आधुनिक(पूंजीवादी) सभ्यता व्यक्ति में दोगलेपन का संचार करती है, हर कोई वह दिखना चाहता/ती है जो होता/ती नहीं. सार और स्वरूप का यह अंतर्विरोध स्वस्थ विमर्श, मुक्त आत्मचिंतन एवं आत्मालोचना और परिणामस्वरूप समाज के समुचित, बौद्धिक विकास में बाधक है. कोशिस होनी चाहिए वैसा बनने की जैसा हम दिखना चाहते हैं.
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