जब कक्षा 5 के सब लड़के खड़े हो गए तो मेरा नंबर आ गया और मैंने तपाक से उस सवाल का जवाब दे दिया। डिप्टी साहब साबाशी देने लगे तो बाबू साहब ने शाबाशी का गुरुत्व बढ़ाने के लिए उन्हें बताया कि मैं अभी कक्षा 4 में था। डिप्टी साहब बोले, ‘इसे 5 में कीजिए’। अगले दिन, मैं बड़े भाई की पढ़ी कक्षा 5 की किताबें (भाषा और गणित) तथा एक नई डेबई बनिया की दुकान से एक गोपाल छाप कॉपी खरीदकर लेकर आया और कक्षा 5 की टाट पर आगे बैठ गया। बाबू साहब ने मुझे वहां से उठकर अपनी पुरानी जगह पर जाने को कहा। मैंने कहा कि डिप्टी साहब ने मुझे 5 में पढ़ने को कहा है। बाबू साहब ने तंज के लहजे में कहा कि "भेंटी पर क बाटा लग्गूपुर पढ़ै जाबा तो सलार पुर के बहवा में बहि जाबा" (छोटे से हो लग्गूपुर पढ़ने जाओगे तो सलारपुर के बाहे में बह जाओगे)। मैंने कहा, "चाहे बहि जाई चाहे बुड़ि जाई, डिप्टी साहब कहि देहेन त हम अब पांचै में पढ़ब" (चाहे बह जाऊं या डूब जाऊंं, डिप्टी साहब ने कह दिया तो मैं अब 5 में ही पढ़ूंगा)। इस करह मैं कक्षा 4 से 5 में प्रोमोट हो गया। हमारे गांव से सबसे नजदीक मिडिल स्कूल 6-7 किमी दूर, लग्गूपुर था। स्कूल लग्गूपुर में लेकिन बगल की बाजार पवई में थी। स्कूल को अधिकारिक रूप से ‘जूनियर हाई स्कूल पवई कहा जाता था। बगल का गांव सलारपुर है, बरसात में खेत से तालाब में पानी निकासी के नाले को बाहा कहा जाता था। एक दिन, मिडिल स्कूल में पढ़ने जाना शुरू करने के दूसरे-तीसरे दिन मैं सही में सलारपुर के बाहे में बहने लगा था। कक्षा 8 के बचूड़ी (राम किशोर मिश्र) ने मुझे पकड़ा और तब से सजग होकर बाहा पार करने लगा और फिर कभी नहीं बहा। अब न तो तालाब बचे हैं न ही बाहा। इस तरह, एक मौखिक सवाल की परीक्षा से मैं कक्षा 4 से 5 में चला गया।

कक्षा 4 से बीच सत्र में कक्षा 5 में प्रोमोट हुआ था, इसलिए कक्षा 5 में थोड़े ही दिन पढ़ाई किया। कक्षा 5 की परीक्षा के कुछ दिन पहले मैं चेचक के प्रकोप में आ गया। गांव में चेचक निकलने पर माना जाता थे कि माता माई आ गयी हैं। मरीज को लिपाई-पुताई वाले अलग कमरे में रखा जाता है। कोविड प्रकोप के क्वेरैंटाइन की व्यवस्था ने चेचक की याद दिला दी। बच्चों को चेचक के टीके लगवाए जाते थे। हाथ में चेचक के टीके की जगह फोड़ा सा निकल आता था, जिसकी दाग काफी दिन रहती थी। टीका लगने के बावजूद भी कभी कभी चेचक हो जाता था, जैसे मुझे हो गया था। कक्षा 5 की परीक्षा की तारीख नजदीक आती जा रही थी, मैं पूरी तरह ठीक नहीं हुआ था। ठीक होने पर चेचक वाले अलग-थलग कमरे से निकलने के लिए जल छुलाने का कर्मकांड होता था। सब लोग कह रहे थे कि मेरी उम्र के लड़के तो अभी 2-3 साल पीछे थे और मुझे परीक्षा छोड़ देना चाहिए, लेकिन मैं परीक्षा देने की जिद पर अड़ा रहा और थक-हार कर घर वाले भी मान गए। परीक्षा से एक दिन पहले अइया (दादी) ने जल छुआया और मैं कमरे से बार आया। भइया (बड़े भाई साहब) धोबियाने से कुर्ता पाजामा प्रेस करवार ले आए, जिसे मैं सिरहाने रख कर सो गया। पहना हुआ कुर्ता भी वहीं रखा था। जहां तक याद है मार्च मं प्रआइमरी की सालाना परीक्षा होती थी। सुबह 7 बजे से प्राइमरी पाठशाला मुतकल्लीपुर परीक्षा केंद्र था। मुतकल्ली पुर बीच का गांव चकिया छोड़कर लगभग 2-3 किमी दूर था। भइया आठवीं की परीक्षा दे चुके थे तथा साइकिल चला लेते थे। भोर में, उजाला होने के पहले ही सुबह पांच बजे ही गलती से प्रेस कुर्ते की बजाय दूसरा कुर्ता पहन कर हम तैयार हो गए और हल्का-फुल्का कुछ खाकर भइया के साथसाइकिल के डेंडे पर बैठकर परीक्षा देने निकल गए। रास्ते में देखा कि गलतकुर्ता पहन लिए थे।लेकिन प्राथमिकता परीक्षा की थी और हम चल पड़े। अलग-बगल के गांवों के और कई स्कूलों के बच्चेे आए हुए थे। दोपहर तक गणित और भाषा समेतसारी लिखित परीक्षाएं समाप्त हो गयीं। तब केंद्र प्रभारी, मुतकल्लीपुर के हेडमास्टर ने देखा कि मैं तो चेचक से ग्रस्तहूं और दोपहर बाद शिल्प तथा अन्य प्रैक्टिकल परीक्षाओं के लिए मुझे और बच्चों से अलग बैठा दिया। घर आने पर चेचक की जगहों पर फोड़े पड़गए जिससे कुछ दिन परेशान रहा और शरीर के कई जहों पर उसके दाग पड़ गे। अगले दिन परीक्षा परिणाम आया तो पता चला कि लिखितपरीक्षाओं में मेरे सर्वाधिक अंक थे। जिसकी प्रसन्नता चेचक के पक जानने की पीड़ा पर भारी पड़ी। जब आगे (मिडिल या जूनियर हाई स्कूल की पढ़ाई के लिए प्राइमरी स्कूल से टीसी (स्थानांतरण प्रमाण पत्र) लेन पिताजी के साथ स्कूल गया तो सभी अध्यापकों ने शाबाशी दी। बाबू साहब (हेड मास्टर) ने गणना करके टीसी में जन्मतिथि   3 फरवरी, 1954 लिखा जबकि मेरा जन्म 26 जून 1955 को हुआ था। मेरे पिता जी ने नाराज होकर उनसे पूछा कि सब तो अपने बच्चों की उम्र  1-2 साल कम लिखाते हैं और मेरी उम्र लगभग डेढ़ साल ज्यादा क्यों लिख रहे हैं? उस समय हाई स्कूल (कक्षा 10) की बोर्ड की परीक्षा की न्यूनतम उम्र 15 साल थी। 5 साल बाद हाई स्कूल की परीक्षा के लिए एक मार्च 1969 को मेरी उम्र 15 साल होनी चाहिए थी तो1954 की फरवरी की जो भी ताऱीख बाबू साहब के दिमाग में आई लिख दिया। इस तरह 3 फरवरी 1954 मेरी प्रमाणित जन्मतिथि हो गयी।   




मिडिल स्कूल में 2 मौलवी साहब थे, ताहिर अली (हेड मास्टर) और आले हसन; एक बाबू साहब, श्याम नारायण सिंह; एक मुंशी जी (चंद्रबली यादव) तथा एक राय साहब (राम बदन राय)। राय साहब का गांव दूर था, इसलिए स्कूल पर ही रुकते थे। राय ससाहब का पोता दिल्ली विश्वविद्यालय के केएम कॉलेज में पढ़ता था, गांव पता चलने पर पूछा था कि उसके गांव (आजमगढ़ जिले में दुर्बासा के पास) के आसपास के मेरे एक शिक्षक थे तो उसने बताया कि वे जीवित थे और उसके दादा जी थे (2लाल पहले उनका देहांत हुआ)। 2012 में मैं अपनी ससुराल (मेरे गांव से लगभग 35 किमी) से मोटर साइकिल से घर जा रहा था, मुख्य सड़क से अपने गांव मुड़ते समय दिमाग में राय साहब से मिलने की बात आई और मुड़ा नहीं आगे बढ़ गया और वहां से सगभग 40 किमी दूर दुर्बासा पहुंचकर घाट पर चाय के साथ पुरानी यादें ताजा करके नए बने पुल से नदी पार कर, राय साहब के गांव (पश्चिम पट्टी) पहुंच गया। मैने 1967 में मिडिल पास किया था और ताज्जुब हुआ कि 45 साल बाद भी राय साहब ने बताने पर पहचान लिया और मेरे बारे में उस समय की कई बातें याद दिलाया। हमने 1964 में जब जूनियर हाई स्कूल पवई में कक्षा 6 में दाखिला लिया तो वहां 4 शिक्षक थे: प्रधानाध्यापक छोटे कद के, बड़े मौलवी साहब,ताहिर हुसैन; और लंबे कद के छोटे मौलवी साहब, आले हसन; बाबू साहब, श्याम नारायण सिंह और कृषि मास्टर मुंशीजी चंद्रबली यादव। बड़े मौलवी साहब कक्षा 6 को नहीं पढ़ाते थे।

........ जारी
08.11.2025

Tuesday, October 21, 2025

मार्क्सवाद 235 (वर्ग चेतना)

 एक पोस्ट पर एक कमेंट का जवाबी कमेंट:


शासक वर्गों के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दलाल कम्युनिस्ट शब्द के बारे में 200 सालों से ऐसी ही बकवास दुहरा रहे हैं। मार्क्स के एक समकालीन अरजक दार्शनिक प्रूदों ने उनकी सोच का मजाक उड़ाने के लिए लिखा, 'गरीबी का दर्शन' जिसके जवाब में मार्क्स ने लिखा, 'दर्शन की गरीबी' जो एक कालजयी कृति बनी हुई है। "आर्थिक परिस्थितियों ने लोगों को श्रमशक्ति बेचकर आजीविका चलाने वाला मजदूर बना दिया, इसलिए, अस्तित्व की परिभाषा से मजदूर तो 'अपने आप में वर्ग' हैं, लेकिन तब तक वे भीड़ बने रहते हैं जब तक वर्ग चेतना के आधार पर संगठित होकर वे 'अपने लिए वर्ग' नहीं बनते हैं "। यानि अपने आप में वर्ग को अपने लिए वर्ग से जोड़ने वाली कड़ी है, वर्ग चेतना यानि सामाजिक चेतना का जनवादीकरण। जाति, धर्म, क्षेत्र आदि आधारित मिथ्या चेतनाएं सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के रास्ते की बहुत बड़ी गतिरोधक हैं, जिन्हें चकनाचूर कर मजदूर जिस दिन अपने आप के लिए एक वर्ग में संगठित होगा उस दिन क्रांति होगी और आप जैसे लंपट सर्वहारा या तो मजदूर के अपने आप के लिए वर्ग के संगठन में शामिल होंगे या दरकिनार कर दिए जाएंगे। हर बकवासवाद का एक जवाब-इंकिलाब जिंदाबाद।

Tuesday, October 14, 2025

मार्क्सवाद 354(जेपी)

 एक पोस्ट पर कमेंट


जेपी अपने राजनैतिक जीवन के अंतिम चरण में वैचारिक दिग्भ्रम के शिकार थे, 1970 की दशक की शुरुआत में राजनैतिक हाशिए पर खिसक चुके थे, तभी बिहार छात्र आंदोलन को नेता की जरूरत थी और जेपी को मंच की। मंच मिलने पर उन्होंने बिना परिभाषित किए संपूर्ण क्रांति का भ्रामक नारा दिया और उसके लिए उन्होंने हिंदुत्व फासीवाद को अपना प्रमुख सहयोगी बनाया। और इस तरह 1960 के दशक में दीनदयाल उपाध्याय से समझौता कर आरएसएस को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने के लोहिया की परियोजना को आगे बढ़ाया। वैचारिक रूप से 1934-42 जेपी के जीवन का स्वर्णकाल था।

Tuesday, October 7, 2025

बेतरतीब 178 (इलाहाबाद)

 1970 के दशक के मध्य में जब लगा कि नौकरी करने को अभिशप्त हैं तो विकल्पों के विलोपन की प्रक्रिया से भान हुआ कि यही एक नौकरी कर सकता हूं, इसलिए नौकरी की मेरा कोई दूसरा प्रिफरेंस ही नहीं था लेकिन उच्च शिक्षा की मठाधीशी व्यवस्था की आचार संहिता के अनुरूप रंगढंग ठीक नहीं किया। कम उम्र में नास्तिक हो गया, जब गडवै नहीं तो गॉडफदरवा कहां से होता। 1984 में इलाहाबाद में एक घंटे से ज्यादा लंबा इंटरविव चला। 6 पद थे, इतने आशान्वित हो गए कि सोचने लगा कि झूसी नया बस रहा है वहां घर लिया जाए कि गंगा के इस पार तेलियरगंज/मम्फोर्डगंज। आरपी मिश्रा वीसी थे, 2-3 साल बाद मिले और बताए कि मेरे इंटरविव से वे इतने प्रभावित थे कि मेरा नाम पैनल में सातवें नंबर पर रखवाने में सफल रहे। मैंने कहा कि 6 पद थे तो सातवें पर रखे या सत्तरवें पर। खैर उच्च शिक्षा की 99% नौकरियां extra acadenic considerations पर मिलती हैं, 1% accidently, कई संयोगों के टकराने से। पहले तो खैर गॉडफादरी ही चलती थी अब तो सुनते हैं, झंडेवालान की संस्तुति के अलावा पैसा भी चलता है । मेरा मानना है कि यदि आधे शिक्षक भी शिक्षक होने का महत्व समझ लें तो सामाजिक क्रांति का पथ अपने आप प्रशस्त हो जाएगा। लेकिन ज्यादातर अभागे हैं, महज नौकरी करते हैं। मुझसे तो लोग कहते थे कि मेरे साथ नाइंसाफी हुई नौकरी देर से मिली। मैं कहता था कि नाइंसाफी की बाततो तब करूं यदि मानूं कि यह न्यायपूर्ण समाज है, और अन्यायपूर्ण समाजमें निजी अन्याय की शिकायत क्यों? जहांतक देर से मिलने का सवाल है तो सवाल उल्टा होना चाहिए कि मिल कैसे गयी? मेरे एक अग्रज मित्र हैं, प्रोफेसर रमेश दीक्षित उनसे पेंसन में झंझट की बात हो रही थी, तो उन्होंने कहा कि उन्हें तो यकीन ही नहीं होरहा था कि मुझे नौकरी मिल गयी और रिटायर होने तक चल गयी। मुझसे कोई पेंसन में गड़बड़ी का कारण पूछता है तो कहता हूं कि नतमस्तक समाज में सिर उठाकर जीना मंहगा शौक है। क्षमा कीजिएगा ग्रुप में नया हूं और लंबा भाषण दे दिया। आप लोगों में से जो भी शिक्षक हैं, उनसे यही निवेदन करूंगा कि शिक्षक होने का महत्व समझिए। शुभकामनाएं।

Friday, October 3, 2025

शिक्षा और ज्ञान 382(सीएसपी)

1934 में, कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी की स्थापना के समय, कम्युनिस्टों और कांग्रेस सोसलिस्टों में, सामाजिक-राष्ट्रीय मुद्दों पर मतभेद लगभग नहीं के बराबर थे। अधिकारिक रूप से कम्युनिस्ट पार्टी पर पाबंदी लगी थी। कम्युनिस्ट निजी रूप से पार्टी में भरती हो सकते थे। दरअसल जनमानस या वामपंथ की की दृष्टि से यह स्वतंत्रता आंदोलन का स्वर्णकाल था जब कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट संयुक्त मोर्चा बनाकर आंदोलन को जनोंमुख बनाने में लगे थे। सीएसपी की स्थापना के समय नंबूदरीपाद इसके सहसचिव थे। ट्रेड यूनियन और किसान आंदोलन के मोर्चों पर दोनों एक दूसरे के सहयोगी थे। हां, कुछ कम्युनिस्ट संगठन के क्रांतिकारी तत्वों को अपनी तरफ लुभाने की कोशिश में थे और अशोक मेहता, लोहिया तथा मीनू मसानी जैसे कुछ लोग टॉर्च-खुपरपी लेकर संगठन में कम्युनिस्ट कॉन्सपिरेससी की खोज कर रहे थे। 1942 में युद्ध के मुद्दे पर संयुक्त मोर्चा टूट गया। 1950 के दशक में केरल में फिर संयुक्त मोर्चा बना। 1957 में केरल की वामपंथी सरकार में सोसलिस्ट भी थे।

Friday, September 26, 2025

बतरतीब 177 (बचपन)

 


बचपन
हममें से ज्यादातर लोगों को जीवन के बहुत खूबसूरत और मस्त सोपान-बचपन की यादें समय के साथ धुंधली पड़ जाती हैं और बहुत बचपन की वही बातें याद रह जाती हैं जिन्हें किसी संदर्भ में प्रकारांतर से लोग याद दिलाते रहते हैं/थे।मुझे बहुत बचपन की जो बातें अपने आप हल्के से याद हैं, उनमें से एक है – बरसात में बरामदों की ओरी से टपके जमें पानी में तब तक छपकोरिया खेलना जब तक कोई बड़ा डांटकर या प्यार से वहां से हटाता न था। दूरी बात जो ठीक से याद है, वह है लोगों को पेड़ पर चढ़ते या तैरते या साइकिल चलाते देखता, या यों कहें कि जब किसी को कोई ऐसा काम करते देखता जो तब मैं नहीं कर पाता था। मुझे याद है मैं मन-ही-मन अपन आप से कहता, “जब ये कर ले रहे हैं तो बड़ा होकर मैं भी कर लूंगा”।
तीसरी बात जो याद है कि मेरा शुरुआती बचपन, ज्यादातर माई (मां) के साथ नहीं, अइया (दादी) के साथ बीता या यों कहें कि दोनों के संयुक्त मातृत्व बोध के साथ । मेरा छोटाभाई मुझसे डेढ़-दो साल ही छोटा था तो प्राथमिकता के सिद्धांत से मां के साथ पर उसका ज्यादा अधिकार था। बचपन में मैं ददिहाल (अतरौड़ा, जिला जौनपुर) तो बहुत बार लजाता था ननिहाल (उनुरखा, जिला सुल्तानपुर) नहीं। दो अलग जिलों में होने के बावजूद दोनों लगभगल पड़ोसी गांव हैं। यह जानता था कि मेरे ननिहाल-ददिहाल के गांव आस-पास ही थे, क्योंकि ददिहाल में मेरे मामा कई बार खेत में काम करने के कपड़ों में ही आ जाते थे। लेकिन न तो मामा कभी मुझे अपने घर ले गए न मैंने कभी साथ जाने की जिद की। मेरे भइया, लक्ष्मी नारायण मुझसे 4-5 साल बड़े थे। बहुत दिनों बाद पता चला कि हम दोनों के बीच में एक भाई और थे जिनकी मेरे पैदा होने के पहले, लगभग डेढ़ साल की उम्र में उनकी मृत्यु ननिहाल में हो गयी थी। अंधविश्वास के चलते मेरा ननिहाल जाना अशुभ मान लिया गया और मैं लगभग 13 साल की उम्र में, जब साइकिल पर पैर पहुंचने लगा था, कक्षा 9 की परीक्षा देने बाद पहली बार ननिहाल गया। 13 साल के बाद की बातें बाद में, पहले 4 साल के बाद की। मेरा मुंडन पांचवें साल में,यानि 4 साल पूरा होने के बाद हुआ। बड़े बाल से अपरिचित लोग आमतौर पर लड़की समझ लेते थे, जो मुझे बुरा लगता था। इस विषय की एक घटना दोस्त और घर-गांव वाले अक्सर याद दिलाते रहते थे, इस लिए अभी भी वह घटना जस-की-तस याद है। एक बार हमउम्र लड़कों के साथ घर के पास की बाग में खेल रहा था, एक सज्जन कहीं से आए और मुझसे मेरे पिता जी कानाम लेकर घर का पता पूछने लगे। यहां तक तो ठीक था, लेकिन मेरी चोटी देखकर बेटी कहकर बुलाया था, मेरा संचित गुस्सा फूट पड़ा और मैंने प्रमाण के साथ उन्हें बताया कि मैं बेटी नहीं बेटा हूं। बड़ा होकर सोचता था/हूं कि 4 साल के बच्चे के दिमाग में यह कहां से आता है कि लड़का की बजाय लड़की होना अच्छी बात नहीं है? प्रकांतर से मैं इस परिघटना का इस्तेमाल अपने विद्यार्थियों को विचारधारा समझाने में करता था कि किस तरह एक प्रचलित विशिष्ट मान्यता विचारधारा के रूप में उतपीड़क के साथ, पीड़ित क भी प्रभावित करती है। क्लास में किसी बात पर किसी लड़की को “वाह बेटा” कह कर शाबाशी देता और वह भी इसे शाबाशी समझकर खुश हो जाती। फिर मैं किसी लड़के को “वाह बेटी” कह कर शाबाशी देता और पूरीन क्लास हंस देती। स्त्री-पुरुष में भेदभाव (जेंडर) कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है बल्कि एक विचारधारा है जो हम अपने रोजमर्रा के क्रिया-कलापों और विमर्शों क जरिए निर्मित-पुनर्निर्मित करते हैं और पोषित करते हैं। हम किसी खास बौद्धिक निर्मिति को स्वाभाविक और साश्वत सत्य के रूप में आत्मसात कर लेते है। यही बात, सांप्रदायिकता; जातिवाद; नस्लवाद आदि सभी विचारधाराओं पर लागू होती है।बन कर यह समझ कहां से बनती है कभी-कभी माई अइया को मेरा बाल संवारने का समय नहीं मिलता तो बाल की लटें पड़ जाती। हमउम्र लड़के-लड़कियां और कभी कभीकुछ बड़े लेग भी इमली हिलाने को कहते और मैं सिर हिला देता था। जब लट पड़ जाती तो अइया मुस्तानी मिट्टी से मेरे बाल धोतीं। गांव की औरते भी समय समय पर अपने बाल मुल्तानी मिट्टी से धोतीं। मुल्तानी मिट्टी बहुत चिकनी होती थी।
26.09.2015

Friday, September 19, 2025

बेतरतीब 176 (बचपन)

 एक युवा मित्र ने शुरुआती स्कूली दिनों की बात पूछीः


प्राइमरी यानि कक्षा 5 मैंने 1964 में पास किया वहां से उल्टी गणना करने पर लगता है कि गदहिया गोल या अलिफ में स्कूल में दाखिला, जुलाई 1960 मे लिया रहा होऊंगा। हम जब प्राइमरी में पढ़ने गए तो स्कूल में 3 कमरे थे और 3 शिक्षक, रामबरन 'मुंशीजी' हेडमास्टर थे और एक कमरे में वे कक्षा 4और 5 को पढ़ाते थे और उनसे जूनियर 'बाबू साहब' थे, वासुदेव सिंह, जो कक्षा 2 और3 को दूसरे कमरे में पढ़ाते थे। 'पंडित जी' सीतीाराम मिश्र सबसे जूनियर थे वे कक्षा 1 और गदहिया गोल (अलिफ या प्रीप्रािमरी) को तीसरे कमरे में पढ़ाते थे।हमारे स्कूल की इमारत मिट्टी और ईंट की दीवारों बनी खपड़ैल इमारत थी, मुख्य कमरे के चारों तरफ 4 बरामदे थे। सामने का बरमदा खुला था तथा बाकी तीनों तरफ के बंद कमरे के रूप में थे। मुख्य कमरे में कुर्सी-मेज, टाट-पट्टी, श्यामपट तथा स्कूल के अन्य सामान रखे जाते थे। मुंशीजी पतुरिया जाति के थे। पंडित जी हमारे ही गांव (सुलेमापुर) के हमारे ही विस्तृत कुटुंब के थे। बाबू साहब, हमारे गांव से उत्तर, बगल के गांव, नदी उस पार बेगीकोल के थे। वैसे उनका एक घर इस पार, हमारे गांव के पश्चिम गोखवल में भी था। मुंशी जी गांव के दक्खिन पश्चिम के बगल के गांव अंड़िका के थे। ब्राह्मण शिक्षक को पंडित जी, ठाकुर को बाबू साहब, भूमिहार को राय साहब, मुसलमान को मौलवी साहब तथा कायस्थ समेतअन्य हिंदू जातियों के शिक्षकों को मुंशी जी कहा जाता था। गदहिया गोल में अक्षरज्ञान के लिए हमलोग लकड़ी के छोटे श्यामपट (तख्ती) पर, खड़िया(चाक) से लिखते थे जिसे पोचारे से साफ या काला किया जाता था। दो विषय थे भाषा और गणित यानि संख्या ज्ञान। शुपरुआती पढ़ाई-लिखाई अक्षर ज्ञान तथा संख्या से हुई। दोपहर बाद हम गिनती बोल बोल कर पढ़ते थे। 1 से 10 की गिनतियां याद करने के बाद दहाई-इकाई में याद करते थे। जैसे दस दो बारह-एक दुहाई+ दो इकाई। उस समय मैं इकाई का इ गायब कर दुहराता था।

पंडित जी ने संख्या (गणित) में मेरी रुचि देखकर गदहिया गोल से एक में कुदा दिया। इस तरह मैं 1960-1961 में गदहिया-गोल और कक्षा 1 की पढ़ाई पूरी करके1961-62 में कक्षा 2 में चला गया तथा बाबू साहब पढ़ाने लगे। कक्षा 2 और 3 में बाबू साहब ने पढ़ाया। कक्षा 3 के आखिरी दिनों में मुंशी जी रिटायर हो गए और बाबू साहब हेड मास्टर होकर कक्षा 4-5 को पढ़ाने लगे और पंडित जी कक्षा 2 और 3 को। इस तरह कक्षा 2 में और कुछ दिन कक्षा 3 में हमें बाबू साहब ने पढ़ाया और राम बरन मुंशी जी के रिटायर होने के बाद, कक्षा 3 के बचे दिन हमें पंडित जी ने। नए शिक्षक रमझूराम मुंशी जी दलित जाति के थे। वरीयता क्रम में वे गदहिया गोल और कक्षा 1 को पढ़ाने लगे। मुझे न तो रामबरन मुंशी जी ने पढ़ाया न ही रमझूराम मुंशी जी ने। कक्षा 4 में डिप्टी साहब (एसडीआई) मुाइना करने आए, उन्होंने कक्षा 5 वालों से गणित (अंक गणित) का कोई सवाल पूछा, सब खड़े होते गए। सवाल सरल सा था, कक्षा 5 की टाट खत्म होते ही कक्षा 4 की टाट पर सबसे आगे मैं बैठता था और फटाक से जवाब दे दिया। डिप्टी साहब साबाशी देने लगे तो बाबू साहब ने उन्हें बताया कि मैं अभी कक्षा 4 में था। डिप्टी साहब बोले, इसे 5 में कीजिए। अगले दिन, मैं बड़े भाई की पढ़ी कक्षा 5 की किताबें (भाषा और गणित) तथा एक नई गोपाल छाप क़पी लेकर आया और कक्षा 5 की टाट पर आगे वैठ गया। बाबू साहब ने मुझे वहा से उठकर अपनी पुरानी जगह पर जाने को कहा। मैंने कहा कि डिप्टी साहब ने मुझे 5 में पढ़ने को कहा है। बाबू साहब ने तंज के लहजे में कहा कि "भेंटी पर क बाटा लग्गूपुर पढ़ै जाबा तो सलार पुर के बहवा में बहि जाबा" (छोटे से हो लग्गूपुर पढ़ने जाओगे तो सलारपुर के बाहे में बह जाओगे)। मैंने कहा, "चाहे बहि जाई चाहे बुड़ि जाई, डिप्टी साहब कहि देहेन त हम अब पांचै में पढ़ब" (चाहे बह जाऊं या डूब जाऊंं, डिप्टी साहब ने कह दिया तो मैं अब 5 में ही पढ़ूंगा।) । हमारे गांव से सबसे नजदीक मिडिल स्कूल 7-8 किमी दूर लग्गूपुर था। बहल का गांव सलारपुर है, बरसात में खेत से तालाब में पानी निकासी के नाले को बाहा कहा जाता था। अब न तो तालाब बचे हैं न ही बाहा। इस तरह मैं एक मौखिक सवाल की परीक्षा से मैं कक्षा 4 से कक्षा 5 में चला गया।