Thursday, February 13, 2025

शिक्षा और ज्ञान 366 (जनतंत्र)

 राजनैतिक हताशा की किसी की पोस्ट पर एक कमेंट का जवाब:


कभी कभी आक्रोश में ऐसी ही प्रतिक्रिया दिमाग में आती है कि यह जनता इसी लायक है, उसे ऐसा ही शासन चाहिए लेकिन जनता ऐसे क्यों है? हम मार्क्सवादी इस जनतंत्र को पंजीवादी (बुर्जुआ) जनतंत्र कहते हैं, लेकिन मार्क्सवाद के नाम पर चुनावी राजनीति करने वाली पार्टियों ने जनता की सोच/चेतना बदलने के लिए क्या किया? सीपीआई/सीपीएम तथा बुर्जुआ चुनावी पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क ही नहीं बचा है.। मार्क्स ने कहा है कि शासक वर्ग के विचार सासक विचार भी होते हैं, पूंजीवाद माल के साथ विचारों का भी उत्पादव करता है तथा सामाजिक उत्पादन के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप और चरित्र भी होता है , परिवर्तन के लिए जरूरी है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण यानि क्रांतिकारी (वर्ग) चेतना का संचार। सामाजिक चेतना के जनवादीकरणि के लिए जरूरी है, जाति-धर्म आदि के नाम पर अस्मिता राजनीति की मित्या चेतना से मुक्ति। हिंदुत्व फासीवाद 3ाह्ममवाद की ही राजनैतिक अभिव्यक्ति है। सामाजिक चेतना के जनवादीकरण का काम कम्युनिस्ट पार्टियों का है, जिसमें वे पूरी तरह असफल रहीं। लेकिन इतिहास का यह अंधकार युग अस्थाई है। फासीवादी ताकतें शिक्षा के विकृतीकरण से सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की धार कुंद करने के हर संभव प्रयास कर रही हैं, ज्ञान के कुओं को धर्म की अफीम से पाट ररही हैं। लेकिन अदम गोंडवी के शब्दों में. "ताला लगा के आप हमारी ज़बान को , कैदी न रख सकेंगे जेहन की उड़ान को।" हर निशा एक भोर का ऐलान है, हर अंधे युग का अंत देर-सबेर होता ही है।

शिक्षा और ज्ञान 367 (गुलाम बौद्धिकता)

 कृष्णमोहन की पुस्तक 'गुलाम बौद्धिकता'के संदर्भ में Gyan Prakash Yadav की पोस्ट पर कमेंट:


क्या संयोग है कि मैंने भी यह पुस्तक, 'गुलाम बौद्धिकता' पिछले साल मेले में ही खरीदी थी। ज्यादातर शैक्षणिक नौकरियां शिक्षणेतर कारणो (extra academic consideraions) से मिलती हैं, साथ में शैक्षणिक सक्षमता भी होना, अतिरिक्त योग्यता है। ऐसे में तमाम लुच्चे-लफंगे प्रवृत्ति के लोगों का प्रोफेसर होना आश्चर्यजनक नहीं लगना चाहिए। नाम में मिश्र के पुछल्ले के बावजूद मैंने दिल्ली एवं अन्य विश्वविद्यालयों में 14 साल इंटरविव दिए। 1984 में इलाहाबाद विवि में मेरा इंटरविव एक घंटे से अधिक चला, 6 पद थे, मैं सोचने लगा था कि गंगापार नया नया धूसी बन रहा था वहां घर देखूं या गंगा इस पार तेलियर गंज में, हा हा। उसके कुछ साल बाद तत्कालीन कुलपति कहीं टकरा गए और बताए कि मेरे इंटरविव से वे इतने प्रभावित हुए थे कि तमाम तर के बावजूद वे मेरा नाम पैनल में सातवें लंर पर रखवा पाए थे। 6 पद थे तो 7वें पर रखें या सत्तरवें पर? जब कोई कहता था कि मुझे नौकरी देर से मिली तो मैं कहता था कि सवाल उल्टा है, मिल कैसे गयी?

Monday, February 3, 2025

शिक्षा और ज्ञान 365 (इतिहास का गतिविज्ञान)

 इतिहास का गतिविज्ञज्ञान अपनी रफ्तार और दिशा अपनी गति की प्रक्रिया में खुद तय करता है, उसके लिए पहले से कोई टाइमटेबल नहीं बनाया जा सकता। हमारे छात्रजीवन से अब तक के परिवर्तनों की 60 साल पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, लड़कियों को पढ़ने के लिए लड़ना पड़ता था, आज लड़ने के लिए पढ़ रही हैं।

कुछ नहीं कुछ नहीं होता

 न सोचने से किसी विचार का जन्म नहीं होता,

न सोचने से किसी विचार का जन्म नहीं होता,
इसलिए सोचताहूं

न लिखने से भी कुछ नहीं होता,
इसलिए लिखता हूं
न बोलने से भी कुछ नहीं होता,
इसलिए बोलता हूं
न पढ़ने से भी कुछ नहीे होता,
इसलिए पढ़ लेता हूं
न करने से भी कुछ नहीं होता
इसलिए कुछ-न-कुछ करता रहता हूं
वैसे तो कुछ भी कुछ नहीं होता
उसी तरह जैसे नामुमकिन जिंदा आदमी का कुछ न करना
न सोचने, न लिखने, न बोलने, न पढ़ने, न करने से भी कुछ नहीं होता
इसलिए सोचता, लिखता, पढ़ता, बोलता और करता रहता हूं
ये सब इस उम्मीद में करता रहता हूं कि हो सकता है कुछ हो ही जाए।
(ईमि: 03.02.2025)