Tuesday, October 21, 2025

मार्क्सवाद 235 (वर्ग चेतना)

 एक पोस्ट पर एक कमेंट का जवाबी कमेंट:


शासक वर्गों के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दलाल कम्युनिस्ट शब्द के बारे में 200 सालों से ऐसी ही बकवास दुहरा रहे हैं। मार्क्स के एक समकालीन अरजक दार्शनिक प्रूदों ने उनकी सोच का मजाक उड़ाने के लिए लिखा, 'गरीबी का दर्शन' जिसके जवाब में मार्क्स ने लिखा, 'दर्शन की गरीबी' जो एक कालजयी कृति बनी हुई है। "आर्थिक परिस्थितियों ने लोगों को श्रमशक्ति बेचकर आजीविका चलाने वाला मजदूर बना दिया, इसलिए, अस्तित्व की परिभाषा से मजदूर तो 'अपने आप में वर्ग' हैं, लेकिन तब तक वे भीड़ बने रहते हैं जब तक वर्ग चेतना के आधार पर संगठित होकर वे 'अपने लिए वर्ग' नहीं बनते हैं "। यानि अपने आप में वर्ग को अपने लिए वर्ग से जोड़ने वाली कड़ी है, वर्ग चेतना यानि सामाजिक चेतना का जनवादीकरण। जाति, धर्म, क्षेत्र आदि आधारित मिथ्या चेतनाएं सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के रास्ते की बहुत बड़ी गतिरोधक हैं, जिन्हें चकनाचूर कर मजदूर जिस दिन अपने आप के लिए एक वर्ग में संगठित होगा उस दिन क्रांति होगी और आप जैसे लंपट सर्वहारा या तो मजदूर के अपने आप के लिए वर्ग के संगठन में शामिल होंगे या दरकिनार कर दिए जाएंगे। हर बकवासवाद का एक जवाब-इंकिलाब जिंदाबाद।

Tuesday, October 14, 2025

मार्क्सवाद 354(जेपी)

 एक पोस्ट पर कमेंट


जेपी अपने राजनैतिक जीवन के अंतिम चरण में वैचारिक दिग्भ्रम के शिकार थे, 1970 की दशक की शुरुआत में राजनैतिक हाशिए पर खिसक चुके थे, तभी बिहार छात्र आंदोलन को नेता की जरूरत थी और जेपी को मंच की। मंच मिलने पर उन्होंने बिना परिभाषित किए संपूर्ण क्रांति का भ्रामक नारा दिया और उसके लिए उन्होंने हिंदुत्व फासीवाद को अपना प्रमुख सहयोगी बनाया। और इस तरह 1960 के दशक में दीनदयाल उपाध्याय से समझौता कर आरएसएस को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने के लोहिया की परियोजना को आगे बढ़ाया। वैचारिक रूप से 1934-42 जेपी के जीवन का स्वर्णकाल था।

Tuesday, October 7, 2025

बेतरतीब 178 (इलाहाबाद)

 1970 के दशक के मध्य में जब लगा कि नौकरी करने को अभिशप्त हैं तो विकल्पों के विलोपन की प्रक्रिया से भान हुआ कि यही एक नौकरी कर सकता हूं, इसलिए नौकरी की मेरा कोई दूसरा प्रिफरेंस ही नहीं था लेकिन उच्च शिक्षा की मठाधीशी व्यवस्था की आचार संहिता के अनुरूप रंगढंग ठीक नहीं किया। कम उम्र में नास्तिक हो गया, जब गडवै नहीं तो गॉडफदरवा कहां से होता। 1984 में इलाहाबाद में एक घंटे से ज्यादा लंबा इंटरविव चला। 6 पद थे, इतने आशान्वित हो गए कि सोचने लगा कि झूसी नया बस रहा है वहां घर लिया जाए कि गंगा के इस पार तेलियरगंज/मम्फोर्डगंज। आरपी मिश्रा वीसी थे, 2-3 साल बाद मिले और बताए कि मेरे इंटरविव से वे इतने प्रभावित थे कि मेरा नाम पैनल में सातवें नंबर पर रखवाने में सफल रहे। मैंने कहा कि 6 पद थे तो सातवें पर रखे या सत्तरवें पर। खैर उच्च शिक्षा की 99% नौकरियां extra acadenic considerations पर मिलती हैं, 1% accidently, कई संयोगों के टकराने से। पहले तो खैर गॉडफादरी ही चलती थी अब तो सुनते हैं, झंडेवालान की संस्तुति के अलावा पैसा भी चलता है । मेरा मानना है कि यदि आधे शिक्षक भी शिक्षक होने का महत्व समझ लें तो सामाजिक क्रांति का पथ अपने आप प्रशस्त हो जाएगा। लेकिन ज्यादातर अभागे हैं, महज नौकरी करते हैं। मुझसे तो लोग कहते थे कि मेरे साथ नाइंसाफी हुई नौकरी देर से मिली। मैं कहता था कि नाइंसाफी की बाततो तब करूं यदि मानूं कि यह न्यायपूर्ण समाज है, और अन्यायपूर्ण समाजमें निजी अन्याय की शिकायत क्यों? जहांतक देर से मिलने का सवाल है तो सवाल उल्टा होना चाहिए कि मिल कैसे गयी? मेरे एक अग्रज मित्र हैं, प्रोफेसर रमेश दीक्षित उनसे पेंसन में झंझट की बात हो रही थी, तो उन्होंने कहा कि उन्हें तो यकीन ही नहीं होरहा था कि मुझे नौकरी मिल गयी और रिटायर होने तक चल गयी। मुझसे कोई पेंसन में गड़बड़ी का कारण पूछता है तो कहता हूं कि नतमस्तक समाज में सिर उठाकर जीना मंहगा शौक है। क्षमा कीजिएगा ग्रुप में नया हूं और लंबा भाषण दे दिया। आप लोगों में से जो भी शिक्षक हैं, उनसे यही निवेदन करूंगा कि शिक्षक होने का महत्व समझिए। शुभकामनाएं।

Friday, October 3, 2025

शिक्षा और ज्ञान 382(सीएसपी)

1934 में, कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी की स्थापना के समय, कम्युनिस्टों और कांग्रेस सोसलिस्टों में, सामाजिक-राष्ट्रीय मुद्दों पर मतभेद लगभग नहीं के बराबर थे। अधिकारिक रूप से कम्युनिस्ट पार्टी पर पाबंदी लगी थी। कम्युनिस्ट निजी रूप से पार्टी में भरती हो सकते थे। दरअसल जनमानस या वामपंथ की की दृष्टि से यह स्वतंत्रता आंदोलन का स्वर्णकाल था जब कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट संयुक्त मोर्चा बनाकर आंदोलन को जनोंमुख बनाने में लगे थे। सीएसपी की स्थापना के समय नंबूदरीपाद इसके सहसचिव थे। ट्रेड यूनियन और किसान आंदोलन के मोर्चों पर दोनों एक दूसरे के सहयोगी थे। हां, कुछ कम्युनिस्ट संगठन के क्रांतिकारी तत्वों को अपनी तरफ लुभाने की कोशिश में थे और अशोक मेहता, लोहिया तथा मीनू मसानी जैसे कुछ लोग टॉर्च-खुपरपी लेकर संगठन में कम्युनिस्ट कॉन्सपिरेससी की खोज कर रहे थे। 1942 में युद्ध के मुद्दे पर संयुक्त मोर्चा टूट गया। 1950 के दशक में केरल में फिर संयुक्त मोर्चा बना। 1957 में केरल की वामपंथी सरकार में सोसलिस्ट भी थे।