वैसे तो पहले किसानों के विरुद्ध जहर उगलने वाले इन कानूनों के फायदे बताना चाहए जिन्हें किसानों पर जबरदस्ती थोपा जा रहा है। किसी ची के होने का प्रमाण न होना ही, उसके न होने का प्रमाण है। कुछ लोग मूर्खतावश ईश्वर के न होने का प्रमाण मांगते हैं। अरे भाई ईश्वर के होने का प्रमाण न होना ही उसके न होने का प्रमाण है।
मैंने Routledge के Contemporary South Asia के लिए ए लेख लिखा है 5-6 दिन में छप जाने के बाद शेयर करूंगा, इस बीच उसे हंदी में लिखने के लिए कलम की सुस्ती मिटाने की कोशस में हूं। फिर भी मोटा-मोटा कुछ बातें बता देता हूं।
1. खेती और शिक्षा का भूमंडलीरण यानि कॉरपोरेटीरण साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी के निर्दश पर शुरू हुए भूमंडलीकरण का प्रमुख एजेंडा रहा है। किसी समाज को तबाह करके अधीन (गुलाम) बनाने के लिए उसकी खेती और शिक्षा प्रणालियों तबाह कर नियंत्रित करना जरूरी होता है। औपनिवेशिक सरकार की जमीन नीति (1791 का जमीन कानून) और शिक्षा नीति (1833) का मकसद भी यही था। गौरतलब है भारत में अकाल तथा महामारी के दौर उसी के बाद शुरू हुए। 1995 में वश्व बैंक ने खेती तथा शक्षा को स्पष्ट तौर पर गैट्स में शामिल। मनमोहन सरकार उस पर अंगूठा लगाने में हल्ला हवाला रती रही, मोदी जी 2015 में नैरोबी जाकर उस पर अगूठा लगा आए। नई शक्षा नीति तथा ये कृषि कानून शिक्षा तथा खेती के कॉरपोरेटीकरण की विश्वबैंक के निर्देश पालन की दशा में उठाए गए कदम हैं। साम्राज्यवादी एजेंट यह सरार इन्हें वापस लेकर विश्व बैंक के निर्देशों के उल्लंघन का साहस नहीं कर सकती।
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