बहादुर "दुस्साहसी" पत्रकार राणा अयूब की 'गुजरात फाइल्स' की समीक्षा लिखनी है. समझ नहीं आ रहा है कहां से शुरू करूं? दुस्साहसी इसलिए कि रोंगटे खड़े कर देने वाले ज़ोखिम उठाकर 2002 के दंगों तथा फर्जी मुठभेड़ों में डॉन तथा उनके डिप्टी की भूमिका के बारे में 10 महीने में अकाट्य सबूत इकट्ठा किया लेकिन डॉन भय से आतंकित 'तहलतका' ने उसे नहीं छापा. फासीवादी आतंक का भय और क्या होगा कि देश भर में कोई प्रकाशक छापने के लिए तैयार नहीं हुआ, खुद छापा तो वितरक नहीं मिला. लेकिन अॅमाजोन ऑनलाइन से किताब खूब बिक रही है. पंकज भाई (पंकज बिष्ट, संपादक, समयांतर) का शुक्रिया. किसी महान उपन्यास की तरह शुरू करके एक ही बार में खत्म करना पड़ा. 1980 के आसपास एक अंग्रेजी जासूसी फिल्म देखा था जिसमें हिरोइन भेष बदलकर एक खतरनाक माफिया के खिलाफ सबूत जुटाती है. लोगों तथा अधिकारियों में जो भय का माहौल उस फिल्म में मिलता है वही इस किताब में, बस वह आपराधिक अंडरवर्ल्ड की कहानी थी यह राजनैतिक अंडरवर्ल्ड की. यह एक बेहद उम्दा उपन्यास है जिसके सभी किरदार वास्तविक है. सलाम राणा अयूब.
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