हमारे गांव में तो जनेऊ केवल सवर्णों का होता था, ठाकुरों का शादीके पहले, ब्राह्मणों का बचपन में। मेरा जनेऊ 9 साल में (10 साल का होने के 2-3 महीने पहले) हो गया था। 12-13 साल की उम्र तक अनावश्यक लगने लगा और निकाल दिया। 12 साल में गांव से मिडिल पास कर शहर (जौनपुर) में हॉस्टल में रहने लगा। मैं जब घर आता दादाजी (बाबा) मंत्र पढ़कर पहना देते, मैं ट्रेन पकड़ने निकलते वक्त निकालकर गांव के बाहर किसी पेड़ में टांग देता। 5-7 बार के बाद बाबा ने मान लिया कि अब लड़का हाथ से गया और बंद कर दिया। मैंने किसी क्रांतिकारी चेतना के तहत नहीं, चुर्की (चुटिया) की ही तरह अनावश्यक समझ जनेऊ से मुक्ति ली थी। एक पिछड़े गांव के सीमित exposure वाले 12-13 साल के बालक की सामाजिक चेतना इतनी नहीं होती कि सैद्धांतिक सोच-विचार के बाद ऐसा करता। 9-10 साल की उम्र की एक घटना से ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध पर थोड़ा मंथन जरूर करता था।
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