हमारे खानदान में कभी किसी ने पुरोहिती नहीं की. कम-से-कम हमारे परदादा की पीढ़ी से, जिन्हें मैंने नहीं देखा था, गांव -जवार के बहुत बुजुर्गों से उनकी कहानियां सुना है। वे फारसी और संस्कृत के विद्वान माने जाते थे और आयुर्वेद के जानकार। वे न किसी से इलाज का पैसा लेते थे न किसी के घर जाते थे। आने में असमर्थ दूर-दराज के मरीज के 24 घंटे के अंदर पहने गए अंडरगार्मेंट की गंध से डाइग्नोज करके दवा बताते थे। अब सुनी-सुनाई बातें कितनी सही है पता नहीं, लेकिन सभी यही बताते थे।
बाभन से इंसान बनना जन्म की जीवनवैज्ञानिक संयोग की अस्मिता की प्रवृत्तियों के पर्वाग्रह-दुराग्रहों से मुक्त होकर विवेकसम्मत इंसान बनने का मुहावरा है। इसमें भूमिहार या अहिर अथवा हिंदू-मुसलमान से इंसान बनना भी शामिल है
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