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1750 में फ्रांस की प्रतिष्ठित दिजों अकेडमी ने इसी विषय पर एक निबंध प्रतियोगिता विज्ञापित की । "क्या विज्ञान और कला की बहाली नैतिकताओं के शुद्धिकरण में सहायक रही है?" हवा को पीठ न देने वाले भावी दार्शनिक रूसो अखबार में यह विज्ञापन पढ़कर रो पड़े थे। जैसा कि वे अपनी आत्मकथा, 'इकबालनामा (Confessions)' में लिखते हैं कि यह विज्ञापन पढ़ते ही उन्होंने एक अलग दुनिया दिखने लगी, वे एक अलग इंसान बन गए। इस निबंध ने रूसो का कायापलट कर दिया, उन्हें दुनिया के जाने-माने विद्रोही दार्शनिक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया और वे आजीवन मनुष्यता को सभ्यता की विध्वंशक प्रवृत्तियों के बारे में आगाह करते रहे। रूसो ने लिखा कि कला और विज्ञान के साथ नैतिकताओं में विकृति आना शुरू हुई। यह रूसो का 'पहला विमर्श' कहलाता है। इस निबंध को पहला पुरस्कार मिला और पुरस्कार राशि से उन्हें काफी राहत मिली। वे निबंध से उतने नहीं मशहूर हुए जितने उसकी आलोचनाओं और उनके जवाब से। कुछ साल बाद उन्होंने फिर एकेडमी की निबंध प्रतियोगिता में शिरकत की इस बार उनका निबंध पुरस्कृत नहीं हुआ लेकिन इसने उनके भविष्य के दार्शनिक जीवन की बुनियाद डाली। यह निबंध असमानता पर था। यह दूरा विमर्श या असमानता पर विमर्श नाम से जाना जाता है। समानता के बिना स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं। इसी लिए वे अपनी कालजयी कृति, 'सामाजिक अनुबंध (सोसल कॉन्ट्रैक्ट)' इस वाक्य से शुरू करते हैं, "मनुष्य पैदा स्वतंत्र होता है लेकिन जंजीरों में जकड़ा हुआ पाता है"। दुर्भाग्य से वह इन जंजीरों को माला समझ सहेजता है। बाभन से इंसान बनना इन्हीं जंजीरों से मुक्ति का मुहावरा है।
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