Rakesh Mishra Kumar सर की एक पोस्ट पर कमेंट:
हम जब प्राइमरी में पढ़ने गए तो स्कूल में 3 कमरे थे और 3 शिक्षक, रामबरन 'मुंशीजी' हेडमास्टर थे और एक कमरे में वे कक्षा 4-5 को पढ़ाते थे और उनसे जूनियर 'बाबू साहब' थे, वासुदेव सिंह, जो कक्षा 3-4 को दूसरे कमरे में पढ़ाते थे। 'पंडित जी' सीतीाराम मिश्र सबसे जूनियर थे वे कक्षा 1 और गदहिया गोल (अलिफ या प्रीप्रािमरी) को तीसरे कमरे में पढ़ते थे। मुंशीजी पतुरिया जाति के थे। ब्राह्मण शिक्षक को पंडित जी, ठाकुर को बाबू साहब, भूमिहार को राय साहब, मुसलमान को मौलवी साहब तथा कायस्थ समेतअन्य जातियों को मुंशी जी कहा जाता था। पंडित जी ने संख्या (गणित) में मेरी रुचि देखकर गदहिया गोल से एक में कुदा दिया। कक्षा 2 और 3 में बाबू साहब ने पढ़ाया। हम जब कक्षा 3 मे थे तभी मुंशी जी रिटायर हो गए और बाबू साहब हेड मास्टर होकर कक्षा 4-5 को पढ़ाने लगे। नए शिक्षक रमझूराम मुंशी जी दलित जाति के थे। वरीयता क्रम में वे गदहिया गोल और कक्षा 1 को पढ़ाते थे। मुझे न तो रामबरन मुंशी जी ने पढ़ाया न ही रमझूराम मुंशी जी। कक्षा 4 में डिप्टी साहब (एसडीआई) मुाइना करने आए, उन्होंने कक्षा 5 वालों से गणित (अंक गणित) का कोई सवाल पूछा, सब खड़े होते गए। सवाल सरल सा था, कक्षा 5 की टाट खत्म होते ही कक्षा 4 की टाट पर सबसे आगे मैं बैठता था और फटाक से जवाब दे दिया। डिप्टी साहब साबाशी देने लगे तो बाबू साहब ने उन्हें बताया कि मैं अभी कक्षा 4 में था। डिप्टी साहब बोले, इसे 5 में कीजिए। अगले दिन, मैं बड़े भाई की पढ़ी कक्षा 5 की किताबें (भाषा और गणित) तथा एक नई गोपाल छाप क़पी लेकर आया और कक्षा 5 की टाट पर आगे वैठ गया। बाबू साहब ने मुझे वहा से उठकर अपनी पुरानी जगह पर जाने को कहा। मैंने कहा कि डिप्टी साहब ने मुझे 5 में पढ़ने को कहा है। बाबू साहब ने तंज के लहजे में कहा कि "भेंटी पर क बाटा लग्गूपुर पढ़ै जाबा तो सलार पुर के बहवा में बहि जाबा" (छोटे से हो लग्गूपुर पढ़ने जाओगे तो सलारपुर के बाहे में बह जाओगे)। मैंने कहा, "चाहे बहि जाई चाहे बुड़ि जाई, डिप्टी साहब कहि देहेन त हम अब पांचै में पढ़ब" (चाहे बह जाऊं या डूब जाऊंं, डिप्टी साहब ने कह दिया तो मैं अब 5 में ही पढ़ूंगा।) । हमारे गांव से सबसे नजदीक मिडिल स्कूल 7-8 किमी दूर लग्गूपुर था। बहल का गांव सलारपुर है, बरसात में खेत से तालाब में पानी निकासी के नाले को बाहा कहा जाता था। अब न तोसतालाब बचे हैं न ही बाहा। इस तरह मैं एक मौखिक सवाल की परीक्षा से मैं कक्षा 4 से कक्षा 5 में चला गया। मिडिल स्कूल में 2 मौलवी साहब थे, ताहिर अली (हेड मास्टर) और आले हसन; एक बाबू साहब, श्याम नारायण सिंह; एक मुंशी जी (चंद्रबली यादव) तथा एक राय साहब (राम बदन राय)। राय साहब का गांव दूर था, इसलिए स्कूल पर ही रुकते थे। राय ससाहब का पोता दिल्ली विश्वविद्यालय के केएम कॉलेज में पढ़ता था, गांव पता चलने पर पूछा था कि उसके गांव (आजमगढ़ जिले में दुर्बासा के पास) के आसपास के मेरे एक शिक्षक थे तो उसने बताया कि वे जीवित थे और उसके दादा जी थे (2लाल पहले उनका देहांत हुआ)। 2012 में मैं अपनी सपुराल (मेरे गांव से लगभग 35 किमी) से मोटर साइकिल से घर जा रहा था, मुख्य सड़क से अपने गांव मुड़ते समय दिमाग में राय साहब से मिलने की बात आई और मुड़ा नहीं आगे बढ़ गया और वहां सगभग 40 किमी दूर दुर्बासा पहुंचकर घाट पर चाय के साथ पुरानी यादें ताजा करके नए बने पुल से नदी पार कर राय साहब के गांव (पश्चिम पट्टी) पहुंच गया। मैने 1967 में मिडिल पास किया था और ताज्जुब हुआ कि 45 साल बाद भी राय साहब ने बताने पर पहचान लिया और मेरे बारे में उस समय की कई बातें याद दिलाया। (शिक्षकों के जाति सूचक संबोधन की आप की बातों से नास्टेल्जिया गया)