Friday, September 26, 2025

बतरतीब 177 (बचपन)

 


बचपन
हममें से ज्यादातर लोगों को जीवन के बहुत खूबसूरत और मस्त सोपान-बचपन की यादें समय के साथ धुंधली पड़ जाती हैं और बहुत बचपन की वही बातें याद रह जाती हैं जिन्हें किसी संदर्भ में प्रकारांतर से लोग याद दिलाते रहते हैं/थे।मुझे बहुत बचपन की जो बातें अपने आप हल्के से याद हैं, उनमें से एक है – बरसात में बरामदों की ओरी से टपके जमें पानी में तब तक छपकोरिया खेलना जब तक कोई बड़ा डांटकर या प्यार से वहां से हटाता न था। दूरी बात जो ठीक से याद है, वह है लोगों को पेड़ पर चढ़ते या तैरते या साइकिल चलाते देखता, या यों कहें कि जब किसी को कोई ऐसा काम करते देखता जो तब मैं नहीं कर पाता था। मुझे याद है मैं मन-ही-मन अपन आप से कहता, “जब ये कर ले रहे हैं तो बड़ा होकर मैं भी कर लूंगा”।
तीसरी बात जो याद है कि मेरा शुरुआती बचपन, ज्यादातर माई (मां) के साथ नहीं, अइया (दादी) के साथ बीता या यों कहें कि दोनों के संयुक्त मातृत्व बोध के साथ । मेरा छोटाभाई मुझसे डेढ़-दो साल ही छोटा था तो प्राथमिकता के सिद्धांत से मां के साथ पर उसका ज्यादा अधिकार था। बचपन में मैं ददिहाल (अतरौड़ा, जिला जौनपुर) तो बहुत बार लजाता था ननिहाल (उनुरखा, जिला सुल्तानपुर) नहीं। दो अलग जिलों में होने के बावजूद दोनों लगभगल पड़ोसी गांव हैं। यह जानता था कि मेरे ननिहाल-ददिहाल के गांव आस-पास ही थे, क्योंकि ददिहाल में मेरे मामा कई बार खेत में काम करने के कपड़ों में ही आ जाते थे। लेकिन न तो मामा कभी मुझे अपने घर ले गए न मैंने कभी साथ जाने की जिद की। मेरे भइया, लक्ष्मी नारायण मुझसे 4-5 साल बड़े थे। बहुत दिनों बाद पता चला कि हम दोनों के बीच में एक भाई और थे जिनकी मेरे पैदा होने के पहले, लगभग डेढ़ साल की उम्र में उनकी मृत्यु ननिहाल में हो गयी थी। अंधविश्वास के चलते मेरा ननिहाल जाना अशुभ मान लिया गया और मैं लगभग 13 साल की उम्र में, जब साइकिल पर पैर पहुंचने लगा था, कक्षा 9 की परीक्षा देने बाद पहली बार ननिहाल गया। 13 साल के बाद की बातें बाद में, पहले 4 साल के बाद की। मेरा मुंडन पांचवें साल में,यानि 4 साल पूरा होने के बाद हुआ। बड़े बाल से अपरिचित लोग आमतौर पर लड़की समझ लेते थे, जो मुझे बुरा लगता था। इस विषय की एक घटना दोस्त और घर-गांव वाले अक्सर याद दिलाते रहते थे, इस लिए अभी भी वह घटना जस-की-तस याद है। एक बार हमउम्र लड़कों के साथ घर के पास की बाग में खेल रहा था, एक सज्जन कहीं से आए और मुझसे मेरे पिता जी कानाम लेकर घर का पता पूछने लगे। यहां तक तो ठीक था, लेकिन मेरी चोटी देखकर बेटी कहकर बुलाया था, मेरा संचित गुस्सा फूट पड़ा और मैंने प्रमाण के साथ उन्हें बताया कि मैं बेटी नहीं बेटा हूं। बड़ा होकर सोचता था/हूं कि 4 साल के बच्चे के दिमाग में यह कहां से आता है कि लड़का की बजाय लड़की होना अच्छी बात नहीं है? प्रकांतर से मैं इस परिघटना का इस्तेमाल अपने विद्यार्थियों को विचारधारा समझाने में करता था कि किस तरह एक प्रचलित विशिष्ट मान्यता विचारधारा के रूप में उतपीड़क के साथ, पीड़ित क भी प्रभावित करती है। क्लास में किसी बात पर किसी लड़की को “वाह बेटा” कह कर शाबाशी देता और वह भी इसे शाबाशी समझकर खुश हो जाती। फिर मैं किसी लड़के को “वाह बेटी” कह कर शाबाशी देता और पूरीन क्लास हंस देती। स्त्री-पुरुष में भेदभाव (जेंडर) कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है बल्कि एक विचारधारा है जो हम अपने रोजमर्रा के क्रिया-कलापों और विमर्शों क जरिए निर्मित-पुनर्निर्मित करते हैं और पोषित करते हैं। हम किसी खास बौद्धिक निर्मिति को स्वाभाविक और साश्वत सत्य के रूप में आत्मसात कर लेते है। यही बात, सांप्रदायिकता; जातिवाद; नस्लवाद आदि सभी विचारधाराओं पर लागू होती है।बन कर यह समझ कहां से बनती है कभी-कभी माई अइया को मेरा बाल संवारने का समय नहीं मिलता तो बाल की लटें पड़ जाती। हमउम्र लड़के-लड़कियां और कभी कभीकुछ बड़े लेग भी इमली हिलाने को कहते और मैं सिर हिला देता था। जब लट पड़ जाती तो अइया मुस्तानी मिट्टी से मेरे बाल धोतीं। गांव की औरते भी समय समय पर अपने बाल मुल्तानी मिट्टी से धोतीं। मुल्तानी मिट्टी बहुत चिकनी होती थी।
26.09.2015

Friday, September 19, 2025

बेतरतीब 176 (बचपन)

 एक युवा मित्र ने शुरुआती स्कूली दिनों की बात पूछीः


प्राइमरी यानि कक्षा 5 मैंने 1964 में पास किया वहां से उल्टी गणना करने पर लगता है कि गदहिया गोल या अलिफ में स्कूल में दाखिला, जुलाई 1960 मे लिया रहा होऊंगा। हम जब प्राइमरी में पढ़ने गए तो स्कूल में 3 कमरे थे और 3 शिक्षक, रामबरन 'मुंशीजी' हेडमास्टर थे और एक कमरे में वे कक्षा 4और 5 को पढ़ाते थे और उनसे जूनियर 'बाबू साहब' थे, वासुदेव सिंह, जो कक्षा 2 और3 को दूसरे कमरे में पढ़ाते थे। 'पंडित जी' सीतीाराम मिश्र सबसे जूनियर थे वे कक्षा 1 और गदहिया गोल (अलिफ या प्रीप्रािमरी) को तीसरे कमरे में पढ़ाते थे।हमारे स्कूल की इमारत मिट्टी और ईंट की दीवारों बनी खपड़ैल इमारत थी, मुख्य कमरे के चारों तरफ 4 बरामदे थे। सामने का बरमदा खुला था तथा बाकी तीनों तरफ के बंद कमरे के रूप में थे। मुख्य कमरे में कुर्सी-मेज, टाट-पट्टी, श्यामपट तथा स्कूल के अन्य सामान रखे जाते थे। मुंशीजी पतुरिया जाति के थे। पंडित जी हमारे ही गांव (सुलेमापुर) के हमारे ही विस्तृत कुटुंब के थे। बाबू साहब, हमारे गांव से उत्तर, बगल के गांव, नदी उस पार बेगीकोल के थे। वैसे उनका एक घर इस पार, हमारे गांव के पश्चिम गोखवल में भी था। मुंशी जी गांव के दक्खिन पश्चिम के बगल के गांव अंड़िका के थे। ब्राह्मण शिक्षक को पंडित जी, ठाकुर को बाबू साहब, भूमिहार को राय साहब, मुसलमान को मौलवी साहब तथा कायस्थ समेतअन्य हिंदू जातियों के शिक्षकों को मुंशी जी कहा जाता था। गदहिया गोल में अक्षरज्ञान के लिए हमलोग लकड़ी के छोटे श्यामपट (तख्ती) पर, खड़िया(चाक) से लिखते थे जिसे पोचारे से साफ या काला किया जाता था। दो विषय थे भाषा और गणित यानि संख्या ज्ञान। शुपरुआती पढ़ाई-लिखाई अक्षर ज्ञान तथा संख्या से हुई। दोपहर बाद हम गिनती बोल बोल कर पढ़ते थे। 1 से 10 की गिनतियां याद करने के बाद दहाई-इकाई में याद करते थे। जैसे दस दो बारह-एक दुहाई+ दो इकाई। उस समय मैं इकाई का इ गायब कर दुहराता था।

पंडित जी ने संख्या (गणित) में मेरी रुचि देखकर गदहिया गोल से एक में कुदा दिया। इस तरह मैं 1960-1961 में गदहिया-गोल और कक्षा 1 की पढ़ाई पूरी करके1961-62 में कक्षा 2 में चला गया तथा बाबू साहब पढ़ाने लगे। कक्षा 2 और 3 में बाबू साहब ने पढ़ाया। कक्षा 3 के आखिरी दिनों में मुंशी जी रिटायर हो गए और बाबू साहब हेड मास्टर होकर कक्षा 4-5 को पढ़ाने लगे और पंडित जी कक्षा 2 और 3 को। इस तरह कक्षा 2 में और कुछ दिन कक्षा 3 में हमें बाबू साहब ने पढ़ाया और राम बरन मुंशी जी के रिटायर होने के बाद, कक्षा 3 के बचे दिन हमें पंडित जी ने। नए शिक्षक रमझूराम मुंशी जी दलित जाति के थे। वरीयता क्रम में वे गदहिया गोल और कक्षा 1 को पढ़ाने लगे। मुझे न तो रामबरन मुंशी जी ने पढ़ाया न ही रमझूराम मुंशी जी ने। कक्षा 4 में डिप्टी साहब (एसडीआई) मुाइना करने आए, उन्होंने कक्षा 5 वालों से गणित (अंक गणित) का कोई सवाल पूछा, सब खड़े होते गए। सवाल सरल सा था, कक्षा 5 की टाट खत्म होते ही कक्षा 4 की टाट पर सबसे आगे मैं बैठता था और फटाक से जवाब दे दिया। डिप्टी साहब साबाशी देने लगे तो बाबू साहब ने उन्हें बताया कि मैं अभी कक्षा 4 में था। डिप्टी साहब बोले, इसे 5 में कीजिए। अगले दिन, मैं बड़े भाई की पढ़ी कक्षा 5 की किताबें (भाषा और गणित) तथा एक नई गोपाल छाप क़पी लेकर आया और कक्षा 5 की टाट पर आगे वैठ गया। बाबू साहब ने मुझे वहा से उठकर अपनी पुरानी जगह पर जाने को कहा। मैंने कहा कि डिप्टी साहब ने मुझे 5 में पढ़ने को कहा है। बाबू साहब ने तंज के लहजे में कहा कि "भेंटी पर क बाटा लग्गूपुर पढ़ै जाबा तो सलार पुर के बहवा में बहि जाबा" (छोटे से हो लग्गूपुर पढ़ने जाओगे तो सलारपुर के बाहे में बह जाओगे)। मैंने कहा, "चाहे बहि जाई चाहे बुड़ि जाई, डिप्टी साहब कहि देहेन त हम अब पांचै में पढ़ब" (चाहे बह जाऊं या डूब जाऊंं, डिप्टी साहब ने कह दिया तो मैं अब 5 में ही पढ़ूंगा।) । हमारे गांव से सबसे नजदीक मिडिल स्कूल 7-8 किमी दूर लग्गूपुर था। बहल का गांव सलारपुर है, बरसात में खेत से तालाब में पानी निकासी के नाले को बाहा कहा जाता था। अब न तो तालाब बचे हैं न ही बाहा। इस तरह मैं एक मौखिक सवाल की परीक्षा से मैं कक्षा 4 से कक्षा 5 में चला गया।