Saturday, March 24, 2012

शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी

आज के ही दिन (२५ मार्च) १९३१ के साम्प्रदायिक दंगों में, अपनी साम्प्रदायिकता-विरोधी प्रतिबद्धतता को व्यवहार रूप देने में प्रताप के संपादक, अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी एवं विचारक, गणेश शंकर विद्यार्थी धर्मोन्मादी आतताइयों के हाथों मारे गए थे. २१ अक्टूबर १९२४ को “धर्म की आड़” शीर्षक से सम्पादकीय में उन्होंने लिखा था:
“धर्म के नाम पर कुछ इने-गिने आदमी अपने हीन स्वार्थों की सिद्धि के लिए करोणों आदमियों की शक्ति का दुरुपयोग करते हैं. .... बुद्धि पर परदा डालकर पहले इश्वर और आत्मा का स्थान अपने लिए लेना और फिर धर्म इमान और ईश्वर के नाम पर एक दूसरे को लड़ाना-भिड़ाना. मूर्ख बेचारे धर्म की दुहाइयां देते और दीन-दीन चिल्लाते हैं, अपने प्राणों की बाजियां लगाते और थोड़े से अनियंत्रित और धूर्त आदमियों का आसान ऊंचा करते और उनका बल बढाते हैं. ................. धर्म और ईमान के नाम पर होने वाले इस जीवन-व्यापार को रोकने के लिए साहस और दृढता के साथ उद्योग होना चाहिए.”

Wednesday, March 14, 2012

नियंत्रण

नहीं कर पाए थे नियंत्रित
तुम्हारे पिता तुम्हारी आज़ादी को
हर अगली पीढ़ी लगातार तेजतर होती है
कैसे करोगे नियंत्रित बेटी की आज़ादी?
नियंत्रण की वांछनीयता विवादित है
विवाद से परे, जानते हो प्रयास की व्यर्थता
एक ही रास्ता है रोकने का नियंत्रण का उल्लंघन
आज़ादी की नियंत्रणों से मुक्ति

Tuesday, March 6, 2012

हारे को हरिनाम

मुझ सा साधारण इंसान समझ ही नहीं पाता और चौंकता है कि संघर्षों से निकले लोग, सम्मान, ख्याति और आर्थिक सुरक्षा के अर्थों में, बहुत कुछ पा चुकने के बाद, ऊर्ध्व-गमन की अनंत सम्भावनाओं के बावजूद अधोगमन का चुनाव करते हैं?; अदम्य मानव-क्षमता की अभिव्यक्ति के बाद हारे को हरिनाम लिखने लगते हैं? मैं वैसे तो नामवर जी की बात से तब चौंका था जब गोरख पांडे की शोकसभा में उन्होंने आत्म-ह्त्या को बहादुरी का काम बताया था. मैंने सोचा अवसाद की मनःस्थिति में शायद कुछ-का-कुछ कह गए हों. मेरे चौंकने का तब कोई ठिकाना ही नहीं रहा जब जे.एन.यू. का एक सम्मानित एमेरिटस प्रोफ़ेसर; हिन्दी साहिय में प्रगतिशील खेमे का मुखर लम्बरदार; दूसरी परम्परा का अन्वेषण करने वाला हिन्दी का मूर्धन्य आलोचक, नामवर जी ने न जाने और क्या पाने(खोने) के लिए, चीट-फंड के रास्ते मीडिया-सम्राट सुब्रत राय (सहाराश्री) के सामंती दरबार को पुरोहित के रूप में सुशोभित करना शुरू कर दिया था. पुरोहित इस लिए कि बाकी दरबारी सहाराश्री का चरणरज लेकर स्थान ग्रहण करते थे किन्तु नामवर जी का अभिवादन स्वयं सहाराश्री सहारा सलाम से करते थे. यह शायद चौंकने का चरम था. फिर अब नामवर जी की किसी खबर पर नहीं चौंकता हूँ.