बचपन में मेले में नाचती कठपुतलियां देखा और समझ लिया कि इन्हें कोई नचा ही रहा होगा और फिर एक हाथ में सुलगती बीड़ी लिए और दूसरे हाथ में कठपुतलियों की डोर पकड़े नचाने वाले को भी देखा। 1980 के दशक में उजड़ती कठपुतली कॉलोनी पर एक पत्रिका के लिए एक रिपोर्ट के लिए बहुत से कठपुतली कलाकारों और उजड़ने के पूर्वानुमान से भयाक्रांत उनके परिजनों से बातचीत किया था। वे कॉलोनी में सफाई और सिविक सुविधाओं की मांग कर रहे थे और सरकार जमीन खाली कराने की तरकीब कर रही थी, शायद वसंतकुंज में उनके पुनर्वास का हवाई वायदा किया गया था। खैर उस समय तो सिविल सोसाइटी, जनसंगठनों और मीडिया के दबाव में उनका उजड़ना टल गया था। शादीपुर डिपो के पास मुल्यवान रीयल एस्टेट पर बिल्डरों की निगाह बनी रही और अंततः 2017 में डी़डीए और पुलिस ने उन्हें उजाड़ ही दिया। एक बार उजड़ जाने के बाद उजड़े लोगों का पुनर्वास फाइलों में होता रहता है। नचाने वालों के इशारे पर नाचने वाली कठपुतलियों की तो बात ही छोड़िए कितने निरीह होते हैं, उन्हें नचाने वाले भी। सजीव कठपुतलियों और उन्हे नचाने वालों की भी हालत निर्जीव कठपुतलियों और उन्हें बनाने-नचाने वाले कलाकारों सी ही होती है।
No comments:
Post a Comment