Sunday, January 5, 2025

मार्क्सवाद 345(अडानी)

 अडानी-अंबानी का विरोध जाहिर है भारत विरोध है। कृपापात्रता (क्रोनी) पूंजीवाद में कृपापात्र कृपाकर्ता का चाकर नहीं होता, बल्कि समीकरण उल्टा होता है। वालस्ट्रीट व्हाइटहाउस की कृपा पर नहीं चलता बल्कि व्हाइट हाउस वालमार्ट की कृृपा से चलता है। अडानी यानि भारत के विरोधी सोरोस को अमेरिकी सरकार द्वारा देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से नवाजना अमेरिका का भारतविरोधी कदम है, लेकिन अमेरिका मालदीव तो है नहीं कि मोदी सरकार उसका कान खींच सके।

Saturday, January 4, 2025

शिक्षाऔर ज्ञान 360 (बुक बाजार)

 प्रो. Gopeshwar Singh की कलकत्ता की बुक बाजार के अनुभव की एक पोस्ट पर कमेंट:


मैं कलकत्ता जब भी जाता हूं या यों कहूं कि जाता था क्योंकि आखिरी बार 2007 में गया था, फिर कब जा पाऊंगा, पता नहीं तो कॉलेज स्ट्रीट के पास ही मेरे एक मित्र संजय मित्र का घर है, वहीं रुकता हूं/था और एक पूरा दिन बुक बाजार के लिए रखता था और हर शाम कॉफी हाउस के लिए। लखनऊ, इलाहाबाद की तरह वहां भी कॉफी हाउस संस्कृति से नई पीढ़ी अछूती है। बगल में ही राजाबाजार यानि मिनी बिहार है। मैं तो बहुत शहर घूमा नहीं हूं, लेकिन देखे हुए किसी शहर में कॉ़लेज स्ट्रीट जैसी किताबों की बाजार की संस्कति नहीं दिखी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हमारे छात्र जीवन (1970 के दशक का पूर्वार्ध) तक पीपीएच की दुकान में काउंटर पर कई स्टूल रखे रहते थे, जहां बैठकर किताबें पढञने/पलटने की सुविधा थी। हिंदुत्व दक्षिणपंथ से मार्क्सवादी वामपंथमें मेरे संक्रमण उस दुकान का काफी योगदान है। विश्वविद्यालय मार्ग पर विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के सगभग नीचे ही पीपीएच की दुकान थी, मैं सिगरेट पीने नीचे उतरता तो पीपीएच में चला जाता था एक दादा काउंटर के पार किताब पढ़ते बैठे रहते। ग्राहक भी जाकर किताबें पलटता और खरीदना हो तो दादा को डिस्टर्ब करता। प्रॉग्रेस और रादुगा प्रकाशन की किताबों के 2-4 आने या रूपया -दो- रुपया दाम होता। मैं भी किताबें पलटता और अच्छी लगतीं तो खरीदता। साहित्य से दूरी पर विज्ञान का विद्यार्थी था और भारतीय दर्शन, ऐतिहासिक कालक्रम और विश्व साहित्य की कालजयी रचनाएं वहीं पढ़ता-खरीदता। शुरू में मैं सोचता था दादा बंगाली हैं लेकिन वे वहीं के स्थानीय मुसलमान थे। साहित्य और दर्शन की ही नहीं फीजिक्स और गणित की बहुत अच्छी किताबें भी वहां होती। वहां से खरीदी एब्सट्रैक्ट अल्जेब्रा की एक किताब रिटायरमेंट तक सहेजे रखा और फिर यह सोचकर कि इस जीवन में अब गणित पढ़ने का मौका नहीं मिलेगा, लाइब्रेरी को दे दिया। क्षमा कीजिए नॉस्टल्जियाकर कलकत्ता की कॉलेज स्ट्रीट से इलाहाबाद के यूनिवर्सिटी रोड पहुंच गया। युनिवर्सिटी रोड भी किताबों की बाजार है लेकिन कॉ़लेज स्ट्रीट की तुलना में लगभग नगण्य।

Wednesday, January 1, 2025

शिक्षा और ज्ञान 359 (धर्म और राजनीति)

धर्म और राजनैतिक अर्थशास्त्र के अंतःसंबंधों पर Mukesh Aseem की एक पोस्ट पर कमेंट:

राजनीति की धर्म से स्वतंत्रता के हिमायती, आधुनिक राजनैतिक दर्शन की बुनियाद रखने वाले, धार्मिक और राजनैतिक आचार--संहिताओं के किन्ही नियमों के अंतर्विोध की स्थिति में, धर्म पर राजनीति को तरजीह देने के हिमायती, यूरोपीय नवजागरण के दार्शनिक मैक्यावली धर्म, को सबसे प्रभावी राजनैतिक औजार और हथियार मानते हैं। नए समझदार राजा को वे सलाह देते हैं कि विजित प्रजा के धार्मिक रीति-रिवाज, प्रचलन और आस्थागत क्रियाकलाप कितनेे भी कुतार्किक और असामाजिक क्यों न हों,उसे न केवल उनसे छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी निरंतरता भी सुनिश्चित करना चाहिए, क्योोंकि कि धर्म लोगों को वफादार और एकजुट बनाए रखने का सबसे कारगर राजनैतिक हथियार है। सत्ताके लिए कुछ भी करे लेकिन उसे धर्मात्मा होने का पाखंड करना चाहिए, क्योंकि जनता भीड़ होती रहै, जो दिखता है उसे ही सच मानन लेती है। और यदि कुछ लोग सचमुच में सच जान भी लेंगे तो जब जनता साथ है तो इनकी क्या बिसात। जनता विद्रोह करने के पहले 10 बार सोचेगी कि भगवान ही उसके साथ है तो पराजय ही होगी। और धीरेधीरे भगवान का भय राजा के भय का रूप ले सकता है।

Thursday, December 19, 2024

शिक्षा और ज्ञान 358 (साहित्य अकादमी पुरस्कार)

 साहित्य अकादमी पुरस्कारों पर Abhishek Srivastava की एक सार्थक पोस्ट पर कमेंट (पोस्ट नीचे कमेंट बॉक्स में):


Prempal Sharma 'कविता:16मई के बाद' एक फासीवाद विरोधी बौद्धिक अभियान था, जो अकाल काल के गाल में समा गया, अगले अभियान की पहल का इंतजार है। साहित्य एकडमी पुरस्कार से सम्मानित कल बुर्गी तथा जनतांत्रिक बुद्धिजीवियों पनेसर, डोभाल, गौरी लंकेश की हत्याओं के बाद पुरस्कार वापसी इसी बौद्धिक क्रांति की कड़ी थी। साहित्य अकादमी पुरस्कार देने वाली फासीवादी ताकतों के हाथों पुरस्कार पाने और स्वीकार करने वाले वाले सभी एक ही राजनैतिक दरातल पर खड़े हैं चाहे वे बद्रीनारायण हों या गगन गिल। हर राजनैतिक क्रांति की इमारत बौद्धिक क्रांति की बुनियाद पर ही खड़ी होती है । यूरोप की राजनैतिक क्रांतियां भी नवजागरण और प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) बौद्धिक क्रांतियों की बुनियाद पर खड़ी हुईं।प्रतिक्रांति के मामले में प्रक्रिया उल्टी चलती है, प्रतिक्रांति की बौद्धिक औचित्य और वैधता के लिए वैचारिकी गढ़ी जाती है। ढाई हजार साल कुछ पहले बुद्ध की पहल पर एक बौद्धिक क्रांति हुई, आमजन की भाषा में द्वंद्वात्मक ज्ञान की जनतांत्रिक संस्कृति स्थापित हुई। लगभग दोहजार साल पहले शुरू हुई ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की वैधता के लिए 'गुरुर्देवोभव' के सिद्धांत पर शिक्षा की एकाधिकारवादी संस्कृति शुरू हुई और पुराण रचे गए। दुर्भाग्य से अभी तक क्रांतियों की तुलना में प्रतिक्रांतियां अधिक दीर्घजीवी रही हैं। उम्मीद है, सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की बुनियाद पर अगली जनवादी क्रांति ज्यादा दीर्घजीवी होगी।

Thursday, October 31, 2024

बेतरतीब 188 (दिल्ली 1971)

 वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार Ramsharan Joshi की अपने पत्रकार-साहित्यकार मित्रों Pankaj Bisht और Ibbar RabiRabbi के साथ प्रेस क्लब और कनाटप्लेस में घूमते हुए नास्टजिआने की एक पोस्ट पर एक नास्टेजिआता कमेंट:


अद्भुत तिकड़ी और साथ मिलकर यादों की शैर की अद्भुत बानगी। मैं 16 साल की उम्र में,1971 में पहली बार दिल्ली आया। बड़े भाई की स्टेट्समैन के टाइम ऑफिस में नई नई नौकरी लगी थी, तिलक ब्रिज रेलवे कोढियों के किसी सर्वेंट क्वार्टर में किराए पर रहते थे। हर शाम मंडी हाउस घूमते हुए, मंडी हाउस में तरह तरह की अड्डेबाजियों का जायका लेते हुए, कनाट प्लेस जाता था, दूर से कॉफीहाउस में कॉफी के प्यालों में क्रांति करते लोगों की बहसें सुनता और हरकारे बन दौड़ते सिगरेट के धुएं देखता। कॉफी बहुत सस्ती होती थी। आज की पालिका बाजार की पार्किंग की जगह आइसक्रीम पार्लर सा कुछ होता और वहीं पहली बार सिगरेट पी थी। सबसे अच्छी सिगरेट मांगने पर 2 आने की गोल्डफ्लेक दिया और इतनी खांसी आई कि सोचा अब कभी नहीं पिऊंगा। लेकिन ...। हो सकता है मंडी हाउस या कॉफी हाउस में आप लोगों की किसी अड्डेबाजी का भी दूर से जायजा लिया हो। हमारे समय के तीन महान जनवादी लेखक-कवि-साहित्यकार-पत्रकारों को सलाम। हर शुक्रवार पैदल लाल किला जाता क्योंकि शुक्रवार को लालकिले में जाने का टिकट नहीं खरीदना पड़ता था। उस समय राष्ट्रपति भवन के बगीचों में भी लोग बेरोक-टोक जा सकते थे। वहां घूमते हुए एक बार राज्यसभा की सांसद विद्यावती चतुर्वेदी के बेटे प्रियव्रत चतुर्वेदी से परिचय हुआ था। उस समय वह शाहजहां रोड पर रहतीं थीं। एक दिन चांदनी चौक में घूमते हुए किसी सिनेमा हॉल में कटी पतंग का पोस्टर दिखा और टिकट लेकर घुस गए। उस समय दिल्ली में तांगे भी चलते थे और कनाट प्लेस से लालकिले तक फटफटी। फटफटी तो 80 के दशक तक चलती थी। एक बार कनाट प्लेस में प्यास लगी और 2 पैसे में मशीन का पानी मिलता था। गांव के लड़े के पानी खरीदकर पीने की बात गले से नीचे नहीं उतरी और एक हलवाई (शायद गुलजारी) की दुकान के काउंटर पर पानी के गिलास रखे थे, वेटर से पूछ कर एक गिलास पानी पिया।

Saturday, October 26, 2024

साईबाबा

 

साईबाबा : मानवाता की सेवा में एक शहादत 

ईश मिश्र

 

12 अक्टूबर, 2024 को जनवादी, बुद्धिजीवी, प्रोफेसर जीएन साईबाबा मानवता की सेवा में शहीद हो गए। जेल से छूटने के बाद वसंता (साईबाबा की पत्नी) को फोनपर साईबाबा से बातें हुईं, वे अपनी बीमारी की नहीं, प्रतीक्षित किंतु अधर में लटके अपने शिक्षक जीवन, अध्यापन, छात्रों तथा देश-दुनिया की दशा-दिशा चिंता जाहिर कर रहे थे। 2014 में गिरफ्तारी के बाद कॉलेज प्रशासन ने उन्हें निलबित कर दिया था और  2017 में एक सत्र अदालत द्वारा आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने के बाद बर्खास्त। पते की बात तो यह थी कि हाई कोर्ट से बरी होकर जेल से छूटते ही उन्हें बहाल करदेना चाहिए था। उनकी बहाली का मामला शायद कोर्ट में है, लेकिन अब उसे इसके फैसले से क्या? छूटने के बाद ही पढ़ाने यानि फिर से अपने छात्रों से संवाद की इच्छा जाहिर की थी, लेकिन पूजीवाद में श्रमशक्ति से लैश मजदूर, चाहे वह शिक्षक ही क्यों न हो, श्रम के साधन से मुक्त होता है। फिर से पढ़ाने की उनकी यह इच्छा, इस जीवन में अधूरी ही रह गयी। लेकिन अपने जीवन के उदाहरण, लेखों और कविताओं से वे आने वाली पीढ़ियों को पढ़ाते रहेंगे। साईबाबा मुझसे 12 साल छोटे थे और हमारी पहली मुलाकात इस शतीाब्दी के शुरुआती सालों में कभी हुई। जनपक्षीय सरोकार के किसी मुद्दे पर एक मीटिंग में गए थे, देखा कि लकवाग्रस्त पैरों वाला एक लड़का हाथों में चप्पल पहनकर सीढ़ियां चढ़ रहा है। मन ही मन सलाम किया। 2003 में दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में नौकरी मिली और जल्दी ही छात्रों में लोकप्रिय हो गए। रोहित बेमुला की शहादत से शुरू हुए छात्र आंदोलनों में हम दोनों सक्रिय थे। 2014 में गिरफ्तारी के पहले भी पूछ-ताछ के नाम पर पुलिस ने कैंपस में साई के घर छापा मारा था। गिरफ्तारी की आशंका को खत्म करने के लिए तत्कालीन डूटा प्रेसीडेंट नंदिता नारायण के नेतृत्व में हम बहुत से शिक्षक और छात्रों का बहुत बड़ा हुजूम साईबाबा के घर पहुंचा था। छात्रों में साईबाबा की लोकप्रियता उल्लेखनीय है। साईबाबा की शहादत से शिक्षकों ने एक बेहतरीन साथी तथा छात्रों ने एक अच्छा शिक्षक खो दिया और समाज ने एक जनपक्षीय बुद्धिजीवी। साईबाबा आदिवासियों, दलितों, स्त्रियों तथा अन्य वंचित-शोषित तपकों के अधिकारों के पक्ष में हमेशा मुखर रहे। साईबाबा की शहादत असहमति के अभिव्यक्ति कादुस्साहसकरने वाले देश के जनतांत्रिक बुद्धिजीवियों को डराने के लिए सरकार का नसीहती संदेश है। 

 

16वीं शताब्दी के राजनैतिक दार्शनिक मैक्यावली केसमझदारप्रिंस (शासक) के आधिपत्य की बुनियाद भय पर टिकी है। उसका मानना है कि भय लोगों को एकजुट और वफादार बनाए रखने का सबसे विश्वसनीय माध्यम है। उसे लोगों की नर्भयता का भय होता है। जनकवि गोरख पाांडेय की एक कविता है, “वे डरते हैं कि एक दिन, निहत्थे और ग़रीब लोग उनसे डरना बंद कर देंगे। साईबाबा की शहादत  समाज को भयाक्रांत बनाने की व्यापक योजना की कड़ी है। एल्गर परिषद मामले में जनतांत्रिक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी उसी परियोजना का हिस्सा है। इस मामले में  साईबाबा की शहादत दूसरी शहादत है, पहली शहादत फादर स्टेन स्वामी ने दी। आदिवासियों के मानवाधिकार की लड़ाई के योद्धा, 84 साल के  स्टेनस्वामी को जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित कर जेल में ही शहीद कर दिया गया। उन्होने अदालती बयान में कहा था कि मेडिकल सुविधाओं के अभाव में उनकी मौत हो सकती थी। और हो गयी। 10 साल अमानवीय हालात वाले अंडा सेल में यातना तथा सुविधाओं की वंचना ने साईबाबा को मरणासन्न कर दिया था और हाईकोर्ट से बरी होकर, जेल से छूटने के 7 महीने बाद लगातार इलाज कराते हुए शहीद हुए।    

 

 साईबाबा की शहादत पिछली शताब्दी के महान जनपक्षीय  बुद्धिजीवी, एंटोनियो ग्राम्सी की शहादत की याद दिलाती है। ग्राम्सी की शहादत से अंतर्राष्ट्रीय, क्रांतिकारी बौद्धिक जगत में एक बड़ी रिक्तता आ गयी थी, साईबाबा की शहादत भारत के जनवादी और मानवाधिकारों के आंदोलनों के बौद्धिक जगत में एक रिक्तता आ गयी है।दोनों की मानवता की सेवा में आमजन के मानवाधिकारों के संघर्षों के योद्धा थे। ग्राम्सी और साईबाबा अलग-अलग समय और अलग अलग संदर्भों में मानवता की सेवा मानवाधिकारों की रक्षा के संघर्षों में शहीद हुए।   ग्राम्सी की भी हत्या नहीं की गयी थी, 10 साल जेल की यातना और अनिवार्य चिकित्सा सुविधाओं की वंचना से मरणासन्न कर छोड़ दिया गयी था और साल भीतर उनकी मृत्यु हो गयी। ग्राम्सी भी बचपन से ही बीमारियों के हमजोली रहे, लेकिन साईबाबा की तरह बचपन से ही पोलियो प्रकोप के चलते अपाहिज नहीं थे। प्रो. साईबाबा की भी हत्या नहीं हुई, उन्हें भी गिरफ्तार किया गया और 90% विकलांगता के बावजूद अनिवार्य चिकित्सकीय सुविधाओं से वंचित कर, अमानवीय हालात वाले, कुख्यात, अंडा सेल में डाल दिया गया।हत्या और बलात्कार के दोषी राम-रहीम को डेरा में सच्चा सौदा करने के लिए पेरोल मिलता रहता है, लेकिन साईबाबा को मत्युशैया पर पड़ी मां को देखने के लिए भी पेराल नहीं मिला।  अद्भुत न्याय है! ऐसा ही अद्भुत न्याय फासीवादी इटली के भी इतिहास में दर्ज है। 1926 में इटली के फासीवादी शासक मुसोलिनी पर हमले को बहाना बनाकर फासीवादी शासन ने आपातकालीन कानून बनाने-लागू करने का सिलसिला जारी किया और संसदीय कवच के बावजूद, एंटोनियो ग्राम्सी को गिप्तार कर लिया गया था। उस समय वे इटली के कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और इटली की संसद के सदस्य थे। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर साईबाबा को भाजपा सरकार ने 2014 में प्रतिबंधित माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े होने का आरोप लगाकर गिरफ्तार किया। 1926 में फासवादी सरकारी वकील ने अदलात में कहा था कि इस (ग्राम्सी के) दिमाग को अगले 20 सालों के लिए काम करने से रोक देना चाहिए। वे दिमाग को काम करने से नहीं रोक पाए, ग्राम्सी की जेलडायरी अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक समाज के लिए उनकी अमूल्य ऐतिहासिक विरासत है। सांसकृतिक वर्चस्व के सिद्धांत का प्रतिपादन उन्होंने जेल में ही किया। फासीवादी जेल में किताबों की सीमित सुलभता होती थी, यहां की जेलों में शायद वह भी नहीं है। साईबाबा ने जेल अंडा सेल की असंभव परिस्थितियों और क्या-क्या लिखा, उसका पता चलना अभी बाकी है, सोसल मीडिया पर प्रकाश में आई उनकी कुछ कविताएं मार्मिक हैं, खासकर मां के लिए लिखी कविताएं। 

  

जब 14 अक्टूबर, 2022 को बंबई हाईकोर्ट ने गढ़चिरौली के सत्र न्यायालय के उम्रकैद के फैसले को निरस्त कर प्रो. साईबाबा की रिहाई का फैसला दिया तो लगा था कि न्याय व्यवस्था में न्याय  की संभावनाएं बाकी हैं। लेकिन सरकार को इससे ऐसा झटका लगा कि फैसला आते ही, उसे रुकवाने हड़बड़ाहट में, तुरंत सुप्रीम कोर्ट पहुंची। सुप्रीमकोर्ट को भी एक 90% अपाहिज, साहित्य के प्रोफेसर की आजादी इतनी खतरनाक लगी कि अगले दिन शनिवार को विशेष बेंच गठित कर हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी। सरकार जानती थी कि साईबाबा अभिव्यक्ति के खतरे उठाने से बाज आने वालों में नहीं थे। और सर्वाधिकारवादी शासक को सबसे अधिक खौफ विचारों का होता है। सत्ता का भय होता है, विचारों का आतंक। विभिन्न देश-काल में सत्ताएं विचारों से आतंकित हो विचारकों की हत्या करती रही हैं, चाहे वह सुकरात हों या ब्रूनो, भगत सिंह हों या ग्राम्सी या फिर साईबाबा। लेकिन सत्ताएं यह नहीं जानतीं कि विचार मरते नहीं, फैलते हैं और इतिहास रचते हैं। कानूनी जानकारों का मानना है कि विशेष बेंच के गठन का प्रावधान अत्यंत गंभीर मामलों में आपातकालीन प्रावधान है। किसी राज्य की न्यायपालिका का चरित्र वही होता है जो राज्य का। मेडिकल आधार पर उनका नजरबंदी का आवेदन भी नामंजूर कर दिया गया। अपनी रिहाई पर रोक के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद साईबाबा ने पत्नी बसंता को पत्र लिखकर अपनी पीड़ा का बयान किया था।नागपुर में ठंड पड़ने लगी है, मेरी टांगों, हाथ और पेट का मांसपेशियों में ऐंठन होती है और असह्य पीड़ा। वैसे भी कोविड और फ्लू के दो दो दौरों के बाद शरीर बहुत कमजोर हो गया है। मेरी किडनी में पथरी हो गयी है और दिमाग में खून जम गया है, निमोनिया भी परेशान कर रही है। सरकारी मेडिकल अस्पताल के डाक्टरों की संस्तुति के बावजूद अनिवार्य मेडिकल सुविधाओं का कोई भी ध्यान नहीं दे रहा।उस समय वसंता ने बताया था कि अब साईबाबा पहले सा नहीं लिख पाते, एक पेज लिखने में पूरा दिन लगा देते हैं। साईबाबा को शहीद कर इस सरकार में मानवता की सेवा में हमारा एक दमदार सहयात्री छीन लिया। इतिहास साईबाबा की शहादत को मानवता के विरुद्ध एक  भीषण अपराध के रूप में याद करेगा। 2016 में फेसबुक पर साईबाबा की किसी खबर की एक पोस्ट पर तुकबंदी में एक कमेंट लिखा था, इस श्रद्धांजलि लेख का समापन उस तुकबंदी से करना अप्रासंगिक नहीं होगा। हम आपस में साईबाबा को पहिए की कुर्सी वाला प्रोफेसर कहते थे। 

 

पहिए की कुर्सी वाला प्रोफेसर खतरा है देश की सुरक्षा के लिए

माना नहीं उठा सकता बंदूक यह अपाहिज प्रोफेसर

पर दिमाग तो चला ही सकता है

और विचार बंदूक से ज्यादा खतरनाक होता है

सत्ता का भय होता है, विचारों का आतंक

 

सही है कि वह अपाहिज है और नहीं उठा सकता बंदूक

पर फिरा सकता है कम्यूटर के कीबोर्ड पर उंगलियां

और फैला सकता है खतरनाक विचार

वह भी बेहद खतरनाक

 आदिवासियों के भी मानवाधिकार के विचार

 

माना कि बंदूक नहीं उठा सकता

लेकिन पहिए की कुर्सी पर बैठे-बैठे पैदा कर सकता है विचार

सरकार चलाती है जब राष्ट्रवादी ग्रीनहंट अभियान

देने लगता है सेना के छोटे-मोटे अत्याचारों पर गंभीर बयान

इतना ही नहीं कश्मीरी मुसलमानों को भी इंसान मानता है

उनके  भी मानवाधिकार की बात करता है

राष्ट्र की अखंडता पर आघात करता है

माना कि भाग नहीं सकता पहिए की कुर्सी वाला प्रोफेसर

लेकिन मिलेगी नहीं जब तक जेल की प्रताड़ना

खतरनाक होती जाएगी बुद्धिजीवियों की चेतना

और देश की सुरक्षा के लिए सबसे खतरनाक है चिंतनशील इंसान

डरा सकता जिसे न कोई भूत न ही भगवान

करते रहेगे ये वैसे तो जेल में भी ग्राम्सी सी खुरापात

बर्दाश्त कर लेगा मगर राष्ट्रवाद उतनी उत्पात

(ईमिः31.03.2016)

 

जनपक्षीय बुद्धीजीवी प्रोफेसर साईबाबा की मानवता की सेवा में शहादत को सलाम। इंकिलाब जिंदाबाद। 





 

Wednesday, October 23, 2024

बेतरतीब 187 (अदम)

 Dinesh Dubey शुक्रिया, दिनेश भाई। अदम की मौत के बाद साहित्य जगत के बहुत से लोग उनके व्यक्तित्व पर फतवेाजी कर रहे थे, भावुकता में लिखा गया था, इसके बाद प्रतिरोध के स्वर के लिए, एक और लेख लिखा था। जब भी दिल्ली आते मुलाकात और बैठकी होती थी। आखिरी कुछ सालों में हमारी मित्रता हुत सघन हो गयी थी, लगभग रोज ही फोन पर बात होती। उनके गांव जाने का कार्यक्रम टलता रहा। अप्रैल, 2011 में एक बार उनके सम्मान में हिंदू कॉलेज में, इतिहासकार प्रो. डीएन झा की अध्यक्षता में , प्रो, रतनलाल के सौजन्य से एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। तब 23 दिन वहीं रुके थे। उन्होंने पद्य में ऐतिहासिक भौतिकवाद पर पुस्तिका लिखने को कहा था। पहला खं तो तभी लिखा गया था। दूसरे खंड के लिए बैठ नहीं पाया।