बैस्टिल दिवस और
मोदी
ईश मिश्र
जिस तरह भारत
में 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) और 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) को राष्ट्रीय दिवस के
रूप में राष्ट्रीय पर्व मनाया जाता है, उसी तरह फ्रांस में 14 जनवरी (बैस्टिल
दिवस) को राष्ट्रीय दिवस के रूप में राष्ट्रीय पर्व मनाया जाता है। 26 जनवरी 15 अगस्त, 1947 को भारत औपनिवेशिक शासन से
स्वतंत्र हुआ था और 26 जनवरी को संविधान सभा द्वारा गणतंत्रात्मक संविधान लागू हुआ
था। 1789 में फ्रांसीसी क्रांति को दौरान 14 जुलाई को फ्रांस की जनता ने फ्रांसीसी
राजशाही के गौरव और आतंक का प्रतीक समझे जाने वाले पेरिस के बैस्टिल दुर्ग पर धावा
बोलकर कब्जा कर लिया था। फ्रांसीसी राजशाही की विधायिका (एस्टेट जनरल) के जनता के
प्रतिनिधियों के तीसरे सदन ने, “स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा” के नारे के साथ खुद को राष्टीय संसद घोषित कर दिया था और फ्रांस
में गणतंत्र की नींव रखी थी। जिस तरह भारत के गणतंत्र दिवस पर गणमान्य विदेशी
अतिथियों तथा देश के गणमान्य नागरिकों की उपस्थिति में भारत के राष्ट्रपति राष्ट्र
की सैन्यशक्ति के प्रदर्शन के बीच सेना के परेड की सलामी लेते हैं, उसी तरह विदेशी
गणमान्य अतिथितियों एवं देश के गममान्य नागरिकों की उपस्थिति में फ्रांस के
राष्ट्रपति राष्ट्र की सैन्य शक्ति के प्रदर्शन के बीच सेना के परेड की सलामी लेते
हैं। इस बार के बैस्टिल दिवस की खासियत यह थी कि इस उत्सव के मुख्य अतिथि भारत के
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे और परेड में फ्रांसीसी सेना की टुकड़ी के साथ भारतीय
सेना की भी एक टुकड़ी शामिल थी। सैन्य शक्ति के इस प्रदर्शन में फ्रांस से खरीदी
गये रफाल विमानों का जत्था भी शामिल था। हर विदेश यात्रा की तरह इस यात्रा में भी
हथियारों एवं अन्य सैन्य सामग्री की डील भी शामिल है।
गौर तलब है कि
फ्रांस में जनता राष्ट्रपति मैक्रोन की सरकार द्वारा कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति
आयु बढ़ाने के विरुद्ध आंदोलन कर रही है
और जब वे सेना की कार में परेड स्थल पर जा रहे थे तो रास्ते में उन्हें विरोध
प्रदर्शन का सामना करना पड़ा। अखबारी खबरों के अनुसार उनकी लोकप्रियता काफी नीचे
खिसक गयी है। लेकिन मोदी जी ने वापस आकर प्रगति मैदान में नए पंडाल के उद्घाटन
भाषण में विश्वास के साथ अपने तीसरे शासनकाल में देश की अर्थव्यवस्था को दुनिया की
तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने की घोषणा कर डाली। जिसका निहितार्थ यह है कि वे 2024 के
चुनाव के बाद तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने को लेकर आश्वस्त हैं। इस बीच भारतीय
रक्षा मंत्रालय ने फ्रांस से 26 और रफाल जेट और तीन नवल पनडुब्बियां खरीदने की भी
घोषणा कर दी।
जहां फ्रांसीसी
राष्ट्रपति मोदी को सम्मानितकर रहे थे, वहीं फ्रांस के मानवाधिकार संगठनों ने मोदी के
हिंदुत्ववादी भारतीय जनता पार्टी की सांप्रदायिक अधिनायकवादी राजनीति और
अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के हवाले उन्हें बैस्टिल दिवस के मुख्य अतिथि के रूपमें
आमंत्रित करने के लिए मैक्रोन की आलोचना की है। मानवाधिकार संगठन एलडीएच ने
मैक्रोन द्वारा मोदी को सम्मानित करने की आलोचना में मोदी के नेतृत्व में भारत में
अधिनायकवादी शासन के प्रति चिंता जाहिर करते हुए मोदी की यात्रा को फ्रांस के
जनतांत्रिक मूल्यों के लिए अपशकुन बताया है। बैस्टिल दिवस को फ्रांसीसी क्रांति के
प्रसिद्ध मोटो, “स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व” का प्रतीक माना जाता है और भारत
में, मोदी के नेतृत्व में भाजपा शासन को अधिनायकवाद तथा प्रतिरोध और असहमति के दमन
का।
बैस्टिल मूल रूप
से एक मध्ययुगीन शाही किला था जिसे 18वीं शताब्दी में राजनैतिक बंदियों के जेल में
तब्दील कर दिया गया था। यहां के राजनैतिक बंदियों में ऐसे भी लोग थे जिन्हें
राजाज्ञा से कैद किया जाता था जिनके मामलों की सुनवाई की कोई गुंजाइश नहीं होती
थी। यह राजशाही की क्रूरता का प्रतीक बन गया था। फ्रांसीसी क्रांति के दौरान 14
जुलाई को क्रांतिकारी आवाम ने बैस्टिल किले पर राजनैतिककैदियों को मुक्त करने तथा
हथियार और गोला-बारूद लूटने के इरादे से
धावा बोल दिया था। इस धावे में किले के रक्षकों को परास्त कर कैदियों को
मुक्त करा दिया गया। यह दिन क्रांति की शुरुआत का निर्णायक बिंदु बन गया। क्रांति
के एक शताब्दी बाद, 1880 से 14 जुलाई राष्ट्रीय पर्व बन गया और ‘14 जुलाई जिंदाबाद’
के नारे के साथ उत्सव मनाया जाने लगा।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
18वीं शताब्दी में फ्रांस प्रबोधन (एन्लाइटेनमेंट) बौद्धिक क्रांति का रंगमंच
बन चुका था। ‘लंबी’ 18वीं शताब्दी कही जाने वाली 17वीं शताब्दी के अंतिम सालों से
लेकर 1815 में वाटर लू में पराजय के साथ नैपोलियन के युद्ध अभियान के अंत तक की
अवधि का यूरोपीय ऐतिहासिक युग “विवेक का महान युग” के नाम से भी जाना जाता है।
‘लंबी’ 18वीं शताब्दी की यह बौद्धिक क्रांति 15वीं-17वीं शताब्दी की नवजागरण
क्रांति और वैज्ञानिक क्रांति की बुनियाद पर खड़ी हुई। यहां नवजागरण और वैज्ञानिक
क्रांतियों के विस्तार में जाने की न तो गुंजाइश है न जरूरत, इसके जिक्र का आशय
मात्र इतना है कि परिघटनाओं की धर्मशास्त्रीय व्याख्या और पारंपरिक पुरातन सामाजिक
मूल्यों को विवेक सम्मत, तार्किकता पर आधारित मानवीय मूल्यों से गंभीर चुनौती मिल
रही थी। उहलोक के सौंदर्य पर इहलोक के सौंदर्य को तरजीह दी जा रही थी। दर्शन में
थॉमस हॉब्स; फ्रांसिस बेकों; जॉन लॉक के विचारो पर व्यापक विमर्श हो रहा था। “मैं
सोचता हूं, इसलिए मैं हूं” के प्रसिद्ध वक्तव्य वाली रेने देकार्त की पुस्तक, उपादानों
पर विमर्श (डिस्कोर्स ऑन मेथड्स) 1637 में प्रकाशित हो चुकी थी और न्यूटन के
गणित के सिद्धांत 1687 में। इस काल को वैज्ञानिक क्रांति के चरम तथा प्रबोधन
क्रांति की शुरुआत के रूप में जाना जाता है। कुछ यूरोपीय इतिहासकार प्रबोधन काल की
अवधि 1715 में फ्रांस में लुई चौदहवें के तख्तनशीं होने से लेकर 1789 में
फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत तक मानते हैं। कुछ इतिहासकार प्रबोधन क्रांति की
निरंतरता 19वीं शताब्दी की शुरुआत में, इसके एक प्रमुख चिंतक एमानुएल कांट की
मृत्यु (1804) तक मानते हैं। ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देने वाले वोल्तेयर और
शासक-शासित के फर्क को मिटाने वाले, समतामूलक सामूहिकता के सिद्धांत के प्रवर्तक
रूसो प्रबोधन क्रांति के प्रमुख स्तंभोंमें गिने जाते हैं। वैज्ञानिक क्रांति और प्रबोधन
काल के संदर्भ के बहाने यहां रूसो का जिक्र करना है, क्योंकि क्रांतिकालीन कुछ
इतिहासकार रूसो को फ्रांसीसी क्रांति का जनक मानते हैं। रूसो का मानना था कि
क्रांति न केवल वांछनीय है, बल्कि संभव भी। वैसे क्रांति शुरू होने के एक साल पहले
ही, 1778 में रूसो का देहांत हो गया था।
लुई सोलहवें के शासनकाल में 1789 तक फ्रांस की आर्थिक स्थिति काफी खस्ता हाल
थी और सामाजिक असंतोष अपने चरम पर। हालात से मजबूर सम्राट लुई सोलहवें को लंबे
अंतराल के बाद राजसी विधायिका (एस्टेट जनरल) की सभा बुलाना पड़ा। गौरतरब है कि
1614 के बाद से एस्टेट जनरल की यह पहली और अंतिम बैठक थी। 4 मई 1789 को वर्साइल्स में अंतिम राजसी सभा का
भव्य जुलूस निकला जिसमें पूरे फ्रांस से 1200 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया और 5 मई
1789 को राजसी सभा की शुरुआत के साथ ही “स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व” के नारे के
साथ क्रांति की भी शुरुआत हो गयी।
पूरे यूरोप में सामंतवाद धीरे-धीरे कमजोर होता चला गया था तथा इंगलैंड जैसे
कुछ देशों में समाप्त हो चुका था या अंतिम सांसे गिन रहा था। सभी देशों में
व्यापारियों, उत्पादकों, कारीगरों तथा अन्य पेशेवर लोगों का एक बड़ा धनिक, संभ्रांत
(बुर्जुआ) पैदा हो गया था जिसे उस समय मध्य वर्ग कहा जाता था। वैसे इस नए आर्थिक
नायक का प्रवेश नवजागरण काल में ही हो गया था, जो अगले लगभग डेढ़ सौ सालों में
सामाजिक वृत्त की परिधि से चलकर केंद्रविंदु बन गया। यह वर्ग राजनीति में भागीदारी
की दावेदारी कर रहा था। फ्रांस में बड़े किसान स्वतंत्रतापूर्वक अपनी भूसंपत्ति
बढ़ाने के लिए सामंतशाही के खात्मे की मांग कर रहे थे। 1788 के ग्रीष्मकाल में पेरिस,
ग्रेनाब्ल, दिजों, तथा रेने समेत कई शहरों में जनाक्रोश बढ़ता जा रहा था।
जनाक्रोश के दबाव में राजा लुई सालहवें ने सुधारवादी जैक्स नेकर को वित्त
मंत्री बना दिया और 5 मई, 1789 को लंबे अंतराल बाद राजसी विधायिका (एस्टेट जनरल)
की बैठक बुलाने की घोषणा की। अभिव्यक्ति की आजादी की घोषणा के बाद पूरे देश में
राज्य के पुनर्गठन की मांग के पर्चों और पोस्टरों की बाढ़ सी आ गयी। जनवरी-अप्रैल
1789 के बीच राजसी विधायिका (एस्टेट जनरल) के चुनाव कराए गए। मतदाताओं ने अपनी
शिकायतों और अपेक्षाओं के मांगपत्र तैयार किए। आमजन के प्रतिनिधित्व वाले तीसरे
सदन (एस्टेट) के लिए 600 तथा दसरे (कुलीनों के) तथा पहले (पादरियों के) सदनों
(एस्टेटों) में प्रत्येक के लिए 300
प्रतिनिधि चुने गए। प्रत्येक सदन के मतों के मूल्य समान थे। यानि कि पहले
(पादरियों के) और दूसरे (कुलीनों के) सदन के मतों का मान मिलाकर जनसाधारण के
प्रतिनिधियों के तीसरे सदन के मतों पर भारी था। इस बात पर हस छिड़ गयी कि मताधिकार
प्रति प्रतिनिधि होगा या प्रति सदन। तीसरे
सदन के प्रतिनिधियों ने एक प्रतिनिधि एक मत की मांग की क्योंकि सदनवार मतदान में
अधिक संख्या के बावजूदवे अल्पमत में हो जाते। 17 जून को कानूनी विवाद अपने चरम पर
पहुंच गया और तीसरे सदन के प्रतिनिधियों यानि जनप्रतिनिधियों ने खुद को राष्ट्रीय
संसद घोषित कर दिया तथा बाकी दो सदनों को पीछे छोड़ आगे बढ़ने की धमकी दे डाली।
ग्रामीण चर्चों के निचले तपके के कई पादरी भी उनके समर्थन में आ गए। निचले तपके के
पादरी संख्या में कुलीन पादरियों से अधिक थे। 20 जून को शाही अधिकारियों ने सभागार
को बंद कर दिया तो उन्होने महल की चारदीवारी के अंदर राजा के निजी टेनिस कोर्ट पर कब्जा
कर लिया और घोषणा की कि वे तब तक वहां डटे रहेंगे जब तक फ्रांस का नया संविधान
नहीं बन जाता। राजा लुई सोलहवें ने उनकी मांग के सामने झुकने का नाटक किया तथा
कुलीनों और बाकी पादरियों से भी सभा में शामिल होने का आग्रह किया। 9 जुलाई को इस सभा ने आधिकारिक
संविधान का रूप ग्रहण कर लिया। राजा अपनी बात से पलटते हुए सभा को भंग करने के लिए
सेना तैनात कर दिया और वित्त मंत्री नेकर को बर्खास्त। जनता में यह अफवाह फैल गयी
कि कुलीनों और संभ्रांत पादरियों के साथ मिलकर राजा तीसरे सदन को भंग करने की
साजिश रच रहा था। पेरिस की जनता विद्रोह में सड़कों पर आ गयी और 14 जुलाई को राजसी
आतंक का प्रतीक समझे जाने वाले बैस्टिल दुर्ग पर धावा बोल दिया। कालांतर में 14
जुलाई ‘बैस्टल दिवस’ नाम से फ्रांस के राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
राजा को जनाक्रोश के सामने झुकना पड़ा और “जनता की संप्रभुता” को मान्यता देनी
पड़ी। और इस तरह फ्रांस में पहले गणतंत्र की बुनियाद पड़ी और आगे चलकर इसके मूल्य उदारवादी
जनतंत्र के बुनियादी सिद्धांत बन गए।
तीसरे सदन (जन प्रतिनिधि सभा)
के भंग करने की अफवाह से ग्रमीण इलाकों में भय व्याप्त हो गया था, जिसे इतिहास में
महान भय नाम से जाना जाता है। महान भय के चलते किसानों ने सामंती
जमींदारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। विद्रोह का संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय
संविधान सभा ने 4 अगस्त 1789 को एक अध्यादेश जारी करके सामंती शासन और धार्मिक कर
को समाप्त कर दिया। 26 अगस्त को राष्ट्रीय संविधान सभा ने स्तंत्रता, समानता
संपत्ति की अनुलंघनीयता तथा दमन के विरुद्ध प्रतिरोध के अधिकार के प्रवधानों के
साथ व्यक्तियों और नागरिकों के अधिकारों की घोषणा (डिक्लेरेसन ऑफ राइट्स ऑफ मैन
एंड सिटिजन) का प्रस्ताव पेश किया। राजा द्वारा इसकी मंजूरी से इंकार के बाद 5
अक्टबर को पेरिस के आवाम ने वर्साइल्स की तरफ कूच किया और अगले दिन शाही
खानदान को वापस पेरिस लेकर आया गया। संविधान सभा ने संविधान निर्माण का काम जारी
रखते हुए अदालत का रुख किया। फ्रांसीसी आवाम ने क्रांति से बनी नई राजनैतिक
संस्कृति में सक्रिय भागीदारी दर्ज की। बिना सेंसर के निकल रहे दर्जनों अखबार जनता
तक ताजी घटनाओं की खबरें पहुंचाते रहे तथा राजनैतिक अड्डेबाजियों में लोग अपने
विचारों को खुल कर अभिव्यक्ति देते रहे। छोटे-छोटे गांवों में लोगों
द्वारा “स्वतंत्रता के वृक्षारोपण” का उत्सव मनाना तथा बैस्टिल पर धावे की सालगिरह
पर पेरिस में संघात्मकता के पर्व का आयोजन नई व्यवस्था के आगमन की प्रतीकात्मक
उद्घोषणा थी।
नई
व्यवस्था के तहत राष्ट्रीय संविधान सभा द्वारा सामंतवाद के उन्मूलन को अंतिम रूप
दिया गया तथा पुरुषों की
नागरिक समानता स्थापित की। पुरुषों की आबादी के बहुमत को मताधिकार प्रदान किया गया
लेकिन डिप्टी (सांसद) बनने की योग्यता की अनिवार्य शर्ते बहुत कम लोग ही पूरी करते
थे। सार्वजनिक कर्जों के भुगतान के लिए रोमन कैथलिक चर्च की संपत्ति और जमीनों के
राष्ट्रीयकरण के फलस्वरूप जमीनों के पुनर्वितरण की प्रक्रिया शुरू हुई जिसके मुख्य
लाभार्थी नवधनाढ्य और बड़े किसान थे लेकिन कुछ खेतिहर मजदूरों को भी इसका थोड़ा
बहुत फायदा हुआ। जमीनो का हस्तांतरण चर्च की जमीन के निर्धारित मूल्य पर राष्ट्रीय
संविधान सभा द्वारा जारी विक्री बांड के जरिए हुआ। जमीन के हस्तांतरण के बाद बांड
की वैधता खत्म हो जाती थी।
जटिल राजसी प्रशासनिक व्यवस्था को समाप्त कर तार्किक आधार पर
फ्रांस को विभागों; जिलों, कैंटोनों और कम्यूनों में विभाजित कर दिया गया जिनका
प्रशासन निर्वाचित निकायों को सौंप दिया गया। न्याय प्रणाली में भी आमूल परिवर्तन
किए गए तथा निर्वाचित न्यायाधीशों की व्यवस्था की गयी। क्रांति के बाद के सत्ता
विवादों तथा 1799 में क्रांति के एक सेनापति नेपोलियन बोनापार्ट द्वारा हेराफेरी
से प्रथम कांसल के रूप में सत्ता हथियाने तथा युद्धोंमादी राष्ट्रवाद की जन
भावनाओं के दोहन के जरिए गणतंत्र की जड़ें खोदकर 1804 में खुद को सम्राट घोषित
करने तक की घटनाओं की विस्तृत चर्चा अलग लेख का विषय है। इस लेख का समापन इस बात
से करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि यद्यपि क्रांति द्वारा स्थापित गणतंत्र अल्पजीवी
रहा लेकिन 1789 की फ्रांसीसी क्रांति भविष्य की क्रांतियों का संदर्भ-विंदु बन गयी
तथा आज भी बनी हुई है और बैस्टिल दिवस स्वंत्रता, समानता बंधुत्व के नारे का
प्रतीक।
10 अगस्त 2023