Monday, January 13, 2025

शिक्षा और ज्ञान 362 (किताब)

 इस विरले संयोग को रेखांकित करने की ही यह पोस्ट है कि 1980 में खोई किताब 1990 में लगभग मुफ्त में मिल जाए और उस समय की किताबों पर अंग्रेजी उर्दू में सम्मिलित नाम लिखने की आदत याद आ गयी। उर्दू और बांगला लिपियां उनकी कलात्मक (कैलीग्राफिक) संरचना के सौंदर्य की वजह से सीखा था। बाकी तो पढ़ने के लिए मांगकर किताब चोरों की नामजद्द और गुनाम फेहरिस्त लंबी है। यूजीसी की फेलोशिप के दौरान अच्छी कंटिंजेंसी मिलती थी और जी खोलतर किताबें खरीदता था ज्यादातर लौटाने के लिए मांगकर चुराने वालों की भेंट चढ़ गई। गीता बुक सेंटर के 'दादा' जानते थे की कंटेंजेंसी का पैसा मिलते ही उधार चुक जाएगा इसलिए दाम की परवाह किए बिना किताब उठा लेता था। एक दिन Nietzsche की Thus Spoke Zarathustra और Rousseau की आत्मकथा The Confessions लेकर आया। उसी दिन दो किताब चोर अलग अलग 2-3 दिन में पढ़कर लौटाने का वायदा करके मांगकर ले गए। Thus Spoke Zarathustra चुराने वाले का नाम अभी तक याद है, बताने का फायदा नहीं है, कई साल बाद कहीं मिला और पूछा कि मैं उसे पहचान रहा था कि नहीं, मैंने कहा कि अपनी किताबें चुराने वाले कमीनों को मैं भूलता नहीं, वैसे यह ऐसे ही बोल गया था, सही नहीं है। एक बार एक विश्वविद्यालय में एक सेमिनार में गया था और जेएनयू के मित्र रहे वहां के विभागाध्यक्ष (अब दिवंगत) ने एक रात्रत्रिभोज अपने आवास में रखा था, मैंने उसकी बुक सेल्फ देखकर कहा था, 'अबे मेरी इन किताबों में से कुछ तो लौटा दो' उसने बड़ी सहजता से यह कहकर लाजवाब कर दिया था कि वे उसकी बुक सेल्फ में कितनी सुंदर लग रहीं थी उनकी एवज में उसने एक बहुत अच्छी किताब The Story of Philosophy by Will Durrant का उपहार दिया। वह भी कालांतर में इसी विधा से मैंने खो दिया। खैर अब भी बहुत ऐसी किताबें पढ़े जाने के इंतजार में हैं, इसलिए किताबचोरों से कोई शिकायत नहीं है।

1980 में एक सज्जन (वैसे किताब चोरों को दुर्जन कहना चाहिए) मुझसे Frantz Fanon की Wretched of the Earth पढ़ने के लिए ले गए और लौटाए नहीं बोले खो गई, मैं दूसरी प्रति ले आया लेकिन उस संस्करण का कवर पेज उतना आकर्षक नहीं था। 1990 में विरले संयोग से दरियागंज संडे मार्केट में 5 रुपए में वही प्रति मिल गयी, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैंने विक्रेता ज्यादा पैसे ऑफर किया लेकिन उसने लिया नहीं। सही सही वही प्रति की पहचान यों हुई कि उन दिनों मैं किताब खरीदता तो उस पर अंग्रेजी और उर्दू में मिलाकर नाम लिखता था अंग्रेजी के आई को उर्दू के अलिफ के रूप में इस्तेमाल कर उसके दाहिने अंग्रेजी का एस एच और बाएं उर्दू का इए शीन लिख देता था। दांए पढ़ने पर अंग्रेजी में ईश और बांए पढ़ने पर उर्दू में।

Sunday, January 12, 2025

शिक्षा और ज्ञान 361 (असहमति)

 रोमिला थापर की पुस्तक असहमति की आवाजें के संदर्भ में असहमति की ऐतिहासिक आवाजों पर Tribhuvan जी की एक पोस्ट पर एक कमेंट का जवाबः


बाकी नृशंषताओं की आड़ में अपनी नृशंसताएं छिपाना आपराधिक सोच है। मानवतावादी पश्चिम के नस्ल, वर्ग और मर्दवाद की नृशंसताओं का वैसे ही विरोध करते रहे हैं जैसे जाति-धर्म-मर्दवाद की यहां की क्रूर अमानवीय नृशंसताओं का। यहां अमानवीय क्रूरताओं को धार्मिक जामा पहनाकर दैवीय बना दिया गया है, जिससे बाभन से इंसान बनना ज्यादा कठिन हो गया है। आपकी यह बात, 'विचार - संप्रदाय,नस्ल और स्त्रीसम्मान को लेकर कुछ दशकों पहले तक पश्चिम में जो नृंशस विधान थे उन पर सामान्यत: दृष्टि नहीं जाती जब कि इधर धर्मशास्त्रों के अप्रमाणित और विरोधाभासी बयानों को लेकर कई जातियों को पंचिंग बैग बना दिया गया।' उसी आपराधिक सोच की परिणति लगती है कि मैं ही नहीं वह भी चोर है। अरे भाई उसकी भी चोरी का विरोध करिए लेकिन वह विरोध तभी सार्थक होगा जब पहले हम अपनी चोरी का विरोध करें। जहां तक कई जातियों को पंचिंग बैग बनाने का सवाल है तो विरोध जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का निर्धारकरने वाली विचारधारा ब्राह्मणवाद का होता है, जन्मना ब्राह्मण व्यक्ति का नहीं। बाभन से इंसान बनना, जन्म की जीववैज्ञानिक संयोग की अस्मिता से ऊपर उठकर विवेकशील इंसान की अस्मिता अख्तियार करने का मुहावरा है।

Sunday, January 5, 2025

मार्क्सवाद 345(अडानी)

 अडानी-अंबानी का विरोध जाहिर है भारत विरोध है। कृपापात्रता (क्रोनी) पूंजीवाद में कृपापात्र कृपाकर्ता का चाकर नहीं होता, बल्कि समीकरण उल्टा होता है। वालस्ट्रीट व्हाइटहाउस की कृपा पर नहीं चलता बल्कि व्हाइट हाउस वालमार्ट की कृृपा से चलता है। अडानी यानि भारत के विरोधी सोरोस को अमेरिकी सरकार द्वारा देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से नवाजना अमेरिका का भारतविरोधी कदम है, लेकिन अमेरिका मालदीव तो है नहीं कि मोदी सरकार उसका कान खींच सके।

Saturday, January 4, 2025

शिक्षाऔर ज्ञान 360 (बुक बाजार)

 प्रो. Gopeshwar Singh की कलकत्ता की बुक बाजार के अनुभव की एक पोस्ट पर कमेंट:


मैं कलकत्ता जब भी जाता हूं या यों कहूं कि जाता था क्योंकि आखिरी बार 2007 में गया था, फिर कब जा पाऊंगा, पता नहीं तो कॉलेज स्ट्रीट के पास ही मेरे एक मित्र संजय मित्र का घर है, वहीं रुकता हूं/था और एक पूरा दिन बुक बाजार के लिए रखता था और हर शाम कॉफी हाउस के लिए। लखनऊ, इलाहाबाद की तरह वहां भी कॉफी हाउस संस्कृति से नई पीढ़ी अछूती है। बगल में ही राजाबाजार यानि मिनी बिहार है। मैं तो बहुत शहर घूमा नहीं हूं, लेकिन देखे हुए किसी शहर में कॉ़लेज स्ट्रीट जैसी किताबों की बाजार की संस्कति नहीं दिखी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हमारे छात्र जीवन (1970 के दशक का पूर्वार्ध) तक पीपीएच की दुकान में काउंटर पर कई स्टूल रखे रहते थे, जहां बैठकर किताबें पढञने/पलटने की सुविधा थी। हिंदुत्व दक्षिणपंथ से मार्क्सवादी वामपंथमें मेरे संक्रमण उस दुकान का काफी योगदान है। विश्वविद्यालय मार्ग पर विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के सगभग नीचे ही पीपीएच की दुकान थी, मैं सिगरेट पीने नीचे उतरता तो पीपीएच में चला जाता था एक दादा काउंटर के पार किताब पढ़ते बैठे रहते। ग्राहक भी जाकर किताबें पलटता और खरीदना हो तो दादा को डिस्टर्ब करता। प्रॉग्रेस और रादुगा प्रकाशन की किताबों के 2-4 आने या रूपया -दो- रुपया दाम होता। मैं भी किताबें पलटता और अच्छी लगतीं तो खरीदता। साहित्य से दूरी पर विज्ञान का विद्यार्थी था और भारतीय दर्शन, ऐतिहासिक कालक्रम और विश्व साहित्य की कालजयी रचनाएं वहीं पढ़ता-खरीदता। शुरू में मैं सोचता था दादा बंगाली हैं लेकिन वे वहीं के स्थानीय मुसलमान थे। साहित्य और दर्शन की ही नहीं फीजिक्स और गणित की बहुत अच्छी किताबें भी वहां होती। वहां से खरीदी एब्सट्रैक्ट अल्जेब्रा की एक किताब रिटायरमेंट तक सहेजे रखा और फिर यह सोचकर कि इस जीवन में अब गणित पढ़ने का मौका नहीं मिलेगा, लाइब्रेरी को दे दिया। क्षमा कीजिए नॉस्टल्जियाकर कलकत्ता की कॉलेज स्ट्रीट से इलाहाबाद के यूनिवर्सिटी रोड पहुंच गया। युनिवर्सिटी रोड भी किताबों की बाजार है लेकिन कॉ़लेज स्ट्रीट की तुलना में लगभग नगण्य।

Wednesday, January 1, 2025

शिक्षा और ज्ञान 359 (धर्म और राजनीति)

धर्म और राजनैतिक अर्थशास्त्र के अंतःसंबंधों पर Mukesh Aseem की एक पोस्ट पर कमेंट:

राजनीति की धर्म से स्वतंत्रता के हिमायती, आधुनिक राजनैतिक दर्शन की बुनियाद रखने वाले, धार्मिक और राजनैतिक आचार--संहिताओं के किन्ही नियमों के अंतर्विोध की स्थिति में, धर्म पर राजनीति को तरजीह देने के हिमायती, यूरोपीय नवजागरण के दार्शनिक मैक्यावली धर्म, को सबसे प्रभावी राजनैतिक औजार और हथियार मानते हैं। नए समझदार राजा को वे सलाह देते हैं कि विजित प्रजा के धार्मिक रीति-रिवाज, प्रचलन और आस्थागत क्रियाकलाप कितनेे भी कुतार्किक और असामाजिक क्यों न हों,उसे न केवल उनसे छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी निरंतरता भी सुनिश्चित करना चाहिए, क्योोंकि कि धर्म लोगों को वफादार और एकजुट बनाए रखने का सबसे कारगर राजनैतिक हथियार है। सत्ताके लिए कुछ भी करे लेकिन उसे धर्मात्मा होने का पाखंड करना चाहिए, क्योंकि जनता भीड़ होती रहै, जो दिखता है उसे ही सच मानन लेती है। और यदि कुछ लोग सचमुच में सच जान भी लेंगे तो जब जनता साथ है तो इनकी क्या बिसात। जनता विद्रोह करने के पहले 10 बार सोचेगी कि भगवान ही उसके साथ है तो पराजय ही होगी। और धीरेधीरे भगवान का भय राजा के भय का रूप ले सकता है।

Thursday, December 19, 2024

शिक्षा और ज्ञान 358 (साहित्य अकादमी पुरस्कार)

 साहित्य अकादमी पुरस्कारों पर Abhishek Srivastava की एक सार्थक पोस्ट पर कमेंट (पोस्ट नीचे कमेंट बॉक्स में):


Prempal Sharma 'कविता:16मई के बाद' एक फासीवाद विरोधी बौद्धिक अभियान था, जो अकाल काल के गाल में समा गया, अगले अभियान की पहल का इंतजार है। साहित्य एकडमी पुरस्कार से सम्मानित कल बुर्गी तथा जनतांत्रिक बुद्धिजीवियों पनेसर, डोभाल, गौरी लंकेश की हत्याओं के बाद पुरस्कार वापसी इसी बौद्धिक क्रांति की कड़ी थी। साहित्य अकादमी पुरस्कार देने वाली फासीवादी ताकतों के हाथों पुरस्कार पाने और स्वीकार करने वाले वाले सभी एक ही राजनैतिक दरातल पर खड़े हैं चाहे वे बद्रीनारायण हों या गगन गिल। हर राजनैतिक क्रांति की इमारत बौद्धिक क्रांति की बुनियाद पर ही खड़ी होती है । यूरोप की राजनैतिक क्रांतियां भी नवजागरण और प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) बौद्धिक क्रांतियों की बुनियाद पर खड़ी हुईं।प्रतिक्रांति के मामले में प्रक्रिया उल्टी चलती है, प्रतिक्रांति की बौद्धिक औचित्य और वैधता के लिए वैचारिकी गढ़ी जाती है। ढाई हजार साल कुछ पहले बुद्ध की पहल पर एक बौद्धिक क्रांति हुई, आमजन की भाषा में द्वंद्वात्मक ज्ञान की जनतांत्रिक संस्कृति स्थापित हुई। लगभग दोहजार साल पहले शुरू हुई ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की वैधता के लिए 'गुरुर्देवोभव' के सिद्धांत पर शिक्षा की एकाधिकारवादी संस्कृति शुरू हुई और पुराण रचे गए। दुर्भाग्य से अभी तक क्रांतियों की तुलना में प्रतिक्रांतियां अधिक दीर्घजीवी रही हैं। उम्मीद है, सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की बुनियाद पर अगली जनवादी क्रांति ज्यादा दीर्घजीवी होगी।

Thursday, October 31, 2024

बेतरतीब 188 (दिल्ली 1971)

 वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार Ramsharan Joshi की अपने पत्रकार-साहित्यकार मित्रों Pankaj Bisht और Ibbar RabiRabbi के साथ प्रेस क्लब और कनाटप्लेस में घूमते हुए नास्टजिआने की एक पोस्ट पर एक नास्टेजिआता कमेंट:


अद्भुत तिकड़ी और साथ मिलकर यादों की शैर की अद्भुत बानगी। मैं 16 साल की उम्र में,1971 में पहली बार दिल्ली आया। बड़े भाई की स्टेट्समैन के टाइम ऑफिस में नई नई नौकरी लगी थी, तिलक ब्रिज रेलवे कोढियों के किसी सर्वेंट क्वार्टर में किराए पर रहते थे। हर शाम मंडी हाउस घूमते हुए, मंडी हाउस में तरह तरह की अड्डेबाजियों का जायका लेते हुए, कनाट प्लेस जाता था, दूर से कॉफीहाउस में कॉफी के प्यालों में क्रांति करते लोगों की बहसें सुनता और हरकारे बन दौड़ते सिगरेट के धुएं देखता। कॉफी बहुत सस्ती होती थी। आज की पालिका बाजार की पार्किंग की जगह आइसक्रीम पार्लर सा कुछ होता और वहीं पहली बार सिगरेट पी थी। सबसे अच्छी सिगरेट मांगने पर 2 आने की गोल्डफ्लेक दिया और इतनी खांसी आई कि सोचा अब कभी नहीं पिऊंगा। लेकिन ...। हो सकता है मंडी हाउस या कॉफी हाउस में आप लोगों की किसी अड्डेबाजी का भी दूर से जायजा लिया हो। हमारे समय के तीन महान जनवादी लेखक-कवि-साहित्यकार-पत्रकारों को सलाम। हर शुक्रवार पैदल लाल किला जाता क्योंकि शुक्रवार को लालकिले में जाने का टिकट नहीं खरीदना पड़ता था। उस समय राष्ट्रपति भवन के बगीचों में भी लोग बेरोक-टोक जा सकते थे। वहां घूमते हुए एक बार राज्यसभा की सांसद विद्यावती चतुर्वेदी के बेटे प्रियव्रत चतुर्वेदी से परिचय हुआ था। उस समय वह शाहजहां रोड पर रहतीं थीं। एक दिन चांदनी चौक में घूमते हुए किसी सिनेमा हॉल में कटी पतंग का पोस्टर दिखा और टिकट लेकर घुस गए। उस समय दिल्ली में तांगे भी चलते थे और कनाट प्लेस से लालकिले तक फटफटी। फटफटी तो 80 के दशक तक चलती थी। एक बार कनाट प्लेस में प्यास लगी और 2 पैसे में मशीन का पानी मिलता था। गांव के लड़े के पानी खरीदकर पीने की बात गले से नीचे नहीं उतरी और एक हलवाई (शायद गुलजारी) की दुकान के काउंटर पर पानी के गिलास रखे थे, वेटर से पूछ कर एक गिलास पानी पिया।