सांप्रदायिकता, फासीवाद, सीएए, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, शिक्षा की गुणवत्ता आदि सामाजिक मुद्दे लेखक और लेखक संगठनों के जीवंत सरोकार हैं और रहने चाहिए वरना लेखन के लिए लेखन कला के लिए कला की तरह होगा, जिसे चेखव ने सामाजिक अपराध कहा है। प्रेमचंद के अध्यक्षीय भाषण और प्रलेस की संस्थापना दस्तावेजों में चिन्हित सार्थक सांस्कृतिक हस्तक्षेप के मंच के रूप में लेखक संघ की भूमिका प्रमुख है। मैंने केवल यही कहा है कि लेखक भी मजदूर होता है तथा उसके अधिकारों के लिए संघर्ष भी लेखक संगठनों की भूमिका का एक आयाम होना चाहिए। लेखन की ही तरह लेखक संगठनों की भूमिका भी बहुआयामी होनी चाहिए। डूटा जैसे शिक्षक संगठनों की भूमिका भी दुर्भाग्य से घटकर शिक्षकों के अधिकारों के लिए संघर्ष के एकायामी मंच की हो गयी है, वांछनीय रूप से इनकी भूमिका भी बहुआयामी होनी चाहिए तथा शिक्षा की गुणवत्ता और सामाजिक चेतना के स्वरूप और स्तर की प्रक्रिया में हस्तक्षेप भी इसकी प्रमुख भूमिकाओं में होना चाहिए।
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